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दशकों के काव्य की अंतर्यात्रा है : बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और हिन्दी कविता
कुलदीप ‘आशकिरण’
हाल ही में (18 नवंबर, 2023 को) इस जीवन और जगत की अंतर्यात्रा को पूर्ण
कर गोलोकवासी
हुई हिन्दी साहित्य की मूर्धन्य रचनाकार डॉ. सुधा गुप्ता ने आजीवन साहित्यिक सेवा में
रत रहीं और उन्होंने अपनी
रचनाओं से हिन्दी साहित्य संसार को समृद्ध किया। कविता, हाइकु, आलोचना
और आत्मकथा जैसी विधाओं में दर्जनों किताबें उनके नाम से प्रकाशित हैं। इन्हीं कृतियों
में से 'बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और हिन्दी कविता’ शीर्षक
से एक महत्वपूर्ण आलोचनात्मक कृति है, जिसके अब तक दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं,
पहला संस्करण 2004 में और दूसरा 2020 में। डॉ. सुधा गुप्ता की यह आलोचनात्मक कृति छः
दशकों की काव्ययात्रा को अपने आप में संजोए हुए है।
पुस्तक के पुरोवाक् में ही लेखिका
देश की आजादी और नेताओं की स्वार्थ लोलुपता पर कटाक्ष करते
हुए लिखती हैं “खून
की नदी में बहती कटी फटी लाश सी आजादी मिल गई भारत वासियों को..... राष्ट्र की देह
के कटे हुए हिस्से मुँह चिढ़ा रहे थे।”
इतना ही नहीं वह जातीयता, धर्म, क्षेत्रीयता
और भाषाई विवाद जैसे मुद्दों को, जिस पर उस दौर के रचनाकारों ने अपनी कलम चलाई; को
भी अपनी इस कृति में आलोचनात्मक
दृष्टि से पिरोती हैं। देश में फैली अशिक्षा, बढ़ती बेरोजगारी और अराजकता जैसी राष्ट्रीय
समस्याओं को भी समाज सापेक्ष प्रस्तुत करने का इन्होंने यहाँ सार्थक प्रयास किया है। इसमें
न केवल छः दशकों के काव्य की अंतर्यात्रा है बल्कि इनका स्वयं का जिया हुआ यथार्थ है,
जिसे आत्मसात कर इन्होंने अपनी इस कृति में पिरोया है।
तीन
अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में डॉ. सुधा गुप्ता ने लगभग 900 से अधिक काव्य संग्रहों
का वाचन
कर पुस्तक में संदर्भित किया है। साथ ही इस दौर की कविताओं
और उनके रचनाकारों का भी आलोचनात्मक मूल्यांकन बड़ी सहजता से किया है। कृति का पहला
अध्याय 'विषय प्रवेश' है जिसका शीर्षक 'स्वातन्त्रयोत्तर हिंदी कविता : सामान्य परिचय'
जरूर दिया गया है, किंतु स्वतंत्रता के बाद हिंदी कविता के 50 वर्षों की कविता को अपने
आलोचनात्मक दृष्टि से विश्लेषित करते हुए विभिन्न कालखण्डों में समाज और राजनीति के
साथ बदलते कविता के स्वर को उनकी प्रवृत्तियों के साथ उकेरती हैं। कविता के संदर्भ
में इनका मत है कि “जिस
प्रकार जल धारा की यात्रा होती है ठीक उसी प्रकार कविता की यात्रा भी है।” इन्होंने न केवल कविता को परिभाषित किया बल्कि इस
कालखण्ड की काव्य अंतर्यात्रा और उनके रचनाकारों एवं संपादित प्रकाशकों से भी हमें रूबरू कराती है। विदित है कि इस कालखण्ड
में (1951-2000) विभिन्न काव्य आंदोलन हुए जिसे साहित्येतिहासकारों ने 'युग और वाद'
में विभक्त किया है। किन्तु डॉ. सुधा गुप्ता अपनी इस कृति में इन कालखण्डों के काव्य
आंदोलन को नए शीर्षकों से अभिहित करती हैं। जहॉं वह छायावाद से लेकर प्रगतिवाद
तक के काव्य आंदोलन को 'नई कविता के कदमों की आहट' के रूप में देखतीं हैं वही सातवें
दशक की कविता को ‘कविता
के पाँव
में चुभा काँटा’ और
आठवें नवे दशक की कविता को 'कविता की वापसी' के रूप में। छायावाद, प्रगतिवाद और नई
कविता के प्रवर्तकों और उनके प्रेरणा स्रोतों पर भी अपनी पैनी दृष्टि डालते हुए लेखिका
ने विभिन्न दर्शनों से प्रभावित रचनाकारों का भी सहज मूल्यांकन अपनी इस कृति में किया है।
कृति के दूसरे अध्याय (प्रयोगवादी धारा) की
शुरुआत डॉ. धर्मवीर सिंह की परिभाषा से करते हुए स्वयं प्रयोगवाद को मोहभंग के रूप
में उद्भाषित कर इसे सामाजिकता के अभाव की कविता कहकर गहनता से देखती हैं।
साथ ही प्रयोग की विरासत के रूप में इन्होंने निराला की कविता और उनकी सामाजिक चेतना
को ही उदाहरण के साथ प्रस्तुत करते हुए प्रयोग की विरासत सिद्ध करती हैं। इस अध्याय
में लेखिका ने प्रयोगवाद, नकेनवाद, नई कविता तथा नवगीत आदि की विस्तृत चर्चा करते हुए
इस दौर के काव्यान्दोलन और अन्य विधाओं (जैसे गजल, दोहे, शायरी, हाइकु, प्रलम्ब आदि)
का भी गहनतम अध्ययन कर विशद
विश्लेषण प्रस्तुत करतीं हैं। गजल, दोहे और शायरी के अतिरिक्त जिन विधाओं का लेखिका
ने सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है वह है 'हाइकु' और 'प्रलम्ब कविता' हाइकु के अंतर्गत
'हाइकु का मूल, हाइकु का स्वरूप एवं विकास, हाइकु का काव्यशिल्प तथा हिंदी में हाइकु
कविता' शीर्षक से सूक्ष्म विश्लेषण
किया। इसे अधिक जानने और समझने
के लिए पाठक को मूल कृति से रूबरू होना पड़ेगा।
हाइकु की भाँति 'प्रलम्ब कविता' के इतिहास
और स्वरूप पर भी इसी अध्याय में प्रकाश डालती हैं
और 'पंत' की 'परिवर्तन' कविता को प्रथम 'प्रलम्ब कविता' मानते हुए बताती हैं
कि 'प्रलम्ब कविता का इतिहास भी कम से कम 80 वर्ष पुराना है। इसके अंतर्गत आने वाली
कविताओं की एक लंबी सूची रचनाकारों और इनके प्रकाशन वर्ष के साथ पुस्तक में शामिल है
जो पाठक वर्ग के लिए नवीन और उपयोगी है।
कृति का अंतिम और तीसरा अध्याय 'हिंदी कविता
(1950–2000 ई. )शीर्षक है। इस अध्याय के अंतर्गत लेखिका ने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध
के पाँच दशकों
की हिंदी कविता के वैचारिक धरातल और इसके शिल्पगत सौंदर्य को सोदाहरण प्रस्तुत किया
है। इस अध्याय का आरंभ वैचारिक धरातल उपशीर्षक से करते हुए
'मुक्तिबोध' के वाक्य 'हम व्यक्तिवाद के दण्डकारण्य से बाहर निकल पड़े हैं....... हम
स्वागत भाषण और एकालाप से हटकर वार्तालाप की ओर जाएँ, निःसंगता से हटकर संघर्ष में
योग दें।' से करते हुए हिंदी कविता पर अस्तित्ववाद, यथार्थवाद, प्रतिकवाद और धनवाद के प्रभाव को भी
बारीकी से पकड़ते हुए मूल्यांकित करती हैं। इस अध्याय में इन्होंने हिंदी कविता का शब्द-सम्पदा,
नवीन विश्लेषण, प्रतीक योजना
और नाद-सौंदर्य की दृष्टि से भी विशेष मूल्यांकन
किया है।
पुस्तक पढ़ने में लगभग एक सप्ताह के श्रमसाध्य के
बाद निष्कर्षतः
मैं कह सकता हूँ कि पाँच दशकों से भी अधिक कालखण्ड की हिंदी
कविता का समग्रता और सहजता से मूल्यांकन, विश्लेषण और विवेचन करना बहुत ही श्रमसाध्य
और कठिन कार्य है जिसे डॉ. सुधा गुप्ता ने किया है। पाठकों के समक्ष प्रस्तुत पुस्तक
अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण शोध
ग्रंथ है और शोधार्थियों के लिए के लिए महत्वपूर्ण सहायक शोध सामग्री। इस पुस्तक को
पढ़ने की प्रेरणा मुझे मेरे गुरु प्रोफेसर हसमुख परमार से मिली जिन्होंने मुझे न केवल
पुस्तक ही उपलब्ध कराई अपितु सुधा जी के संपूर्ण कृतित्व और व्यक्तित्व से भी रूबरू
कराया। अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित यह पुस्तक 'बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध
और हिंदी कविता' हिंदी साहित्य की अमूल्य
निधि है।
कुलदीप ‘आशकिरण’
शोधछात्र हिंदी विभाग,
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभविद्यानगर
शब्द सृष्टि का दिसम्बर अंक लेखिका के रचनाकर्म पर आधारित विशेषांक और उनके लेखकीय कर्म को संजोने का अंक है।...साहित्य की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसे सम्पादक महोदया और परामर्शक सर ने बड़ी ही मेहनत और लगन से तैयार किया। इस विशेषांक के माध्यम से न केवल लेखिका को ही स्थापित किया गया है, बल्कि साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा (हाइकू) को भी बचाने, संजोने और प्रकाश में लाने का काम किया गया है। इसके लिए परमर्शक प्रो. हसमुख परमार सर और सम्पादक डॉ. पूर्वा शर्मा जी बधाई के पात्र हैं। वैसे मेरे भी एक आलेख को इस अंक में जगह दी गयी है इसके लिए मैं गुरुवर प्रो. हसमुख परमार सर और पूर्वा मैंम का कोटिशः धन्यवाद देता हूँ।
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बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और हिंदी कविता' हिंदी कविता के विकास यात्रा पर पुनर्पाठ करवाती है बहुत सुंदर रचना
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