1. आत्मकथा-अंश
एक पाती : सूरज के नाम
प्रेम जीवन का एक ऐसा भाव है जिसके बिना सब कुछ अधूरा है, व्यर्थ है। किन्तु कब तक है प्रेम की सार्थकता? जब तक ‘प्रेमास्पद’ से तुम कोई अपेक्षा न रक्खो। मैंने पहला
निष्कर्ष निकाला, अध्ययन के
आधार पर नहीं, अनुभव के
आधार पर : प्रेम को प्रेम ही रहने दो... उसे ‘दारुण’ मत बनने दो... प्रेम प्रेम ही
रहे... ‘दण्ड’ न बन जाये... आज भी दुनिया में बहुतेरे मनुष्य इस बात पर गर्व करते
मिल जायेंगे कि वे फलां व्यक्ति को (यह सम्बन्ध प्रिय, पति, पत्नी, भाई, बहिन, पुत्र, सखा, मित्र या कोई अन्य... कुछ भी हो सकता है) बेहद प्रेम करते
हैं, उसे ‘प्राणों’ से भी अधिक
‘चाहते’ हैं, कि उसके
बिना या उससे दूर रह ही नहीं सकते आदि आदि। किन्तु क्या कभी उन्होंने सोचा कि उनकी
यह प्रेम की ‘अतिशयता’ प्रेमास्पद के लिये एक ‘असहनीय दारुण यातना’ में बदल गई है? प्रेम हो – नि:संदेह अपार, असीम, अनन्त भी हो किन्तु प्रेम ही रहे... प्रेमास्पद की ज़िन्दगी, उसकी अपनी निजता, अपनी खुशियों का स्रोत, उसकी व्यक्तिगत आजादी भरपूर बनी रहे तभी तुम्हारे प्रेम की
सार्थकता है... यदि तुम्हारा प्रेम ‘बोझ’ बन कर प्रेमास्पद को थकाने लगे, उबाने लगे तो समझ लो कि प्रेम की असमय-अकाल मृत्यु
सुनिश्चित है।” (पृ. 550)
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और सबसे अंत में अपने उस प्रेम का जिक्र करूँगी जो छोटी
उम्र में शुरू किया था और आजीवन मैं उसमें डूबी रही, आज भी करती हूँ और करती रहूँगी... वह है मातृ-भाषा हिन्दी
के प्रति प्रेम। ‘राष्ट्र-भाषा’, ‘राजभाषा’; ‘सम्पर्क भाषा’ जैसी ‘कवायदों’ से कुछ नहीं होता न होना है, न हिन्दी दिवस औपचारिक आडम्बरपूर्ण आयोजनों से कुछ हासिल
होना है। काफी छोटी थी, अपने पूज्य पिता जी के पुस्तकालय से पुस्तकें पढ़ कर हिन्दी
के प्रति एक विशेष लगाव महसूस किया था। इस ‘हिन्दी-प्रेम’ ने मेरा कैरियर बनाया, आजीविका का साधन उपलब्ध कराया और मैंने निरंतर अपने सम्पर्क
में आने वालों को हिन्दी-प्रेम के प्रति प्रोत्साहित करने की प्रेरणा दी। हिन्दी
का प्रचार-प्रसार मेरे जीवन का एक खूबसूरत लक्ष्य रहा है और जब तक इस शरीर में हूँ, रहेगा।...(पृ. 554-555)
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2. हाइबन
कर्मयोगी
चैत्र माह का शुक्ल पक्ष। दिन बढ़ गया है। सूरज छह बजे
हाज़िरी दे देता है। चकाचौंध भरी धूप ! उजास का समुन्दर लहरा रहा है। सुबह से शाम
तक सुनहरी धूप बिखरी रहती है! प्रकृति की कैसी माया! पौष माह में धूप के एक कतरे
के लिए तरस कर रह जाते थे.... वही धरती है, वही सूरज..... सुबह से लेकर शाम तक धूप कातता-बुनता रहता है
सूरज। दुनिया सुनहरी धूप में नहायी पड़ी है। दोपहर में कुछ तीखी हो आती है। धूप का
वैभव, धूप का
ऐश्वर्य, सुनहरा
साम्राज्य!..... पीछे काफी बीमार थी.... मेरे गमलों को पानी न मिला; फूलों के पौधे असमय मुरझा गए, कुम्हला कर सूख गये ! दोष किसका ? सूरज का? मेरा? किसका? सूरज का तो बिल्कुल नहीं, सबको अपना-अपना काम करना होता है। सूरज तो सच्चा
कर्मयोगी.....
पौ फटते ही
सूरज बुनकर
काम से लगा।
बुनता रहा
रोशनी के लिबास
सबके लिए
देर शाम को
दुखती कमर ले
घर को लौटा !!
डॉ. सुधा गुप्ता
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