शनिवार, 30 दिसंबर 2023

शब्दांजलि

 



शब्ददेह - यश: काय

न ममार न जीर्यति

प्रो. हसमुख परमार

            ‘जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है ।’ एक ऐसा तथ्य जिसे न कोई भूल सकता है और न ही इस सत्य को स्वप्न या कल्पना में भी कोई झुठला सकता । मनुष्य हो या मनुष्येतर जीव-सृष्टि, प्रत्येक का अंत निश्चित है । वैसे भी इस दृश्यमान जगत में शाश्वत तो कुछ भी नहीं है । न किंचित शाश्वतम्।खैर, एक सर्वविदित सत्य ‘संसार का शाश्वत सत्य है मृत्यु ।’ इस सत्य से संबद्ध चर्चा के क्रम में हम यह भी बखूबी जानते हैं कि जन्म-शरीर-आत्मा-जीवन-चेतना आदि को लेकर शरीर की नश्वरता-आत्मा की अमरता-जन्म-मरण का सिलसिला जैसे विषयों के संबंध में भारतीय दर्शन-परंपरा में, भारत की सुदीर्घ ज्ञान परंपरा में बहुत कुछ कहा गया  गया है । वैसे तो इस विषय में विश्वभर के दार्शनिकों ने विचार किया है, परंतु भारतीय दार्शनिकों के दर्शन में तो इसे कुछ विशेष व विस्तृत जगह मिली है । हमारे यहाँ शरीर की, देह की नश्वरता और आत्मा की शाश्वतता की मान्यता को हम कई जगह देख सकते हैं ।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्नाति नरोडपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।

-                           श्रीमद् भगवदगीता


 इसी तरह....

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च ।

तस्मादपरिहार्येडर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

-                           श्रीमद् भगवदगीता

दरअसल इस समय यहाँ जन्म-मृत्यु-आत्मा-जीवन जैसे विषयों से जुड़े गंभीर दर्शन का ब्यौरा देने का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है । यहाँ तो खासकर निकटभूत में दिवंगत हुई हिन्दी की एक बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा डॉ. सुधा गुप्ता को एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि-स्मरणांजलि इस शब्द-साधिका को शब्दांजलि के रूप में, अपने मन-मस्तिष्क के कुछ भाव-विचार व्यक्त करने हैं ।

कोई भी व्यक्ति अपने जीवनकाल में, और इससे भी कहीं ज्यादा इस संसार से उठ जाने के बाद भी समाज में, लोगों की यादों में, लोगों के दिलों में मौजूद रहता है अपने सत्कर्मों से । अपने समाज में, अपने कार्यक्षेत्र में, अपने परिवार में, अपनी जाति-बिरादरी में जो व्यक्ति अपनी बड़ी उपादेयता सिद्ध करता है, ऐसे व्यक्ति इस संसार से हमेशा के लिए विदा होने के बाद इतिहास के उजले पन्ने बनते ही हैं । ऐसे महान और ऐतिहासिक व्यक्तियों की सूची में साहित्यकारों का नामोल्लेख जितनी सहजता से होता है उतनी ही गंभीरता से उनकी देन को देखा जाता है । एक सर्जक के सार्थक शब्द और इसके एवज में मिला यश इसे कभी भी इस धरा से उठने नहीं देता । एक साहित्यकार की सृष्टि कितनी अजर अमर होती है, इस बात का बोध हमें वेद की इन पंक्तियों से ज्यादा कौन करा सकता है ‌ -

अन्ति सन्तं जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति ।

देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥

वाकई में महान कवियों की वाणी न मरती है, न पुरानी होती है, वह तो सदा सदा के लिए विद्यमान और प्रासंगिक ही बनी रहती है ।

संस्कृत आचार्य भामह के विचार से-

उपेयुषामपि दिवं सन्निबन्धायिनाम् ।

आस्त एवं निरातङ्क कान्तं काव्यमयं वपु: ।।

रणद्धि रोदसी चास्य यावत कीर्तिरनश्वरी ।

तावत् किलायमध्यास्ते सुकृति वैबुधं पदम ॥

अर्थात् उत्तम काव्यों की रचना करने वाले महाकवियों के दिवंगत हो जाने के बाद भी उनका सुन्दर काव्य-शरीरयावच्चन्द्रदिवाकरौअक्षुण्ण बना रहता है और जब तक उनकी अनश्वर कीर्ति इस भूमंडल तथा आकाश में व्याप्त रहती है  तब तक वे सौभाग्यशाली पुण्यात्मा देवपद का भोग करते हैं । (काव्य-प्रकाश,आचार्य विश्वेश्वर, पृ. 14-15)

अपने समय के किसी बड़े सर्जक को, बड़े सर्जक से आशय है साहित्य जगत में अच्छी तरह से स्थापित हुए, जिन्हें हम कई वर्षों से पढ़ते-गुनते आ रहे है, और ऐसे किसी सर्जक के दिवंगत होने की खबर जब मिलती है तो मन का दु:ख से भर जाना जितना स्वाभाविक है, उतना ही बल्कि उससे कहीं ज्यादा स्वाभाविक है इस शोकाकुल समय में हमारे चित्त में उस सर्जक के सर्जन तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जाने हुए उनके जीवन-व्यक्तित्व-व्यवहार की दुनिया का स्मरण ।

समकालीन हिंदी साहित्य में पिछले लगभग ५०-६० वर्षों से एक अति संवेदनशील कवयित्री के रूप में, एक सुधी समीक्षक-अनुसंधित्सु के रूप में, एक सशक्त आत्मवृत लेखिका के रूप में अपनी एक ठोस जमीन तैयार करने वाली डॉ.सुधा गुप्ता इहलोक की जमीन को अलविदा कहते १८ नवम्बर, २०२३ के दिन परलोक के पथ पर चल पडीं ।

मूलत: एक कवयित्री के रूप में सुधा जी का कवित्व वैसे तो उनकी लेखनी से निकली हर काव्यशैली में आला दर्जे का रहा है, फिर भी यह कहना अनुचित नहीं होगा कि जापानी काव्य विधाएँ हाइकु, चोका, ताँका, हाइगा आदि में इनके कवित्व की ऊँचाई कुछ ज्यादा ही रही है ।

बतौर साहित्यकार सुधा जी अपने कर्तव्यों का जीवनपर्यंत अच्छी तरह से निर्वहण करती रहीं । हिन्दी पाठकों का उन्हें अगाध प्रेम मिला । हिन्दी साहित्य जगत में उनकी रचनात्मक ऊर्जा-सर्जनात्मक प्रतिभा के न जाने कितने काव्यप्रेमी-काव्यसेवी मुरीद हो गए और होंगे । ताउम्र अपनी लेखनी से पाठकों तथा नवोदित कवियों-कवयित्रियों का मानो उपनिषद के इस मंत्र चरैवेति,चरैवेति: से मार्ग प्रशस्त करने वाली आज चलते-चलते वहाँ तक पहुँच गई जहाँ से कभी किसी की वापसी नहीं होती ।

कला के अंतिम और सर्वोच्च ध्येय सौंदर्य को बड़े कलात्मक ढंग से अपने रचना संसार में प्रस्तुत करने वाला एक सुधी सर्जक समाज का, जीवन का, दृश्यमान जगत का भी उतना ही बड़ा प्रवक्ता भी होता है । सुधा जी के काव्य का परिसर बड़ा व्यापक व वैविध्यपूर्ण है । उनके काव्य को पढ़ना मतलब एक कलात्मक सौंदर्य का एक विस्तृत व गहन अनुभव करना तो है ही, साथ ही उनके काव्य को पढ़ना मतलब जीवन को पढ़ने और सिर्फ मनुष्य के ही नहीं बल्कि सचराचर के जीवन को पढ़ने, उससे गुजरने के बराबर है ।

कहते हैं कि किसी रचनाकार का इस दुनिया से जाना महज एक आदमी का दुनिया से जाना भर नहीं है। और उसमें भी एक ऐसे सर्जक का जाना- जिसका सर्जन जीवन व समाज के बड़े प्रसार को समेटे हुए है, राग-विराग से जुड़ी बहुरंगी संवेदना से बुना हुआ है, जड़-चेतन के बाहरी-भीतरी सौंदर्य से सुशोभित है - वाकई में साहित्यजगत की एक स्तरीय रचनात्मक ऊर्जा की बहुत बड़ी क्षति  है । सचमुच इस तरह के सृजन और उसके सर्जक की रचनात्मक-सृजनात्मक प्रतिभा हमें इस अहसास से जोड़ती है कि वह रचनाकार हमारे लिए, हमारे साहित्यजगत के लिए कितना अहम और जरूरी था । सुधा जी का नाम भी समकालीन हिन्दी जगत के इसी तरह के बडे़ सर्जकों की सूची में शामिल है । आज उनका हमारे बीच से चला जाना एक तथ्य भर नहीं बल्कि एक खालीपन जिसे अब भरा जाना या उनका कोई विकल्प फिलहाल एक अनुत्तरित प्रश्न है । विशेषतः हिन्दी में जापानी काव्यविधाओं को पूरी तरह भारतीयता के संस्पर्श के साथ स्थापित करने में इस नाम और इनके काम की ऊँचाई की बराबरी तो...।

सृजन के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध व समर्पित सुधाजी अध्ययन, अध्यापन, घर-परिवार, समाज आदि क्षेत्रों में भी अपने निजी सुख-सुविधा की ज्यादा चिंता किए बगैर औरों के लिए ही अपनी उपयोगी भूमिका का आजीवन निर्वाह करती रहीं । उनके लेखन और जीवन-व्यवहार में न कोई अंतर । जहाँ रहीं, जिन परिस्थितियों में रहीं , अपने सृजन से , अपने संस्कार व सद्व्यवहार से, अपने सेवाभावी स्वभाव से,अपने ज्ञान से,अपनी संवेदना व संदेश से अपने से ज्यादा औरों के लिए  सदैव उपयोगी बनी रहीं । इस संदर्भ में इस समय वसीम बरेलवी का एक मशहूर शेर याद आता है-

जहाँ रहेगा वहीं  रोशनी लुटाएगा

किसी चिराग़ का अपना मकाँ नहीं होता ।

पहले बताया है कि लगभग 50-60 वर्षों के अपने लेखकीय जीवन में सुधाजी ने विपुल मात्रा में लिखा है । कविता, समीक्षा,अनेकों कवियों-कवयित्रियों-समीक्षकों-शोधार्थियों के संग्रहों-ग्रंथों की भूमिकाओं के अलावा अपनी जिंदगी को भी आत्मकथा के रूप में लिपिबद्ध किया है । उनका यह तमाम लेखन अति महत्वपूर्ण है, परंतु उनकी प्रमुख देन है जापानी काव्य-शैलियों में सृजन, जो उनकी ऊँची रचनाधर्मिता का बहुत बड़ा प्रमाण है ।

सुधा जी आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से ज्ञान का, संवेदना का जो प्रसार किया, अपने साहित्यिक व्यक्तित्व से अपने समकालीनों को व नवोदित साहित्यिक पीढ़ी को प्रेरित- प्रोत्साहित किया, एक दृष्टि देकर उनका मार्गदर्शन किया और आगे भी करती रहेगी । यही उनकी ओर से मिली हमें अनमोल भेंट है । और उनकी ओर से मिले इस ज्ञान-प्रकाश को कम न होने देना, साहित्य से जुड़े उनके सपनों को जिन्दा रखना ही उन्हें हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी । इन चंद शब्दों के साथ इनकी स्मृति को नमन !

 

प्रो. हसमुख परमार

प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

 

3 टिप्‍पणियां:

  1. रुचिकर जानकारी के लिए धन्यवाद सर
    Khalid

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  2. दुनिया में कई आम मनुष्य की मृत्यु प्रतिदिन होती रहती हैं किन्तु किसी साहित्यकार की मृत्यु हम स्वीकार नहीं कर पाते , कारण यहीं है कि जिनके साहित्य को हम पढ़ेते आये , साथ चले , जिनकी लेखनी में एक नई दिशा दिखलाई उन्हे भूलना इतना आसन नहीं । वह अमर रहते है लेखन में साहित्य में । सुधा जी को ईश्वर शांति प्रदान करे । भावपूर्ण लेख हैं ।🌻

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  3. भावपूर्ण आलेख सर

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