शनिवार, 30 दिसंबर 2023

सृजन स्मरण

 


4. क्षणिकाएँ

1)

हौले से

तुमने तपता मेरा हाथ छुआ

और

पूछा–

अब कैसी हो ?

....झपकी आई थी ।

2)

फूल

मुझे बहलाने आये

मेरे पास बैठकर

हिचकी भर-भर

रोने लगे ।

कविता

यात्रा

 

मैंने कहा :

नाव खोल दो

सूरज पीठ पर आ चुका है

और

अभी काफ़ी दूर जाना है।’

 

कहीं

कोई नहीं था

सिर्फ़

हज़ारों नन्हीं लहरियाँ

आड़ी-तिरछी

हँसती-खिलखिलाती

एक दूसरे को धकियाती-गुदगुदाती

आपस में फुसफुसाती

पूछती रहीं सवाल –

किससे कहा ? किससे कहा ? ? किससे कहा ? ??

 

ऊपर

गहरी नीली हँसी बिखेरता

खुला-खुला आकाश था

और पीठ-पीछे

चकाचौंध फैलाता शरारती सूरज

जो किसी भी क्षण / आँख-मिचौनी के खेल में

मुझे

ग़च्चा देकर छिप जाने वाला था

दोनों ने मिलकर

मेरी हँसी उड़ानी शुरू की :

किससे कहा ? किससे कहा ? किससे कहा ?

 

हाँ, सच

कहीं, कोई भी तो नहीं था

न कोई मल्लाह / न कोई साथी मुसाफ़िर

दूर-दूर तक

कहीं कोई पाखी तक नहीं

सिर्फ़

जल था

एक नौका और

एक मैं / अकेली मुसाफ़िर

मैं / खुद मल्लाह थी / खुद पतवार

खुद मुझे ही तो नाव खोलनी थी !

झेंप मिटाने को

मैं

लहरियों, आकाश और सूरज

की हँसी में

शामिल हो गई : ‘हाँ, सच तो

किससे कहा ? किससे कहा ? किससे कहा ?

नाव तो खुद मुझे ही खोलनी है...

मैं तो बिल्कुल अकेली सफ़र पर निकली हूँ...’

 

लेकिन

अब

लहरों / आकाश और सूरज

का / मिजाज़ बदल गया था

 

लहरियाँ मेरे पास सरक आईं –

तुम अकेली कहाँ हो ?

हम जो तुम्हारे साथ हैं।’

आकाश ने / भरी-पूरी नीली मुस्कान

फैला दी –

मैं सदा से यहाँ ऐसे ही हूँ

और ऐसे ही रहूँगा

तुम अकेली हरगिज़ नहीं हो’

सूरज खिलखिलाया –

आखिर तुम किससे डरती हो ?

अँधेरे से ?

पगली,

हर किसी का सूरज उसकी अपनी

मुट्ठी में बन्द होता है

जिससे

वह जब चाहे / उजाला कर ले / जब भी तुम

मुझे खोजोगी / मैं ज़रूर मिलूँगा

छोड़ो इस डर को

और नाव खोल दो !’

 

मैंने नाव खोल दी.

 

सूरज अब तक मेरी पीठ के बहुत नीचे

जा चुका था

गुम-सुम सायों की चादर फैलने लगी थी

पर

अब

मुझे ज़रा भी डर नहीं लग रहा था

लहरियाँ मेरे साथ थीं

आकाश का छाता तना था

और

मैं

अपने सूरज को ढूँढने

अगली

यात्रा पर

निकल पड़ी थी




डॉ. सुधा गुप्ता 

 


 

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