प्रेमचंद की स्त्री दृष्टि
डॉ. सुषमा देवी
शोध सारांश :
मानव समाज आदिम युग से ही कथाप्रेमी रहा है। कथा, कहानी, किस्सागोई के माध्यम से बाल्यावस्था से ही उसके जीवन की
नींव रखी जाती है। सामाजिक
सम्बन्धों के सम्यक विकास में कहानियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हिंदी
कथा जगत में प्रेमचंद का पदार्पण अति महत्वपूर्ण है। क्योंकि
कहानियों को कल्पना लोक से उतार कर सजीव समाज के बीच से लेकर उन्होंने उसी समाज की
परिष्कृति का प्रयास करते हुए जन- जन को कथानायक
तथा कथानायिका बना दिया। एक
स्वस्थ समाज की नींव में स्त्री-पुरुष की साझेदारी की समझदारी कितनी जरूरी होती है
?
इसे प्रेमचंद के स्त्री दृष्टि विवेचन के माध्यम से समझा जा
सकता है।
विशेष शब्द : आदर्श, यथार्थ,
मानवीयता,
संस्कृति,
विकृति,
स्त्री अधिकार,
पुरुष वर्चस्व,
स्त्री – विमर्श आदि।
प्रस्तावना :
हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद का अवतरण एक महत्वपूर्ण
संयोग है। उन्होंने समाज के वंचितों के साथ खड़े होकर उन्हें मुख्यधारा
से जोड़ने का कार्य किया। पुरुषवर्चस्व
युक्त समाज में स्त्री के प्रति ऐसा व्यापक फलक तैयार किया, जहाँ से स्त्रियाँ एक मानवी के रूप में दिखाई देती हैं। मानव
सभ्यता और संस्कृति के विकास में स्त्री-पुरुष की साझा भूमिका होती है। हमारे
भारतवर्ष में वैदिक काल में समाज और जीवन की रचना में दोनों का महत्वपूर्ण योगदान
रहा। प्रायः विकास आरोहात्मक दृष्टि से अर्थित होता है, किन्तु स्त्रियों के सन्दर्भ में यह अवरोहात्मक सिध्द हुआ है। समाज,
संस्कृति के विकास की सीमा रेखा लिंग,
जाति में आवृत्तित हो गया। पुरुष
वर्चस्वता के दीमक ने भारत के स्वस्थ सामाजिक परिवेश को ग्रहण लगा दिया।
यद्यपि स्त्री के सन्दर्भ में अथवा उनके मानवीय अधिकारों की
बात रखने का यह अर्थ नहीं कि पुरुष का विरोध किया जा रहा है, अपितु पुरुषवादी सोच की विकृति की शल्यचिकित्सा की जा रही है। सबसे
अनोखी बात तो यह है कि हमारे देश में यह कार्य पुरुष समाज के माध्यम से ही अधिक हो
रहा है।
शोध विस्तार :
आज साहित्य में चारों ओर स्त्री विमर्श का डंका पीटा जा रहा
है, किन्तु ऐसा करने वालों में कुछ विद्वान्-विदुषियाँ स्वयं इस बात से अनभिज्ञ
हैं कि वे जिस स्त्रीवाद के लिए इतना शोर मचा रहे हैं, वह उन्हें उतना ही अधिक गर्त में ले जा रही है। क्योंकि
स्त्रीवाद को देह की स्वतंत्रता से संबद्ध करते ही स्त्रियों की और अधिक दुर्गति
होने लगी है, रही –सही कसर वैश्वीकरण की आँधी ने पूरी कर दी। ‘पश्चिम
के नारी आन्दोलन सम्बन्धी दृष्टिकोण के प्रति प्रेमचंद बहुत सहमत न भी हो, परन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों के अधिकारों के लिए उन्होंने बहुत
लिखा, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। ’ ( प्रेमचन्द रचनावली,
भाग – 8, पृष्ठ : 448) प्रेमचंद की स्त्री दृष्टि कुछ सन्दर्भों में पुरुषवादी
समाज के संस्कारों को ग्रहण करते हुए भी दृष्टिगत होती है। स्वयं
विधवा स्त्री शिवरानी देवी से विवाह करके भी वे स्त्री के नौकरी करने के पक्ष में
सशंकित दिखाई देते हैं। वे
पत्नी द्वारा स्त्री के नौकरी के समर्थन पर कहते हैं – ‘स्त्रियाँ नौकरियाँ करने
लगी है, मगर अहं अच्छा नहीं है,
मैं इसको अच्छा
नहीं समझता। अब
इसका नतीजा क्या हो रहा है अब पुरुष और स्त्री दोनों नौकरियाँ करने लगे हैं, तब इसके मानी क्या है। रूपये
ज्यादा आ जायेंगे। उसी
का तो यह फल है कि पुरुषों की बेकारी बढ़ रही है। ’ ( प्रेमचंद घर में,
शिवरानी देवी,
पृष्ठ : 192) प्रेमचंद के ऐसे विचार उन्हें स्त्री के आर्थिक स्वातंत्र्य
का विरोधी नहीं सिध्द करते। उन्होंने अपनी स्त्री दृष्टि को विधवा विवाह, बालिका शिक्षा तथा स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता के विषय को रचनाओं में बड़ी
दृढ़तापूर्वक प्रस्तुत किया है। ‘प्रतिज्ञा’
उपन्यास की स्त्री पात्र सुमित्रा के माध्यम से वे कहते हैं – ‘बेचारी औरत कमा
नहीं सकती, इसलिए उसकी दुर्गति है। मैं
कहती हूँ अगर मर्द अपने परिवार भर को खिला सकता है,
तो क्या स्त्री अपनी कमाई से अपना पेट नहीं भर सकती ?’
( प्रतिज्ञा –प्रेमचन्द, पृष्ठ, 110)
प्रेमचंद एक प्रगतिगामी,
दूरद्रष्टा साहित्यकार थे। अपने
युग के परम्परावादी,
रूढ़िवादी समाज में स्त्री को जितनी स्वतंत्रता मिल सके, वे उसे ही अपने कथासाहित्य में चित्रित कर रहे थे। ‘प्रेमचंद
साहित्य को जीवन की आलोचना या व्याख्या मानते हैं। उसके
द्वारा मानवीय चरित्र पर,
जीवन पर वे प्रकाश डालना चाहते हैं। साहित्य
को आप केवल दिल बहलाव नहीं मानते,
बल्कि उसे लोकमंगल का सशक्त सामाजिक साधन समझते हैं। ’
( प्रेमचंद : एक सिंहावलोकन :
संपादक प्रो. ह.श्री.साने,
पृष्ठ -13 )
वे जिस स्त्री
स्वतंत्रता के पक्षधर थे,
वैसी स्वतंत्रता इक्कीसवीं सदी की स्त्रियों को भी न
प्राप्त हुई। उनके स्त्री-अधिकार
सम्बन्धी विचारों को उनकी धर्मपत्नी शिवरानी देवी लिखती हैं – ‘जब तक सब
स्त्रियाँ शिक्षित नहीं होंगी और सब क़ानून-अधिकार उनको बराबर न मिल जायेंगे, तब तक महज बराबर काम करने से भी काम नहीं चलेगा। ’
( प्रेमचंद : घर में : श्रीपत राय, शिवरानी देवी,
पृष्ठ – 260)
प्रेमचन्द से पूर्व स्त्रियाँ साहित्य में प्रायः विलास - वस्तु अथवा पुरुषों
की सम्पत्ति के रूप में चित्रित होती थीं। यद्यपि
उन्होंने नारीवादी मत का परचम लहराने के लिए साहित्य नहीं रचा, तथापि समाज के अभिन्न अंग के रूप में नारी की दुर्दशा को देखकर उनके अद्भुत
गुणों को समाज के विकास हेतु आवश्यक मानते हुए उनका चित्रण आवश्यक माना। ‘निर्मला’,
‘सेवासदन’ स्त्री विषयक उपन्यासों
के अतिरिक्त अधिकांश उपन्यासों में वे स्वाभविक रूप से चित्रित हुई हैं। वे
अपने युगगत गाँधीवादी लहर में आकंठ डूबे हुए थे। ‘प्रेमचंद
गाँधीवादी जीवन-मूल्यों पर विश्वास रखते थे और गाँधी नारी की अदम्य शक्ति के
सम्पूर्ण विकास के पक्षधर थे। जीवन
के हर क्षेत्र में उन्नति के पथ पर आगे बढ़ने के लिए नारी का आह्वान किया और नारी
ने भी उस आह्वान को प्रचंड प्रमाण में दाद दी। ’ ( प्रेमचंद : एक सिंहावलोकन : संपादक प्रो. ह.श्री.साने, पृष्ठ -151)
उनके विचार में स्त्रियाँ शिक्षा के बल पर सशक्त बन सकती
हैं। उन्होंने फरवरी 1931 में अपने लेख में स्त्री अधिकारों पर लिखा है – ‘ पुरुषों
ने नारी जाति के स्वत्वों का अपहरण करना शुरू किया,
लेकिन राष्ट्रीयता और सुबुध्दि की जो लहर इस समय आई हुई है, वह इन तमाम भेड़ों को मिटा देगी और एक बार फिर हमारी माताएँ उसी ऊँचे पद पर
आरूढ़ होगी, जो उनका हक है। ’ (गगनांचल –सितंबर –अक्टूबर,2014,
पृष्ठ – 17 ) वे स्त्री की स्थिति के प्रति इतने अधिक चिंतित रहते थे कि
वे मानने लगे थे –जिन स्त्रियों का अपना व्यक्तित्व,
आदर्श,
उत्साह नहीं उन्हें विवाह कर लेना चाहिए जबकि जो स्त्रियाँ
विचारशील, कीर्ति, प्रतिष्ठा की आकांक्षी हैं उन्हें अविवाहित ही रहना चाहिए। यहाँ
तक कि वे समाज में वेश्यावृत्ति के लिए पुरुष वर्ग को ही दोषी ठहराते हैं।
शिक्षा के सन्दर्भ में प्रो. मेहता के माध्यम से वे कहते
हैं –‘ नहीं कहता देवियों को विद्या की जरूरत नहीं है, है पुरुषों से अधिक। ’ (गोदान –प्रेमचंद,
पृष्ठ:165) विवेकानंद ने भी आदर्श स्त्रीत्व का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता
को आवश्यक मानते हुए स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए ही चरित्र की शुध्दता की
अपरिहार्यता पर बल दिया है। प्रेमचंद
स्त्री- पुरुष को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं। उन्होंने
स्त्री जीवन को मैले –कुचैले वस्त्रों में,
टूटी झोपड़ी तथा आधे पेट भोजन के साथ भी गौरवपूर्ण रूप में
चित्रित किया है। क्योंकि उनका स्पष्ट मानना था कि नारी धन नहीं प्रेम और
सम्मान की भूखी होती है। ‘ठाकुर का कुआँ’ की गंगी,
‘पूस की रात’ की मुन्नी, ‘सुगामी’ की लक्ष्मी,
‘गोदान’ की धनिया, ‘अनुभव’ की ज्ञानबाबू की पत्नी,
‘पासवाली’ की गुलिया, ‘चमत्कार’ की चंपा आदि अपने जीवन में प्रेम धन ( पति के ) पाकर आनंदमय जीवन
जीती हैं। वहीँ धनवान स्त्री के रूप में ‘शिकार’ की लीला, ‘सेवासदन’ की सुमन,
‘गोदान’ की गोविंदी, ‘कर्मभूमि’ की सुखदा,
नैना आदि पति स्नेह के आभाव में नैराश्यान्धकार में डूबी
रहती हैं। उनकी रचनाओं में अधिकांशतः मध्यवर्गीय स्त्रियों की खोखली
मानसिकता को चित्रित किया गया है। स्त्री
शिक्षा को वे स्त्रीमुक्ति की चाबी मानते हैं ‘ जब तक स्त्रियों की शिक्षा का काफी
प्रचार न होगा, हमारा कभी उध्दार न होगा। ’ ( गबन : प्रेमचन्द,
पृष्ठ : 103) ‘गोदान’ की मालती तथा सरोज मध्यवर्गीय स्त्रियों को जीवन की
उन्नति का पथ दिखाते हुए चित्रित हुई है। मालती
तो अविवाहित रहकर मानव कल्याण में अपनी शक्ति का उपयोग करना चाहती है। इसी
उपन्यास की अनपढ़ स्त्री धनिया सूझ-बूझ और विवेक में अपने पति होरी से भी आगे दिखाई
देती है। कई बार तो धनिया के रूप में प्रेमचंद अपनी प्रगतिगामी
विचारों को व्यक्त करते दिखाई देते हैं,
सामाजिक कुरीतियों का वह डटकर विरोध करती है। ’सेवासदन’
की नायिका सुमन भोगलालसा के कारण वैश्यावृत्ति तक की दुरावस्था में पहुँच जाती है, लेकिन अपनी शक्तियों से परिचित होने के बाद वह सेवाकार्य से जुड़ जाती है। प्रेमचंद
ने स्त्री के वात्सल्य,
सेवा,प्रेम
तथा त्याग को उसका आभूषण माना है। प्रेमचंद
ने ‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास की सुमित्रा को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बताया है। जो
आर्थिक पराधीनता को स्त्री की दुरावस्था का बहुत बड़ा कारण मानती है। आर्थिक
अभाव के कारण ही ‘निर्मला’ उपन्यास की नायिका का अनमेल विवाह होता है, जिसके कारण निर्मला के साथ उसके पति तोताराम का परिवार भी त्रासदी सहने के लिए
विवश होते हैं। ‘कर्मभूमि’ उपन्यास की नायिका सुखदा अपनी रक्षा स्वयं करने
की बात करते हुए अपने दम पर अकेले जीवन जीने का साहस रखती है। प्रेमचंद
के काल में ऐसी सोच ही अपने समय की क्रन्तिकारी विचारधारा को सिध्द करती है। डॉ
सुरेश सिन्हा कहते हैं –‘उस नए युग में नारी के ऊपर से उस भौंडे, कृत्रिम और अविश्वासपूर्ण आवरण को उतार कर जिसे प्रेमचंद पूर्व काल के
उपन्यासकारों ने अपनी तथाकथित आदर्शवादिता एवं सुधारवादिता के जोश में आकर पहना
दिया था और जिसके फलस्वरूप नारी का स्वरूप बोझिल ही नहीं हो गया था,
आडंबरपूर्ण और अविवेकपूर्ण –सा प्रतीत होने लगा था। नारी
की आत्मा को उसकी तमाम अच्छाइयों और बुराइयों के साथ प्रेमचंद ने पहली बार
यथार्थवादी ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। ’ ( उपन्यासकार प्रेमचंद,
लेख –प्रेमचंद और उनकी नायिकाएं, डॉ सुरेश सिन्हा,
पृष्ठ -145 )|
शोध समाहार :
अंत में यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने न केवल अपनी
रचनाओं में स्त्रियों की दुरावस्था को निरूपित किया बल्कि स्त्रियों को अपनी शक्ति
पहचान कर अपनी कमियों को दूर करके अपने जीवन के विकास पथ पर चलते हुए भी दिखाया है।
प्रेमचंद
के नारी पात्रों में सामाजिक ताने –बाने के सभी स्त्री रूप गुणवती तथा दुर्गुणी
चित्रित होते हुए भी देशप्रेमी,
समाजसुधारक,
आश्रिता,
सेविका,
परिचारिका आदि चित्रित हुई हैं। उनकी
रचनाओं की स्त्रियाँ केवल रोती-धोती नहीं हैं,
बल्कि अपने साहस,
धैर्य तथा शक्ति को पहचान कर उसका सदुपयोग भी करती हैं। इक्कीसवीं
सदी की स्त्रियाँ भी पूरी तरह से प्रेमचंद की रचनाओं में चित्रित स्त्रियों की तरह
सशक्त नहीं हो पाई हैं। स्त्री
स्वतंत्रता के साथ भारतीय संस्कृति में गौरवान्वित स्त्री की छबि को प्रेमचंद ने
चित्रित किया है। घर के बाहर तो दूर स्त्री जिस परिवार के लिए अपना जीवन
समर्पित कर देती है,
उसे वहाँ भी कोई सम्मानजनक स्थान नहीं मिलता है, यह बात प्रेमचंद को बहुत कचोटती है। स्त्री-मनोविज्ञान
का कोना-कोना प्रेमचंद ने अपनी कहानियों तथा 11 उपन्यासों के माध्यम से चित्रित करते हुए एक सशक्त समाज के
नींव की बराबर की भागीदार के रूप में चित्रित किया है ।
डॉ. सुषमा देवी
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग, भवंस कॉलेज
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