लेखक और पाठक का क्षितिज : 'परख और पहचान'
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
'परख और पहचान' (2022; दिल्ली: यश पब्लिकेशन्स) तेलुगुभाषी हिंदी लेखिका डॉ.
गुर्रमकोंडा नीरजा (ज. 1975) की और एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो विद्यार्थियों,
शोधार्थियों, अध्यापकों, प्राध्यापकों के साथ-साथ साहित्यप्रेमियों के लिए भी समान
रूप से उपयोगी है। इससे पहले उनकी कई समीक्षा पुस्तकें आ चुकी हैं,
जिनमें 'तेलुगु साहित्य: एक अवलोकन' (2012), 'अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख'
(2015), 'तेलुगु साहित्य: एक
अंतर्यात्रा' (2016) और
समकालीन साहित्य विमर्श' (2021) विशेष उल्लेखनीय हैं।
विवेच्य पुस्तक 'परख और पहचान' 6 खंडों में विभाजित है। हर खंड में अलग-अलग साहित्यकारों और
प्रवृत्तियों को लेकर गहन विश्लेषण किया गया है। प्रारंभ उन्होंने 'रसलीन' से किया है और अंतिम शीर्षक है 'मीडिया का बदलता चित्र'। अनुक्रम को देखने से ही समझ में आता है कि लेखिका ने
मध्यकाल से बात शुरू करके मीडिया युग तक की जाँच-पड़ताल कर डाली है।
खंड 1 और खंड 2 के अंतर्गत क्रमशः उन्होंने 'कवि और कविता' के साथ ही साथ 'आख्यान की बुनावट' पर भी विस्तार से अपनी लेखनी चलाई है। यह कटु सत्य है कि,
'जब कभी मध्यकाल में हिंदी साहित्य
को समृद्ध करने वाले मुस्लिम साहित्यकारों की बात होती है तो चर्चा प्रायः जायसी
से शुरू होकर रहीम तक आकर सिमट जाती है।' (परख और पहचान: गुर्रमकोंडा नीरजा: पृष्ठ 13)। लेखिका ने रसलीन
की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए लिखा है,'रसलीन संस्कृत काव्यशास्त्र की परंपरा में निष्णात है।
उन्होंने आवश्यकतानुसार भरत के नाट्यशास्त्र, केशव की कविप्रिया तथा संस्कृत-हिंदी ग्रंथों के मतों का
उल्लेख मात्र ही नहीं किया है, अपितु उन पर अपने चिंतनशील विचार भी व्यक्त किए। उनके काव्य
की परिधि विस्तृत है। उनके काव्य में भारतीयता का समावेश है। इसमें उन्होंने कथाओं,
मान्यताओं, अनुभूतियों आदि को उकेरा है। यही कारण है कि रसलीन जहाँ नबी
की स्तुति करते हैं, वहीं भागीरथी गंगा की स्तुति एक हिंदू भक्त की भाँति भारतीय पद्धति के अनुसार
करते हुए स्मरण करते हैं कि गंगा विष्णु के पैरों से निकलकर शिव के शीश में जा
बसी।'
(पृ.15)। इसी क्रम में मुक्तिबोध के बारे में बात करना बहुत आवश्यक
है। मुक्तिबोध की रचनाओं को बहुत कठिन मान लिया जाता है। अगर मैं गलत नहीं तो
प्रायः छात्र और अध्यापक मुक्तिबोध के विषय में जानने समझने का कोई खास प्रयास
नहीं करते। लेखिका ने मुक्तिबोध के व्यक्तिगत जीवन पर प्रकाश डालते हुए लिखा है,
'मुक्तिबोध के जीवन को समझना हो तो
किनारे बैठे रहने से काम नहीं चल सकता।' (पृ. 27)। लेखिका मुक्तिबोध के जीवन की परिस्थितियों पर प्रकाश डालते
हुए लिखती हैं, 'ज्ञानात्मक
संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की बातें करने वाले गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर,1917 को ग्वालियर के श्योपुर नामक कस्बे में हुआ था। उनका
बाल्यकाल रूसी क्रांति का काल था। यह वह दौर था जब मनुष्यता विश्व युद्ध की
चिंगारियों में झुलस रही थी'। (पृ. 26)। मुक्तिबोध ही नहीं, और भी कई साहित्यकारों के बारे में ऐसी बहुत सारी
महत्वपूर्ण जानकारी इस पुस्तक से मिलती है।
प्राचीन साहित्यकारों के बारे में ऐसी जानकारियाँ मिलती
रहती है,
शोध कार्य भी होता है लेकिन समकाल में ऐसे बहुत से साहित्यकार
हैं जो साहित्य के सहारे समाज से मुठभेड़ कर रहे हैं। जिनको हम देखते,
सुनते, पढ़ते और पसंद भी करते हैं लेकिन उन पर यथोचित शोधकार्य अब
तक नहीं हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक की खास बात यह भी है कि रामावतार त्यागी,
अहिल्या मिश्र, ऋषभ देव शर्मा, ईश्वर करुण, देवी नागरानी से संबंधित आलेख हमें अपने समकालीन
साहित्यकारों को जानने-समझने का अवसर प्रदान करते हैं। पहचान को परख की सीमा तक ले
जाने में सक्षम हैं ये आलेख।
आख्यान की बुनावट लोक जीवन, लोक विश्वास, लोक शिष्टाचार, मुहावरों-लोकोक्तियों, व्यंग्य आदि सभी पर निर्भर करती है। केवल आख्यान का प्लॉट
निकालना ही काफ़ी नहीं होता, इसके साथ ही साथ 'प्लॉट का मोर्चा' निकालना और उसे 'मूल्य चेतना' तक पहुँचाना भी आवश्यक होता है। लेखिका ने अपने कर्म के साथ
पूर्णतया न्याय किया है।
खंड 3 में 'अर्थ की खोज' करते हुए लेखिका ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल,
आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी और डॉ. परमानंद श्रीवास्तव की
आलोचना दृष्टि से पाठकों को अवगत करवाया है। उन्होंने प्रस्तुत खंड में आचार्य
रामस्वरूप चतुर्वेदी की पुस्तक 'आलोचना का अर्थ: अर्थ की आलोचना'
को विशेष संदर्भ के रूप में लिया है,
जिसका प्रकाशन सन् 2001 में हुआ था। यह पुस्तक वस्तुतः आचार्य शुक्ल पर केंद्रित
है। इसे ही कहते हैं एक पंथ दो काज! एक तरफ डॉ. नीरजा लिखती हैं,'आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी हिंदी के आलोचकों में उस स्थान
के अधिकारी हैं जिन्होंने आलोचना को मनुष्य के जातीय जीवन और उसकी संस्कृति से
जोड़कर देखा-परखा है।' (पृ.119)
तो, दूसरी तरफ आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी ने आचार्य शुक्ल के लिए लिखा है,
'आचार्य शुक्ल न केवल हिंदी के
पहले बड़े आलोचक ऐतिहासिक क्रम में हैं, अपितु चिंतन-क्रम में भी वे पहले बड़े स्वाधीनचेता आलोचक
हैं। अर्थ की विशिष्ट विकसनशील प्रक्रिया को केंद्र में रखनेवाली आधुनिक हिंदी
आलोचना को वे कई रूपों में परिभाषित करते हैं, संदर्भ चाहे काव्य-भाषा का हो या कि साहित्य और
सांस्कृतिक-संवेदनात्मक विकास के सामंजस्य का। भारतीय काव्यशास्त्र की सूक्ष्म से
क्रमशः महीन होती वर्गीकरण-प्रणाली को संतुलित करने के लिए वे आधुनिक पश्चिमी
साहित्य-चिंतन को दूसरी ओर रखते हैं और इस प्रक्रिया में जो आलोचना उनके यहाँ
विकसित होती है, वह
शास्त्र के बजाय रचना की ओर अधिक उन्मुख है।' (पृ.121)
दृष्टव्य यह है कि प्राचीन और आधुनिक आलोचकों या फिर यह
कहूँ कि साहित्यकारों की विचारधाराओं की त्रिवेणी प्रस्तुत पुस्तक में बनी हुई है।
परंतु यह सवाल साधारण जनमानस के साथ ही साथ विशिष्ट साहित्यकारों के मन में भी
उठता है कि 'आलोचना
की आवश्यकता साहित्य में क्यों है?' लेखिका ने आलोचक डॉ. परमानंद श्रीवास्तव के इस स्पष्ट और दो
टूक उत्तर कि,'आलोचना
कोई साझा कार्यक्रम नहीं है। वह मेरे लिए रचनात्मक कार्य है और मेरा स्वधर्म है,
'आपद्धर्म'
नहीं।' (पृ. 126) को अपनी पुस्तक में स्थान देकर पुस्तक और अपनी
सूचनाग्राह्यता और सूचना विश्लेषण दोनों को वरीयता श्रेणी में लाकर रख दिया है।
प्रस्तुत किताब को केवल एक आलोचना कृति भर कह देना काफी
नहीं होगा। खंड 4 'स्मरण और संदर्शन' एक ऐसा खंड है जो हमें साहित्यकारों के अलावा दार्शनिकों और समाजसेवियों के भी जीवनवृत्त और उनकी विचारधाराओं को जानने
का सुअवसर प्रदान करता है। विवाह पर राजेंद्र यादव के विचार को किताब का अंग बनाकर
लेखिका ने अपने निर्भीक और निरपेक्ष व्यक्तित्व का परिचय दिया है। राजेंद्र यादव
ने कहा था कि,'शादी
एक बंधन हो, वहाँ
तक तो ठीक है। लेकिन उसके साथ एक आचरण की जो आचार संहिता है,
उसमें मेरा दम घुटता है, मैं वहाँ एडजस्ट नहीं कर पाता।'
(पृ. 150)। प्रो. मैनेजर पांडेय ने राजेंद्र यादव के संबंध में लिखा
था कि,
'राजेंद्र यादव विचार और व्यवहार
में लोकतांत्रिक आदमी थे। मतभेदों से न डरते थे और न बुरा मानते थे। उन्होंने
स्त्री दृष्टि और लेखन को बढ़ावा दिया। स्त्री दृष्टि पर उनकी राय विवादास्पद
लेकिन विचारणीय रही। 'हंस'
के जरिए उन्होंने दलित चिंतन और दलित साहित्य को बढ़ावा
दिया। दलित साहित्य को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में राजेंद्र यादव ने
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 'हंस'
का संपादन उन्होंने उस समय शुरू किया,
जब उनकी रचनात्मकता का सबसे अनुर्वर समय था। इसलिए रचनाकार
राजेंद्र यादव को वह पीढ़ी नहीं जान पाई, जो 'हंस'
पढ़कर बड़ी नहीं हुई। 'हंस' का भविष्य अब अंधकारमय हो गया है।' (पृ.150-151)। इन दोनों उक्तियों के द्वारा और राजेंद्र यादव के माध्यम
से लेखिका ने महत्वपूर्ण विषय पर प्रकाश डाला है कि साहित्यकार का भी एक साधारण
जीवन होता है और एक सामाजिक दायित्व भी। जो साहित्यकार जितनी तल्लीनता के साथ इन
दोनों के बीच में सामंजस्य बैठा पाता है वह अपनी एक अलग पहचान बना पाता है। लेकिन
ज़रूरी नहीं कि यह सामंजस्य बैठ ही पाए। इसीलिए लेखक हमारे आदर्श नहीं होते,
उनके पात्र अवश्य हो सकते हैं।
डॉ. नीरजा ने 'हिंदी की आत्मा के अन्वेषक' डॉ. धर्मवीर के संघर्ष पर भी संक्षेप में लिखा है जो
पर्याप्त शोधपूर्ण है। डॉ. जयकौशल के डॉ. धर्मवीर को ज्ञापित श्रद्धांजलि वाक्य 'दुखद सच है कि इधर लोगों ने उनसे संवाद छोड़ दिया था। उनके
लिखे पर सायास चुप्पी ओढ़ ली थी, यहाँ तक कि उनके लिखे का नोटिस लेना बंद कर दिया था। एक
चिंतक को अघोषित ढंग से 'पागल'
घोषित कर दिया था' (पृ. 152-153) हिंदी जगत की विडंबना पर सोचने को बाध्य करता है। सायास
उपेक्षा का भान प्रतिभाओं को कुंठित तो करता ही है, चाहे वह कोई नवांकुर हो अथवा स्थापित साहित्यकार!
इस खंड में लेखिका ने हैदराबाद के पत्रकार-कवि शशि नारायण 'स्वाधीन' जी को उन्हीं के द्वारा रचित काव्य पंक्तियों के माध्यम से
कुछ इस प्रकार श्रद्धांजलि दी है,
'यह आदमी में आदमी को/ लौटाने का
समय है/ नजदीक की महफूज़ गली ढूँढ़ने का नहीं/ देश को बचाने का है यह समय।'
(पृ.157)
पुस्तक के पाँचवें खंड 'भारतीय साहित्य का क्षितिज' में इस विषय का गहन विश्लेषण किया गया है कि तमिल,
बांग्ला आदि भाषाओं के साथ हिंदी का कैसा संबंध है। शायद कम
लोगों को पता हो कि, 'हिंदी में तमिल साहित्य का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करनेवाले पहले विद्वान
थे पूर्णम सोमसुंदरम।' (पृ. 177)। लेखिका ने यह भी याद दिलाया है कि रवींद्रनाथ ठाकुर यह
मानते थे कि, 'बच्चों
को यदि हम मनुष्य बनाना चाहते हैं तो बचपन से ही बनाना होगा। केवल रटने की शक्ति
के ऊपर ही सारा भार नहीं देना चाहिए। चिंतन और कल्पना करने की शक्ति पैदा हो,
ऐसे मौके भी उन्हें देने चाहिए।'
(पृ. 180)
यह कथन इस बात का सबूत है कि 'भारतीय सांस्कृतिक चेतना की पुंजीभूत ज्योति'
को भारतीय साहित्यकारों ने बहुत परिश्रम के साथ जलाया है और
गुर्रमकोंडा नीरजा जैसे लेखक इस ज्योति के संरक्षक हैं।
छठे खंड 'संचार की शक्ति' में 'चाँद' पत्रिका के 'फाँसी' अंक का विवेचन इस पुस्तक को विशेष रूप से आकर्षक बनाता है।
इसके अलावा पिछले दशकों में मीडिया का चरित्र किस प्रकार बदला है, इस पर निर्भीकता के साथ प्रकाश डालते हुए लेखिका ने लिखा है,
'आज़ादी से पहले के पत्रकार और
संपादक समाचार पत्रों को स्थापित करने तथा सुचारु रूप से चलाने हेतु प्रोनोट लिखकर
पैसा लाते थे और समाचार पत्र चलाते थे। देश हित ही उन लोगों का प्रमुख उद्देश्य
था। तब के पत्रकारों को जेल यात्रा भी करनी पड़ी। लेकिन आज स्थितियाँ काफी बदल
चुकी हैं। एक वह समय था जब पत्रकार सत्य से जनता को अवगत कराने के लक्ष्य की
प्राप्ति के लिए समाचार पत्र चलाने हेतु अपना तन-मन-धन गिरवी रखते थे लेकिन आज हम
यहाँ तक भी देख रहे हैं कि पत्रकार किसी न
किसी राजनेता या राजनैतिक दल के चंगुल में फँसे हुए हैं। कहने का आशय है कि आज
मीडिया और राजनीति का गठबंधन है।' (पृ. 202)
निष्कर्षतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि डॉ. गुर्रमकोंडा
नीरजा ने विवेच्य पुस्तक के माध्यम से परख और पहचान की दूरी को 203 पृष्ठों में समेट कर साहित्यिक महामिलन के चरम तक पहुँचा
दिया है।
…….
परख और पहचान (आलोचना कृति)/ गुर्रमकोंडा नीरजा/ 2022/
यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली/ पृष्ठ 204/ मूल्य ₹ 595/= सजिल्द।
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
हिंदी प्राध्यापिका,
भवंस विवेकानंद कॉलेज,
सैनिकपुरी,
हैदराबाद
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