शिक्षा और समाज के यथार्थ से रूबरू कराती दिलीप मेहरा की
कहानियाँ
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
शिक्षा और समाज का संबंध
अन्योन्याश्रित है। व्यक्ति के लिए जितना आवश्यक समाज है,
उतना ही समाज के लिए शिक्षा। कह सकते हैं कि शिक्षा और समाज
दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इन सबके अलावा भी वर्तमान में तमाम सवालात हमारे
सामने खड़े हैं। वर्तमान समाज कितना शिक्षित है (किस वर्ग के लोग शिक्षित है)
शिक्षा के अलावा समाज का अपना एक अलग रूप है वह कितने लोगों में विभक्त है.. लिंग,
जाति , धर्म वग़ैरहा.. वग़ैरहा स्तरों पर लोगों को इस समाज में
किन-किन स्तरों से गुजरना पड़ता है। इन सबकी यथार्थ झाँकी पेश करती हैं दिलीप मेहरा
की कहानियाँ।
हाल ही में गुजरात साहित्य
अकादमी से पुरस्कृत प्रो० दिलीप मेहरा का कहानी संग्रह ‘मकान पुराण’ ऐसा
कहानी संग्रह है जो वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और समाज से हमें रूबरू कराता है। मकान
पुराण की एक एक कहानी शैक्षिक जगत और समाज को परत-दर-परत उधेड़ती हुई नजर आती है।
इस संग्रह की कहानियों पर बात करने से पहले हम इसके रचनाकार से थोड़ा रूबरू हो लें।
कहानी संग्रह के रचनाकार प्रो० दिलीप मेहरा है जो एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में
आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हैं। कहानियाँ पढ़कर आपको हैरानी होगी कि वर्तमान
चाटूकारिता के दौर में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का प्रोफेसर कितनी बेबाकी से
बिना डरे,
कहानियों के माध्यम से
शैक्षिक जगत की पोल खोलता हुआ किस प्रकार से समाज को स्वच्छ आईने के सामने
खड़ा कर देता है। प्रोफेसर मेहरा की कहानियाँ मात्र कहानियाँ नही हैं.. उनका स्वयं
का जिया हुआ यथार्थ है.. स्वानुभूति है और रचनाकार के स्वयं का संघर्ष है,
जो इनकी कहानियों में दृष्टव्य है।
कहानी कला की दृष्टि से देखा जाए
तो मकान पुराण की कहानियाँ लघु कहानियों की श्रेणी में आतीं हैं,
पर यह कहानियाँ हूबहू बिहारी के दोहों की तरह हैं 'देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर'
अपनी इन लघु कहानियों के माध्यम से रचनाकार ने बड़ी ही
बेबाक़ी से शिक्षा व्यवस्था हो या समाज दोनों को उकेरने का सफल प्रयास किया है।
‘मैं पीएच.-डी. हो गया’ प्रस्तुत संग्रह में संग्रहित प्रथम कहानी है। इस कहानी
में वर्तमान उच्च शिक्षा व्यवस्था की परत उधेड़ते हुए पीएच.-डी. प्रवेश से लेकर
आचार्य बनने तक के सफ़र का यथार्थता से अंकन करते हैं। कहानी के आरंभ में ही करारा
व्यंग्य है जो सौ फीसदी वास्तविक है 'हर फैकेल्टी में अध्यापक इस तरह पीएच.-डी. हो रहे हैं जैसे
जमीन के बिल से निकलती धड़ा-धड़ चीटियाँ। जिस प्रकार हिंदी के ख्यातिलब्ध निबंधकार
परसाई जी लिखते हैं 'डॉक्टरेट योग्यता से नहीं गुरुकृपा से मिलती है। इसी का प्रतिरूप हमें इस
कहानी में दृष्टव्य है। 'आचार्य पद योग्यता और डिग्री से नहीं चाटूकारिता और ट्रस्टी के रिश्तेदार होने
से मिलता है ।' इस
कहानी में रचनाकार पीएच.डी. जो शिक्षा की सबसे बड़ी उपाधि है,
को प्राप्त करने और उसे प्राप्त करने के बाद युवा मन की
मनोदशा को तटस्थता से उकेरते हैं।
शिक्षा का सच,
मारफाड़ ट्रस्टी और विदाई समारोह जैसी कहानियाँ शिक्षा
व्यवस्था पर तंज कसती हुई नजर आती हैं।
‘शिक्षा का सच में’ रचनाकार वर्तमान युवा
बेरोजगारी और शैक्षिक जगत में परिवारवाद
के सच को उजागर करते हैं। मारफाड़ ट्रस्टी में शैक्षिक जगत में प्रबंधक की तानाशाही
को बखूबी उकेरते हुए विदाई समारोह में शैक्षिक जगत की चमचागीरी का यथार्थता से
अंकन करते हैं।
मकान पुराण,
दापा और सौदा सामाजिक विसंगतियों पर आधारित कहानियाँ हैं।
इन कहानियों के माध्यम से रचनाकार समाज के भिन्न भिन्न पहलुओं पर दृष्टि डालते हुए
बड़ी ही मार्मिकता के साथ हमें समाज और उसकी मनोदशा से रूबरू कराता है। मकान पुराण
आज के दौर का सच बयाँ करने वाली कहानी है। इस कहानी में दलित वर्ग की व्यथा को बड़ी
ही मार्मिकता से सहेजते हुए रचनाकार देश की जातीय व्यवस्था और उसकी खामियों को
समाज सापेक्ष प्रस्तुत करते हैं कि आज भी देश जब 21वीं सदी में है तब भी दलित वर्ग के किसी भी व्यक्ति को शहर
में भी मकान मिल पाना कितना कठिन है । कह सकते हैं कि मकान पुराण आज के दौर का सच
बयाँ करने वाली कहानी है। आप किसी शहर में जाएँ सरकारी पेशेवर हों या प्राइवेट,
किंतु अगर आप दलित हैं तो आपके लिए मकान मिल पाना असंभव ही
है। इस कहानी में वर्तमान जातीयवादी सोच को रचनाकार ने बड़ी ही बखूबी से दृष्टित
किया है।
अंततः हम कह सकते हैं कि
रचनाकार का यह कहानी संग्रह (मकान पुराण) सफल कहानी संग्रह है जो हमें शैक्षिक और
सामाजिक जगत में व्याप्त बुराइयाँ जो आज भी ज्यों का त्यों बनी हुई हैं से रूबरू
कराता हुआ वर्गीय चेतना उत्पन्न करता है।
कुलदीप कुमार
‘आशकिरण’
शोधार्थी- हिन्दी
विभाग
सरदार पटेल
विश्वविद्यालय
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