गुरुवार, 31 अगस्त 2023

आलेख

 


त्रिपुरा की जनजातीय भाषा कॉकबरक और आठवीं अनुसूची में शामिल होने का द्वंद्व

                         डॉ. मुनीन्द्र मिश्र

            भारत की  विशेषता उसकी सांस्कृतिक बहुलता है।  भारत की यह बहुलता विस्तार पाती है भारत की विभिन्न जनजातियों से। भारत का जनजातीय समाज यहाँ की  संस्कृति को  विशिष्टता प्रदान करता है। भारत में जनजातियों की संख्या अनगिनत है इसलिए इनकी विविधता भी बहुत अधिक है। इस विविधता पर समय के साथ दूसरी संस्कृतियों की छाया पड़ी और इनका वैशिष्ट्य प्रभावित हुआ। जब हम जनजातियों की बात करते हैं तो प्रश्न उठता है कि हम जनजातियाँ किसे कहेंगे? ’जनजाति शब्द परिभाषित करने में मानवविज्ञानी एकमत नहीं है।

            भारतीय नृविज्ञानी धीरेन्द्र नाथ मजुमदार के अनुसार – जनजाति परिवारों या परिवार समूहों के समुदाय का नाम है। इन परिवारों या परिवार समूहों का एक नाम होता है। ये एक ही भू भाग में निवास करते हैं। एक ही भाषा बोलते हैं। विवाह, उद्योग धंधों में एक ही बातों को मानते हैं। एक दूसरे के साथ व्यवहार के संबंध में भी उन्होंने अपने पुराने अनुभव के आधार पर कुछ निश्चित नियम बना लिये होते हैं।

            वैसे जनजातियों को परिभाषित करते हैं उसकी संस्कृति से तथापि अकेली संस्कृति ही जनजातियों का निर्धारण नहीं करती। सामान्य रूप से देखा गया है कि एक स्थान पर रहने वाली जनजातियों की संस्कृति में एकरूपता नजर आती है। प्राय: मुख्यधारा की सभ्यता से पृथक रूप से निवास करने वाला समुदाय जनजातियाँ कहलाती हैं। समुदाय में लोगों की शारीरिक एवं भाषाई विशेषताएँ, जनांकिकीय आकार, पारस्थितिकीय अवस्थाएँ, सांस्कृतिक विश्वास एवं परंपराएँ इन समुदायों में मुख्य धारा से अलग प्रदर्शित होती हैं।

 जब हम जनजातीय भाषा की बात करते हैं तो वह जनजातीय समाज द्वारा व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली भाषा की बात करते हैं। भाषा जीवन का अनिवार्य अंश है। भाषा शब्द भाष् धातु से बना है। जिसका अर्थ बोलना या कहना है। भाषा मानव मुख से निकली वह सार्थक ध्वनियाँ हैं जिसके माध्यम से विचारों का आदान प्रदान किया जा सकता है। भाषा प्रजातीय पहचान स्थापित करने की मुख्य कारक है। यह समूह चेतना एवं एकता का महत्वपूर्ण प्रतीक है। जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि भाषा को विभाजन का कारण नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे हमें एक साथ लाने वाला होना चाहिए। भारत की प्रत्येक भाषा संपर्क एवं विचारों के आदान प्रदान से दूसरी भाषा के विकास में सहायक होनी चाहिए।

भारत की बहुभाषिकता अपने आप में जहाँ गौरव की बात है वहीं वह बड़ी समस्या भी खड़ी करती है। बहुभाषिकता के मध्य अपनी स्थिति को निर्धारित करना अत्यंत कठिन है। जैसा कि ये भाषायें अपने सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक क्षमता में बहुत सक्षम नहीं है इस कारण इन्हें अन्य प्रभावी भाषाओं की स्थिति जैसा सम्मान नहीं प्राप्त होता। जनजातीय समाज प्राय: एकभाषी या द्विभाषी होता है जहाँ इन्हें क्षेत्रीय का कार्यात्मक ज्ञान, संप्रेषण कौशल भी प्राप्त नहीं होता जो कि क्षेत्र की संपर्क भाषा होती है। प्राय: इन समाजों पर बाहरी संभ्रांत कहलाने वाले लोगों का अधिकार रहा हैवही इनके राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दायरे को प्रभावित करते रहे हैं। कई स्थानों पर बहुसंख्यक होते हुए भी इन्हें स्थानीय दबावों के कारण अल्पसंख्यक होना पड़ता है। यहाँ तक कि उन्हें भाषाई एवं सांस्कृतिक पहचान की कठिनाई से जूझना पड़ता है। उनकी भाषाओं को जनसंचार माध्यमों में भी पर्याप्त स्थान नहीं मिलता सरकारी जनसंचार माध्यमों में भी कुछ मिनट के मनोरंजन कार्यक्रम तक ही ये भाषायें सीमित हो जाती हैं। जनजातीय भाषाओं को प्रभावशाली भाषाओं के आवरण में दबा दिया जाता है यहाँ तक कि इन भाषाओं के जानकारों को अपमानजनक उपमाओं से भी पुकारा जाता है।

  भारत अपनी 1652 मातृभाषाओं को राजकीय भाषाओं के रूप में मान्यता नहीं दे पाता। इससे कुछ भाषायें सशक्त होती हैं तो कुछ भाषायें उपेक्षित हो जाती हैं। राजकीय संरक्षण से जहाँ एक भाषा दैनिक कामकाज की भाषा के रूप में स्थापित हो जाती है वहीं दूसरी भाषा का दायरा सिमटता जाता है। इसी भाषा के मुद्दे को भारत की शुद्र राजनीतिक मानसिकता दोहनकर देश में विभाजनकारी भावनाओं को भड़काती है। हमारे देश का त्रिभाषा सूत्र अल्पसंख्यक भाषाओं को उपेक्षित करता है। प्रत्येक राज्य में अल्पसंख्यक भाषाओं के बोलने वाले कम से कम 30 से 40 प्रतिशत लोग हैं। यद्यपि भारत का संविधान अल्पसंख्यकों को (जिसमें भाषाई अल्पसंख्यक भी शामिल है) शैक्षणिक संस्थाओं को खोलने और प्रबंधन की अनुमति प्रदान करता है ताकि वे अपनी संस्कृति का संरक्षण कर सकें। परंतु यह प्रावधान न तो बहुत सारे जनजातीय समुदाय द्वारा प्रयोग किया जाता है न ही उन्हें ऐसे अवसर मिलते हैं। यह कहा जाता है कि सरकारों को भाषाई अल्पसंख्यकों की देशी शिक्षा हेतु स्थान एवं सुविधायें प्रदान करनी चाहिए ताकि उनके भाषाई मानवाधिकारों का संरक्षण हो सके। जनजातीय समुदाय में अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता के अभाव और अल्पसंख्यक भाषाओं का रोजगार और धनार्जन में लाभ की स्थितियाँ न होने के कारण अल्पसंख्यक भाषाओं को बढ़ावा देने के प्रति उस भाषा के लोग ही जागरुक नहीं रहते। बल्कि सबसे बड़ी समस्या रोजगार और भाषाई समृद्धि के दबाव में बड़ी भाषाओं की धारा में अल्पसंख्यक भाषाओं का विलीन होते जाना है। विकास, आधुनिकीकरण के नाम पर मेल मिलाप बढ़ाने एवं एकीकरण के भाव को लेकर जनजातीय समाज अपनी धारा को छोड़कर अन्य धारा में समाहित होता जा रहा है।

            शिक्षा व्यवस्था में भाषाई भेदभाव जनजातीय समाज को अपनी धारा बदलने पर लाचार कर रहा है। किसी भी राज्य में शिक्षा व्यवस्था में उस राज्य की सबसे प्रभावशाली भाषा द्वारा अन्य सभी भाषाओं के लिए स्थान अवरुद्ध कर दिया जाता है। प्रभावी भाषा की संस्कृति, साहित्य में सर्वोच्चता, शक्तिसंपन्नता और संसाधनयुक्तता का भाव होता है। जिसके प्रभाव में आकर जनजातीय समाज उस प्रभावशाली भाषा को अपनाने को मजबूर होकर उसी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाता है। ताकि उनके बच्चे मुख्यधारा से अलग न हों। और संपन्न भाषा में शिक्षित बालक जब अपनी भाषा की ओर देखता है तो उसमें लघुता की भावना घर करती है। 

हमारा संविधान जनजातीय भाषाओं के संरक्षण एवं विकास का आश्वासन प्रदान करता है। संविधान की धारा 29(1) के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है उसे बनाये रखने का अधिकार है। संविधान की धारा 350 ए भी मातृभाषा के अनुदेश पर जोर देता है। 1951 में यूनेस्को की भाषाई घोषणा में कहा गया कि देशी भाषा का प्रयोग शिक्षा में होना चाहिए तथा मातृभाषा को शिक्षा के अनुदेश की सर्वोत्तम भाषा बताया गया।  तथापि इन सारे आश्वासनों को कार्यरूप में परिणति तब तक  नजर नहीं आयेगी जब तक कि ये भाषायें शिक्षा, प्रशासन एवं जनसंचार में प्रयुक्त न होने लगें। जनजातीय भाषाओं के संवैधानिक अधिकारों को संरक्षित करने हेतु सभी जनजातीय भाषायों को राज्य द्वारा विकसित किया जाना चाहिए। उनकी लिपि, शब्दकोष और पाठ्यसामग्री का विकास किया जाना चाहिए। यह प्रयास होना चाहिए कि सभी जनजातीय समाज अपनी भाषा में मौखिक और लिखित रूप से पूर्णरूप से सक्षम हो सकें। साथ ही उन्हे अन्य भाषाओं को सीखने के लिए भी प्रोत्साहित करना चाहिए।

भारत में आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का नामकरण संविधान में दिया गया है। त्रिपुरा में जनजातीय समाज को उपजाति के नाम से पुकारा जाता है।  त्रिपुरा में जनजातीय समाज दो वर्गों में विभक्त है पहला वर्ग मूल त्रिपुरी जनजातियों का है दूसरा वर्ग प्रवासी जनजातियों का है।  मूल त्रिपुरी जनजातियों में देबबर्मा, रियांग, जमातिया, उचाई, नोआतिआ के अतिरिक्त हलाम मिजो इत्यादि जनजातियाँ हैं जबकि प्रवासी जनजातियों में भील, मुंडा, ओरांग, संथाल, लेप्चा, खासी, भूटिया इत्यादि जनजातियाँ हैं। भाषाई आधार पर त्रिपुरा के जनजातियों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। पहला बोडो समूह, दूसरा कुकी चिन समूह, तीसरा आराकान समूह। बोडो समूह के अंतर्गत त्रिपुरी जनजातियाँ जिनमें देबबर्मा, रियांग, जमातिया, उचाई, नोआतिआ इत्यादि है। कुकी चिन समूह में हलाम, मिजो जनजातियाँ आती हैं। जबकि अराकान समूह में मोग और चकमा जनजातियाँ शामिल हैं। जनजातीय समाज की अपनी अलग अलग सांस्कृतिक और परंपरागत, धार्मिक सीमायें, प्रजातीय विशिष्टता,  भाषाई विभिन्नतायें, आर्थिक कारक विशिष्टतायें हुआ करती हैं।  त्रिपुरा की जनजातियों को उनके ज्ञान एवं आस्थाओं, उनकी नैतिकताओं, रीतिगत नियमों तथा भाषाओं के भंडार तथा मौखिक साहित्य से अलग से पहचाना जा सकता है।

            त्रिपुरा में बहुभाषी प्रदेश है। जिनमें बांग्ला, कॉकबरक, चकमा, जमातिया, मोग, मणिपुरी, हिन्दी, ओरांग, संथाली, मिजो, हलाम प्रमुख है। सर्वाधिक लगभग 60 प्रतिशत बांग्ला बोलने वाले हैं। फिर त्रिपुरी भाषा के बोलने वाले हैं।  त्रिपुरा की बोलियों का वैविध्य उस बोली को बोलने वाले समाज के विशिष्टता को दर्शाता है साथ ही उस समाज के लोगों की भिन्न विशेषताओं, परंपराओं, विश्वासों, रीति-रिवाजों तथा आदतों के प्रकटन का माध्यम भी बनता है। त्रिपुरा की किसी  जनजातीय भाषाओं के पास अपनी लिपि नहीं है। सभी का मौखिक और बोलचाल रूप ही है। इसे देखते हुए त्रिपुरा के राजपरिवार ने अपने पड़ोस की भाषा बांग्ला की लिपि को अपनाया था। त्रिपुरा का इतिहास बताता है कि त्रिपुरा के राजदरबार में बांग्ला भाषा का प्रयोग राजभाषा और राजकाज के लिए होता था। त्रिपुरा के भारत में विलय तक यही राजकाज की भाषा के रूप में त्रिपुरा के जनजातीय समाज के मध्य भी पहुँचती रही जिसके कारण जनजातीय समाज को नयी भाषाई संस्कृति से परिचय मिला। बहुत से जनजातीय लोग कॉकबरक के स्थान पर बांग्ला बोलने में सहज और वैशिष्ट्य महसूस करने लगे।

बोली भाषा का ही अंश है। किसी भी भाषा की कई बोलियाँ हो सकती हैं। यह कहा जा सकता है कि बोलियों में अंतर अवश्यंभावी था जब संचार के साधन नहीं थे, उसी प्रकार एक समूह की बोलियों में समानतायें भी स्पष्ट रूप से नजर आती थीं। त्रिपुरी लोगों की बोली कोकबराक के नाम से जानी जाती है। जिसका शाब्दिक अर्थ लोगों की भाषा है। यह बोडो समूह की भाषा है जो मूल रूप से ब्रह्मपुत्र घाटी में बोली जाती है एक समय इस समूह की बोली का क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत था जो असम के बड़े हिस्से के साथ साथ उत्तर बंगाल, पूर्वी बंगाल के कुछ क्षेत्रों में भी बोली जाती थी। बोडो उपसमूह चीनी-तिब्बती भाषा समूह का हिस्सा है। ध्यान देने की बात यह है कि कॉकबरक भाषा की अपनी लिपि नहीं है। या तो यह बांग्ला लिपि में लिखी जाती है या फिर रोमन लिपि में। कहीं कहीं बोड़ो भाषा की तरह देवनागरी लिपि की भी चर्चा की जाती है। कोकबराक की भी कई सह बोलियाँ हैं जो विभिन्न जनजातियों यथा रियांग, जमातिया तथा रूपिनी इत्यादि के द्वारा बोली जाती हैं। कॉकबरक भारत में विलय के पहले त्रिपुरा के बहुसंख्यक समाज की भाषा थी। देश के विभाजन के उपरांत पूर्वी बंगाल की हिन्दू जनसंख्या बड़ी संख्या में त्रिपुरा में शरणार्थी बनकर आयी और यहीं बस गई जिससे त्रिपुरा की जनांकिकीय स्थिति में परिवर्तन हुआ। वर्तमान में त्रिपुरा की प्रमुख 19 जनजातियों में से 8 जनजातियों की भाषा कॉकबरक है। जिनमें त्रिपुरी, रियांग, नोआतिया, जमातिया, रूपिणी, कलाई, उचाई, मुरासिंह कॉकबरक भाषा बोलते हैं। इनके अलावा अन्य हलाम समुदाय के लोग भी कॉकबरक भाषा का प्रयोग जनजातीय संपर्क हेतु करते हैं। हलाम समुदाय इसे राजानी कॉक की संज्ञा देता है अर्थात राजा की भाषा। कॉकबरक बोड़ो दिमासा, गारो इत्यादि के साथ एक उपसमूह में रखी जाती है।

            कॉकबरक दो शब्दों कॉक और बरक से मिलकर बना है। कोक का अर्थ शब्द या भाषा है तो बरक का अर्थ व्यक्ति है। इस अर्थ में कॉकबरक का अर्थ व्यक्ति की भाषा है। वैसे बरक को दूसरे अर्थ में अपनी से लिया जाता है। यथा रीबरक का अर्थ अपना कपड़ा, चाबरक का अर्थ अपना खाना, ताक बरक का अर्थ अपना कपड़ा पहनने का ढ़ंग। इस अर्थ में कॉकबरक का अर्थ अपनी भाषा के रूप में आता है। पूर्व में इसे सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ. सुकुमार सेन, ग्रियर्सन एवं डब्ल्यूडब्ल्यू हंटर जैसे भाषाविदों द्वारा  तिप्पराह अथवा म्रुंग या मुरुंग के रूप में नामित किया गया है। यह कॉकबरक नाम पहली बार 1900 ई. में ठाकुर राधामोहन देबबर्मा द्वारा प्रकाशित पुस्तक कॉकबरकमा में आया है।


            वर्तमान में काकबरक भाषा साहित्यिक भाषा का दर्जा पा चुकी है। साहित्यिक भाषा के साथ साथ भारत की प्रत्येक भाषा की कामना होती है कि वह संविधान की आठवीं अनुसूची की भाषा बने। कॉकबरक भी इसी प्रयास में आगे बढ़ रही है। इस कामना के साथ कॉकबरक ने अनेक उपलब्धियाँ हासिल की हैं साथ अभी भी कई उपलब्धियों के लिए संघर्षरत है। आज इस भाषा में सभी प्रकार की साहित्यिक परंपरायें देखने को मिल रही हैं। पहली कॉकबरक पत्रिका का प्रकाशन छठवें दशक के मध्य में हुआ था। कॉकबरक कहानियों, उपन्यासों, कविताओं, नाटकों की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कॉकबरक भाषा में कई फिल्मों का भी निर्माण हो चुका है। कोकबराक भाषा को लिपिबद्ध करने का श्रेय़ उसके प्रयोक्ता समाज को नहीं है वरन श्री दौलत अहमद नामक विद्वान ने पहली बार बांग्ला लिपि का प्रयोग कर कॉकबरक को लिपिबद्ध किया। यद्यपि त्रिपुरा के राजपरिवार की पारिवारिक भाषा कॉकबरक थी तथापि राजा द्वारा कॉकबरक भाषा के विकास पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया बल्कि बांग्ला राजदरबार की भाषा रही साथ ही राजाओं द्वारा बांग्ला साहित्य संस्कृति के उन्नयन हेतु स्तुत्य कार्य किया गया है। जनजातीय भाषा और संस्कृति त्रिपुरा की पहाडियों में फलती फूलती रही है। पीढ़ी दर पीढ़ी श्रुत और मौखिक साहित्य स्थानांतरित होता रहा लिपि की कमी और शिक्षा के अभाव के कारण यह मौखिक साहित्य लिपिबद्ध बहुत विलंब से होना आरंभ हुआ।

            कॉकबरक त्रिपुरा के बरॉक समुदाय की मातृभाषा है। 18वीं सदी के अंत में कॉकबरक को भाषाई समृद्धि पाने का अवसर मिलना आरंभ हुआ। वर्ष 1897 में दौलत अहमद जो कि एक अधिवक्ता थे उन्होंने बांग्ला लिपि में कॉकबरक पुस्तक की रचना की जिसका नाम कॉकबोरोमा था। जो कॉकबरक भाषा का  भाषाई ज्ञान प्रदान करने के लिए प्रथम प्रयास था। उसके बाद इस जिम्मेदारी को तात्कालीन राज्य के मंत्री ठाकुर राधा मोहन देबबर्मा ने उठाया राजा द्वारा उन्हे जनजातीय समाज में शिक्षा के विस्तार की जिम्मेदारी दी गई। उन्होंने कॉकबरक भाषा के मूल को जानने का प्रयास किया। उन्होंने ही यह सुनिश्चित किया कि त्रिपुरी समाज के अतिरिक्त रियांग, जमातिया, कोलाई, उचाई, नोआतिया, रूपिणी और मुरासिंह कुछ भिन्नताओं के साथ समान भाषा बोलते हैं तथा एक दूसरे की भाषा समझ सकते हैं। उन्होंने ही 8 जनजातीय समुदाय की भाषा को कॉकबरक नाम प्रदान किया। उन्होंने कॉकबरक भाषा व्याकरण हेतु कोक बरकमा नामक पुस्तक की बांग्ला लिपि में रचना की। साथ ही ठाकुर राधामोहन ने बांग्ला लिपि में कई कॉकबरक पुस्तकों की रचना कर कॉकबरक को साहित्यिक दर्जा दिलाने में अग्रणी भूमिका अदा की साथ ही कॉकबरक भाषी विद्वानों में साहित्य सृजन की संभावना पैदा की। ठाकुर राधामोहन के बाद अलीन्द्रलाल त्रिपुरा ने कॉकबरक में कई पुस्तकों की रचना की। अलीन्द्र लाल त्रिपुरा ने कॉकबरक हेतु बर्मी भाषा जैसी पृथक लिपि हेतु भी प्रयत्न किया जिसे स्थानीय लोगों द्वारा नही स्वीकार किया गया।

            कॉकबरक में सबसे प्रमुख कार्य बंगाल से त्रिपुरा में बसे श्री कुमुद कुन्डू चौधुरी द्वारा आरंभ हुआ। कुमुद कुंडू चौधरी भाषाविज्ञानी थे। उनके  प्रयत्नों ने साकार रूप लेना आरंभ किया और 19 जनवरी 1979 को कॉकबरक ने त्रिपुरा की राजभाषा का दर्जा प्राप्त किया। इसी प्रकार त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्तशासी जिला परिषद (टीटीएएडीसी)  की स्थापना के बाद 20 अप्रैल 1999 टीटीएएडीसी क्षेत्र में कॉकबरक को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया। तथापि लिपि का मुद्दा बना रहा जहाँ कॉकबरक की लिपि बांग्ला चल रही थी वहीं एक वर्ग ने रोमन लिपि में कॉकबरक लिखने की माँग की। लिपियों के भ्रम के मध्य कॉकबरक भाषा विकसित होती रही कॉकबरक लेखक चन्द्रकांत मुरासिंह को साहित्य अकादमी से सम्मानित कर भारत सरकार ने कॉकबरक के महत्व को समझा। श्री श्यामलाल देबबर्मा, दशरथ देब, नरेशचन्द्र देबबर्मा, रबीन्द्र किशोर देबबर्मा ने कॉकबरक साहित्य में योगदान दे इसे समृद्ध किया। इसके साथ साथ कुछ निताई आचार्य, शांतिमय चक्रवर्ती, मनोरंजन मजुमदार जैसे  बांग्ला साहित्यकारों ने भी कॉकबरक भाषा में अपना योगदान दिया। कॉकबरक के पास उपलब्ध समृद्ध लोक साहित्य के अतिरिक्त आधुनिक साहित्य का भी पर्याप्त मात्रा में सृजन हुआ है। चन्ताई दुर्लभेन्द्र द्वारा सोलहवीं सदी में रचित राजमाला कॉकबरक भाषा का सबसे प्राचीन साहित्य है। कॉकबरक राजमाला वर्तमान में भी उपलब्ध नहीं है उसके विभिन्न भाषाओं में किये गये रूपान्तर ही आज लोगों के सम्मुख हैं। 1703 में दुर्गामणि त्रिपुरा ने महाराजा महेन्द्र माणिक्य का जीवन वृतांत कॉकबरक भाषा में लिखा था। उसके बाद सी.डब्ल्यू बोल्टन की रिपोर्ट सेपता चलता है कि तात्कालीन युवराज राधाकिशोर ने त्रिपुरी-बांग्ला शब्दकोश निर्मित करने का प्रयास किया था। तथापि यह प्रयास पांडुलिपियों के रूप आज भी अज्ञात है। पर 19वीं सदी के अंत में काजी दौलत अहमद और ठाकुर राधामोहन देववर्मा द्वारा गंभीर प्रयास हुआ। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में कॉकबरक भाषा पूरी तरह साहित्यिक शून्यता में खोई रही। आजादी के पूर्व कॉकबरक की केवल कुछ ही उल्लेखनीय रचनाएँ हैं परंतु स्वातंत्र्योत्तर काल में कॉकबरक ने बहुत विकास किया, लगभग हर विधा में कॉकबरक रचनाओं का सृजन हुआ। यहाँ तक कि कॉकबरक साहित्य को राष्ट्रीय स्वीकृति मिली ओर साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। अनेक समाचार पत्र, पत्रिकायें कॉकबरक की गति को आगे ले जाने में सहयोगी हुईँ। 1986 में कॉकबरक साहित्य संस्कृति संसदरू की स्थापना की गई। दशरथ देबबर्मा, सुधन्व देबबर्मा, महेन्द्र देबबर्मा, श्यामलाल देबबर्मा इसके प्रमुख सदस्य थे। इस संस्था ने कॉकबरक विकास में विशिष्ट योगदान दिया। नरेशचन्द्र देबबर्मा की पुस्तक कॉकबरक भाषा साहित्येर क्रम विकास के अनुसार 2009 तक चौहत्तर कविता संग्रह, तेइस कहानी संग्रह, अट्ठारह गीत एवं लोकगीत संग्रह, नौ उपन्यास तथा पचहत्तर से अधिक निबंध, अनुवाद, व्याकरण की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं।

            कॉकबरक की सबसे बड़ी समस्या भाषा के लिए लिपि का चयन है। कॉकबरक का प्रारंभिक विकास स्थानीय राजदरबार की भाषा बांग्ला की लिपि के साथ हुआ है। पूरा प्रारंभिक साहित्य बांग्ला लिपि के साथ ही विकसित हुआ। पर अपनी अलग पहचान की आकांक्षा से जूझ रहा जनजातीय समाज का एक वर्ग भाषाई रूप से स्वयं को बांग्ला से अलग खड़ा करने को प्रयत्नशील है। उसे लगता है कि बांग्ला लिपि के कारण उसकी अलग पहचान नहीं हो पायेगी। अलीन्द्रलाल त्रिपुरा ने कॉकबरक में कई पुस्तकों की रचना की। अलीन्द्र लाल त्रिपुरा ने कॉकबरक हेतु बर्मी भाषा जैसी पृथक लिपि हेतु भी प्रयत्न किया जिसे स्थानीय लोगों द्वारा नहीं स्वीकार किया गया। शिलांग में चर्च के विद्यालयों में शिक्षित जनजातीय लोगों के मध्य कॉकबरक के लिए रोमन लिपि की आवश्यकता दर्शाई जा रही है। तथापि राजनीतिक वर्ग द्वारा कॉकबरक हेतु बांग्ला लिपि को ही प्रोत्साहित किया गया है। विशेष रूप से जनजातीय नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री दशरथ देबबर्मा ने इस संबंध में बहुत अधिक प्रयत्न किया है। स्थानीय कॉकबरक बोलने वालों का एक वर्ग यह बात रख रहा है कि बांग्ला लिपि कॉकबरक के सभी शब्दों का समुचित उच्चारण करने में समर्थ नहीं है। इसके साथ ही एक अन्य वर्ग तैयार हुआ है जो देवनागरी लिपि कॉकबरक हेतु समुचित समझता है। देवनागरी कोवोमबॉय कॉकबरक नाम से एक संगठन इस हेतु संघर्ष कर रहा है। उनका मानना है कि यदि कॉकबरक देवनागरी लिपि अपनाती है तो उसे बोड़ो भाषा की तरह आठवीं अनुसूची में शामिल होने का मौका मिल सकता है। साथ ही साथ वो मानते हैं कि देवनागरी लिपि दुनिया में उच्चारण की दृष्टि से सर्वाधिक सक्षम लिपि है इससे कॉकबरक भाषा को अच्छी तरह बोला जा सकता है। उनका मानना है कि देवनागरी लिपि को अपनाकर अरुणाचल प्रदेश के जनजातीय समाज की तरह  भारतीय मुख्यधारा से सहजता से जुड़ा जा सकता है। समान परिवार की  बोड़ो भाषा द्वारा देवनागरी लिपि को अपनाने के बाद बोड़ो साहित्य सभा द्वारा देवनागरी में बोड़ो भाषा लिखने का गंभीर प्रयत्न हो रहा है। यद्यपि यह प्रश्न बहुत कठिन है। तथापि प्रयास तीनों लिपियों के लिए चल रहे हैं।

            कॉकबरक भाषा के उन्नयन हेतु कॉकबरक साहित्य सभा और कॉकबरक उन्नयन परिषद की स्थापना की गई। कॉकबरक को प्रदेश की दूसरी भाषा की मान्यता मिलने के बाद त्रिपुरा कोंगतून नामक साप्ताहिक समाचार पत्र आरंभ किया गया जिसमें दो पेज साहित्यिक गतिविधियों के लिए रखा गया जिससे कॉकबरक साहित्य के विकास को अवसर मिलने लगा। पिछले दो दशकों में कॉकबरक साहित्य संसद, कॉकबरक ती हुकुमू मिशन, हाचुक्नी खोरांग, दे कॉकबरक पब्लिशर्स जैसे संगठन उभरे हैं। जो कुछ कॉकबरक पुस्तकों को प्रकाशित करने में सफल हुए हैं। इस भाषा में कविता, कहानी, उपन्यास इत्यादि सामने आ रहे हैं। कॉकबरक विद्वानों द्वारा जहाँ देश के प्रमुख साहित्य को कॉकबरक में अनूदित किया जा रहा है वहीं कॉकबरक साहित्य को भी अन्य भाषाओं में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। कॉकबरक भाषा ने न केवल साहित्य जगत में अपनी पहचान स्थापित की है वरन कॉकबरक भाषा ने अब सिनेमाई जगत में भी उभरने में सफलता पाई है। 1981 से कॉकबरक को अनुदेश की भाषा के रूप में भी मान्यता मिली। प्रदेश के  शिक्षा विभाग ने कॉकबरक सलाहकार परिषद एवं कॉकबरक पाठ्य पुस्तक समिति की स्थापना की।तथा कॉकबरक भाषा की पाठ्य-पुस्तकें मुद्रित कराई।  यद्यपि आज भी कॉकबरक भाषा को लंबा रास्ता तय करना है ताकि वह भारत की भाषाई पहचान की प्रमुख सूची संविधान की आठवीं अनुसूची में अपना स्थान सुनिश्चित कर सके। आठवीं अनुसूची में स्थान पाना कॉकबरक के लिए कठिन तपस्या है जिसे सभी कॉकबरक भाषियों को मिलजुल कर पूरा करना होगा। कॉकबरक साहित्य को उच्चतम स्तर तक पहुँचाना होगा। मौलिकता को सजीव रखते हुए अन्य भाषाओं में कॉकबरक साहित्य की पहुँच बनानी होगी। त्रिपुरा का जनजातीय शोध संस्थान इस दिशा में गंभीरता से कार्य कर रहा है। परंतु संस्थान द्वारा कॉकबरक साहित्य को केवल अंग्रेजी और बांग्ला में अनूदित किया जा रहा है जिससे कॉकबरक साहित्य की पहुँच सीमित दायरे में है। त्रिपुरा विश्वविद्यालय में कॉकबरक विभाग खुलने के बाद नई संभावना जगी है। निश्चित रूप से यह कॉकबरक भाषा के लिए संजीवनी का कार्य कर रहा है। प्रयास है कि विभाग द्वारा मौलिक शोध और साहित्य को प्रोत्साहित किया जा सके। त्रिपुरा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा कॉकबरक साहित्य के हिन्दी रूपान्तरण हेतु कुछ कार्य किया गया है। विभाग का प्रयास है कि जनशिक्षा आन्दोलन के प्रथम अध्यक्ष सुधन्य देबबर्मा के उपन्यास हाचुक खुरियो(पर्वतों की गोद में) के हिन्दी रूपान्तर को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाय। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा कॉकबरक हिन्दी शब्दकोष तैयार किया गया है। इसके अतिरिक्त कॉकबरक लोकसाहित्य को हिन्दी रूपांतरण के साथ प्रकाशित किया गया है। डॉ. मिलनरानी जमातिया, श्रीमती खुमतिया देबबर्मा, श्री चन्द्रकांत मुरासिंह, श्रीमती लिली देबबर्मा, अतुल देबबर्मन इत्यादि विद्वत मंडली कॉकबरक के हिन्दी के मध्यसेतु का कार्य कर रहे हैं। तथापि कॉकबरक साहित्य को अभी भी देश में पहचान बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है जबकि डॉ. अतुल देबबर्मन द्वारा कॉकबरक भाषा में अत्यंत भावोत्तेजक उपन्यास की रचना की गई। साथ ही गीता रहस्य पर डॉ. अतुल देबबर्मा द्वारा कॉकबरक भाषा में लिखा जा रहा साहित्य अपने आप में विशिष्ट है। इस पर प्रदेश से बाहर चर्चा की जरूरत है।

            कॉकबरक भाषा राष्ट्रीय फलक में अपनी पहचान बनाने को अग्रसर है। अपने परिवार की बोड़ो भाषा की तरह इसका संघर्ष भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होकर भाषा के विस्तृत फलक में चमकने का है। कॉकबरक भाषी समाज इसके लिए गंभीर रूप से प्रयास कर  रहा है। निश्चित है साहित्यिक गतिविधियाँ इसे अत्यंत तीव्रता से प्रगति पथ पर ले जा रही हैं परंतु अभी भी बहुत कुछ करना है। त्रिपुरा के जनजातीय क्षेत्र में प्राथमिक शिक्षा के अनुदेश की भाषा के रूप में स्थापित होने में कॉकबरक को सफलता मिल रही है तथापि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बाद इसमें और तेजी आयेगी। जिससे कॉकबरक भाषी युवा तैयार होगें जो नवीन भाषाई सृजन में अपना योगदान देंगे। राष्ट्रीय फलक में पहचान के लिए जरूरी है कि कॉकबरक साहित्य राष्ट्र की अन्य भाषाओं में उपलब्ध हो ताकि अधिक लोग इसे जान सकें और इसे संविधान में शामिल भाषाओं की सूची में शामिल करने का समर्थन कर सकें। अभी तो भाषा और लिपि के द्वंद्व से उबरना है। लिपि का प्रश्न गंभीर है इसमें एकरूपता आनी जरूरी है। विशेष रूप से भारतीय लिपि से जुड़कर शायद कॉकबरक को भी बोड़ो की तरह आगे बढ़ने का अवसर मिले। पिछले दशक में त्रिपुरा राष्ट्रीय परिदृश्य में तेजी से चमका है और साथ ही चमक रही है यहाँ की संस्कृति। इसी चमक के साथ भाषा को जोड़ना होगा।

संदर्भ

1. देबबर्मा नरेशचन्द्र – कॉकबरक भाषा साहित्येर क्रम विकास, नवचंदना प्रकाशन, अगरतला 2010।

2. चौधरी कुमुद कुंडू- कॉकबरक भाषा उ साहितय, अक्षर प्रकाशन, अगरतला 1919

3.देबबर्मा नरेशचन्द्र, प्रसंग कॉकबरकेर मान्य भाषा, नवचन्दना प्रकाशन, अगरतला, 2010

4.चटर्जी डॉ.सुनीति कुमार, बांग्ला भाषा तत्वेर भूमिका।

5.चक्रवर्ती शांतिमय- कॉकबकरेर उत्स संधाने

6.गोस्वामी डॉ एस.एन. – स्टडीज इन साइनो तिब्बतन लैंगुएजेज

7.दीपक डॉ.प्रदीप कुमार- लैंगुएज प्रॉबलम एमंग द ट्राइब्स ऑफ त्रिपुरा, तुई, अंक 28 अप्रैल-सितंबर 2014 पृष्ठ 1-8

8.जमातिया डॉ. मिलन रानी एवं पांडेय प्रो. चन्द्रकला(संपा.) कॉकबरक की प्रतिनिधि कवितायें, मानव प्रकाशन कोलकाता, 2014

9.मजुमदार, धीरेन्द्र नाथ, एवं मदान टी.एन. – ऐन इंट्रोडक्शन टु सोसल एंथ्रोपोलॉजी, एशिया पब्लिशिंग हाउस मुंबई 



डॉ. मुनीन्द्र मिश्र

सहायक निदेशक(राजभाषा)

त्रिपुरा विश्वविद्यालय

सूर्यमणिनगर, अगरतला,

त्रिपुरा -799022

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