आलोचना से....
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बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और हिन्दी कविता
जिस वातावरण
में और परिवेश में मनुष्य जीता है, उसका प्रतिबिम्बन समकालीन साहित्य में अनिवार्य है। इस
दृष्टि से भारतीय, विशेषतः
हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि साहित्य ने पूरी ज़िम्मेदारी से
अपना दायित्व निभाया है। केवल उपलब्धियों के गीत गाने से बात नहीं बनती, अपनी ख़ामियाँ टटोलने की हिम्मत, नंगे सच को बेदर्दी से उघाड़कर दिखाने की चिकित्सकीय
निर्ममता भी बेहद ज़रूरी, है, ताकि सड़े-गले अंग की शल्य- चिकित्सा सम्भव हो। (पुरोवाक्, पृ. 9)
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हिन्दी की
नयी कविता में एक बात जो सबसे ज़्यादा उभरकर सामने आयी, वह है – सामाजिक चेतना की
अपेक्षा व्यक्ति चेतना की प्रधानता। व्यक्ति-चेतना की प्रमुखता, व्यक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व का प्रबल समर्थन सर्वप्रथम
अज्ञेय ने ‘नदी के द्वीप’ में किया था- “जैसे नदी द्वीप को आकार देती है, वह द्वीप धारा नहीं है, उसी प्रकार व्यक्ति का व्यक्तित्व समाजाश्रित होकर भी स्वतंत्र
है।” दूसरी प्रमुख बात जो सामने आई, वह थी व्यक्ति-सत्य की प्रतिष्ठा।’ व्यक्ति सत्य एकमात्र
सत्य है- व्यक्ति स्वयं मूल्यों का स्रष्टा है, वही उनका आश्रयदाता भी है अतः समाज में व्याप्त घुटन, टूटन, टकराव और अनास्था को पूरी ईमानदारी से व्यक्त करना, पूर्व धारणाओं के टूटने की पीड़ा को सहना और समष्टि-सत्य द्वारा
व्यक्ति-सत्य को ग्रस लिये जाने के संकट का विरोध-यह व्यक्ति का स्वाभाविक कर्म
है।(पृ.181)
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हिन्दी हाइकु, ताँका, सेदोका की विकास-यात्रा : एक परिशीलन
हाइकु अपनी लघुकाया – मात्र सत्रह वर्ण के छोटे से शरीर में
कुछ ऐसा अवश्य लिए हैं जो बरबस मन को खींचता है - कुछ ऐसा संकेत जो पढ़ते ही मन को
आह्लादित कर दे, उत्फुल्लता से भर दे - हाइकु की ऐसी वक्रता जो सहसा अर्थ को
उद्घाटित कर पाठक-मन को चौंका कर रसप्लावित कर दे- पाठक का यह अनुभव कि बिना चेताए
कोई लहर आकर उसे अपने साथ खींच कर, बहा कर ले गई है- यही है एक समर्थ-सफल हाइकु की पहचान, एकमात्र
कसौटी ! भारतीय काव्यशास्त्र में जिसे
‘ध्वनि-काव्य’ कहा गया है, ‘शब्द शक्ति’ में जो ‘लक्षणा’, ‘व्यंजना’ की शक्ति है, ‘वाग्-वैद्ग्ध्य’
से जिस चमत्कार की सृष्टि होती है – हाइकु प्रथम बार पढ़ने में थोड़ा-सा अर्थ देकर, धीरे-धीरे
खिलते फूल की भाँति भीतरी परत-दर-परत अर्थ खोलता चलता है - वही हाइकु उत्कृष्ट है।
(पृ.166)
डॉ. सुधा गुप्ता
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