हाइगा आनन्दिका
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
जीवनानुभूतियों की सुंदर, सरस ,लयात्मक अभिव्यक्ति सर्वदा आनंद की स्रोतस्विनी रही है। इस
दृष्टि से डॉ. सुधा गुप्ता का रचना-संसार बहुत समृद्ध तथा हिंदी साहित्य की अनुपम
निधि है। कहना न होगा कि विविध विधाओं में सुधा जी की पुस्तकों ने हिंदी साहित्य
जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया। जिन्हें सुधी पाठकों एवं आलोचकों ने समीचीन
अभियुक्तियों से अलंकृत किया। हाइकु, ताँका, चोका, सेदोका, हाइबन प्राय: सभी ने साहित्य जगत को अपनी ओर आकर्षित किया
तथा पर्याप्त चर्चा का विषय बने। परंतु आज इनसे इतर एक अन्य विधा ‘हाइगा’ पर रचित डॉक्टर सुधा जी की पुस्तक ‘हाइगा आनन्दिका’ से
सुधी पाठक वर्ग का परिचय करवाना मेरा मंतव्य है।
वस्तुत: जब हाइकु को उसमें व्यंजित भाव से सम्बद्ध चित्र पर
अंकित किया जाता है तब वह रचना ‘हाइगा’ कहलाती है। डॉ. सुधा गुप्ता जी ने पुस्तक की भूमिका में
"हाइगा से मेरा परिचय : अनुराग और अंतरंगता" शीर्षक के अंतर्गत हाइगा की
रचना प्रक्रिया ,उद्भव और विकास पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार जापान में काली स्याही की
चित्रांकन कला को ‘सुमिए’ कहते
हैं। ‘सुमि’अर्थात काली तथा ‘ए’ मतलब चित्र। डॉ. सुधा जी के शब्दों में इन चित्रों के साथ हाइकु का संयोग
सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में निखरा जो ‘हाइगा’ कहलाया। हाइकु में ‘कु’ का अर्थ है कविता और हाइगा में ‘गा’का अर्थ है चित्र। इस प्रकार हाइकु कविता को चित्र के साथ व्यंजित करना ‘हाइगा’ हुआ। पुस्तक में चित्र, सुलेख में अंकित हाइकु को हाइगा के रूप में परिभाषित करते
हुए सुधा जी का पहला ही हाइगा है - संगम त्रयी .. पृ.13
इसी संदर्भ में सुधा जी ने बाशो एवम् उनके शिष्य के उद्धरण से यह भी स्पष्ट किया कि
जिस प्रकार बाशो अपने सीधे- सरल रेखांकन पर तत्सम्बद्ध हाइकु अपने ही सुलेख में
अंकित कर हाइगा बना लेते थे , वैसे ही उनके हाइकु पर बाशो के शिष्य भी काली स्याही और
तूलिका से चित्र बना देते थे । इस प्रकार हाइकुकार की अपनी हस्तलिपि में अन्य
कलाकार के द्वारा बनाए चित्र पर हाइकु लेखन भी मिलकर ‘हाइगा’ के रूप में स्वीकृत हुआ। प्रिंटेड चित्र पर अंकित हाइकु को ‘हाइगा’ के रूप नें सुधा जी की स्वीकृति नहीं मिली। यद्यपि वर्तमान
समय में यह प्रचुर मात्रा में दिखायी देते हैं।
डॉ. सुधा गुप्ता जी ने पुस्तक की भूमिका में ही अपनी इस
इच्छा का भी उल्लेख किया कि वह ‘हाइगा’ का ऐसा संग्रह प्रकाशित करें जिसमें मुख्य रूप से बालकों की
रुचि के कुछ हाइकु एवं तत्संबंधी चित्र हों। यह संग्रह बालकों में वितरित किया जाए
और उन्हें हाइगा के रूप से परिचित कराया जाए । यही कारण है कि ‘हाइगा आनन्दिका’ के हाइगा सुधा जी ने मुख्यतः बच्चों की रुचि के अनुरूप
सृजित किए। प्रकृति के मोहक स्वरूप पर , जो कि बच्चों को आकर्षित करें,ऐसे हाइकु चुने । उन पर श्रीमती निरुपमा ,
डायरेक्टर ,निरुपमा प्रकाशन , मेरठ ने बहुत ही सुरुचि पूर्वक चित्र बनाए । पुन: सुधा जी
ने उन चित्रों पर अपने सुलेख में हाइकु लिखकर हाइगा बनाए।
यही कारण है कि पुस्तक में पशु-पक्षी,
फूल-पत्तियों से सजे रोचक , मोहक हाइगा सर्वाधिक दृष्टिगोचर होते हैं । भालू है ,
गिलहरी है,गौरैया, मैना , तोता , बढ़ई ,तितली, बतख, कबूतर ,किंगफिशर,मोर , बाबुना से सजा संसार बहुत प्यारा है । जिनमें बच्चों का ही
नहीं बड़ों का भी मन अटक-अटक रह जाता है । चटखारे लेकर बेर खाते भालू को देखिए- पृ.56
मेघों से आच्छादित आकाश तले नाचते मोर गीत गाती बाबुना सभी
को अपनी ओर आकर्षित करते हैं - पृ.57
प्रात:काल में जब भी किसी प्राथमिक विद्यालय के निकट से
गुजरो तो नन्हें बच्चों की सहज उछल-कूद और शोर उन्हें देखने के लिए विवश कर देते
हैं । अद्भुत व्यंजना है ! दृश्य उकेरने में सिद्ध सुधा जी की लेखनी भोर की कक्षा
का कैसा सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करती है देखिए – पृ.30
क्यारियों में सिर उठाए खड़े पौधों पर खिले फूल उन्हें
प्रकृति माँ से सुबह की चाय माँगते बच्चों जैसे प्रतीत होते हैं- पृ.85
इसी प्रकार वृद्धावस्था और बाल्यावस्था को एक साथ उपस्थित
करता हाइगा भी अद्भुत है – पृ.76
कान्हा में अनुरक्त मन , मयूर पंख , तुलसी-माल, बांसुरी की धुन मन में सुनते-गुनते,
आराधना करते हाइगा
भी पुस्तक में सजे हैं ।पृ.14
‘संतोष ही परम धर्म है और अनमोल धन भी ‘का उद्घोष करता सुधा जी का सुप्रसिद्ध हाइकु ‘चिड़िया रानी’ भी पुस्तक की आभा को द्विगुणित करता विराजमान है,
अपना सन्देश संवाहित करने में समर्थ है – पृ.31
किं अधिकं , प्रकृति में रमी प्रकृति वाली सुधा जी की लेखनी कहीं भी
भ्रमण करे अंततोगत्वा प्रकृति पर लौट आती है। ‘हाइगा आनन्दिका’ में भी प्रकृति के इतने सुन्दर दृश्य साकार किए हैं कि कुछ
कहते न बने। घर के आँगन में महकते तुलसी-चौरे से , ट्यूलिप , धरा का शृंगार करता वसंत , फूलों की पाग बाँधे ‘वर’ जैसा पर्वत-शिखर। आड़ू -अनार से लदे
वृक्ष और इन्द्रधनुषी पंखों वाली तितलियाँ बड़ी सुन्दरता से पुस्तक में विद्यमान
हैं। नटखट गंगा फेन उड़ाती रस की झारी-सी प्रतीत होती है तो कहीं एकाकिनी तापसी
जैसी - पृ. 35
कस्तूरी मृग, हिरणी, घटाएँ ,चाँद से सजा आकाश क्या कहिए छोटी सी पुस्तक में सुधा जी का
रचना-संसार इतना विस्तृत है कि उसे शब्दों मे कह पाना सहज नहीं । उसे तो पुस्तक
पढ़कर ही जाना जा सकता है ।
अस्तु, श्रीमती निरुपमा जी का सरल, सधा, मोहक रेखांकन और उस पर डॉ. सुधा जी के सुन्दर हस्तलेख में भावप्रवण हाइकु का
संयोग अनुपमेय है।
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
वापी, गुजरात
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