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चौदहवाँ रत्न
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
बात लोकतंत्र
युग की है।
सत्ता पक्ष और
विपक्ष में प्रायः युद्ध चलता रहता था। एक बार दोनों को सूझा कि अपनी शक्ति का इस प्रकार
अपव्यय न करके समुद्र मंथन का महत् कार्य किया जाए। बस फिर क्या था, दोनों पक्ष जुट
गए - रत्नों का मोह जो था। एक के बाद एक रत्न निकलते चले गए। दोनों पक्षों ने एक एक
कर बाँट लिए। तेरहवें नंबर पर कालकूट विष निकला। उसे कौन बाँटता? शंकर जी से प्रार्थना
की गई तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया क्योंकि पहली बार पिए विष का प्रभाव अब तक न गया
था उनके कंठ से।
अंत में लोकतंत्र
की दुहाई दी गई और तेहरवा रत्न दोनों पक्षों की पूर्ण सहमति से जनता को समर्पित कर
दिया गया।
समुद्र मंथन
चलता रहा। अचानक भीषण गर्जना के साथ चौदहवाँ रत्न प्रकट होने लगा। दोनों पक्ष हर्ष
से चीख उठे - “अमृत”! लेकिन सभी ने चौंक कर देखा अमृत नहीं निकाला था ‘कुर्सी’ प्रकट
हुई थी।
फिर क्या था?
दोनों पक्षों ने मंथन छोड़ दिया और कुर्सी को जा पकड़ा। जिसके हाथ में जो भी हिस्सा
आया वह जकड़े रहा।
दोनों पक्ष कुर्सी
के दांवेदार थे। खींचतान चलती रही।
तभी काँधे पर
झोला लटकाए नेता-वेशधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। दोनों पक्षों ने अपनी दलीलें पेश
कीं। भगवान विष्णु ने झोले से कुछ काग़ज़ निकाले और एक पक्ष के हवाले कर दिये। ये
'अख़बार' थे। फिर झोले में हाथ डाला और एक मोटी सी पुस्तक निकाल कर दूसरे पक्ष के हवाले
कर दी। उसके ऊपर सुनहरे अक्षरों में लिखा था- 'संविधान'।
सुना जाता है,
उसी दिन से दोनों पक्ष अख़बार और संविधान पढ़ पढ़ कर लड़ रहे हैं। नेता-वेशधारी भगवान
विष्णु शेष शय्या छोड़कर आनंद से कुर्सी पर सोए हुए हैं।
2
मोहलत
एक ट्रक दुर्घटना
हो गई। बिल्लू को भारी चोटें आई। अस्पताल मे दाखिल किया गया। कोई कोशिश काम न आई और
वह चल बसा।
बिल्लू के परिवार
वाले डाक्टर के पाँवों पर गिड़गिड़ा रहे थे, “डाक्टर साहब, हम गरीब आदमी हैं। मेहनत मजदूरी करके दो जून रोटी जुटा पाते हैं। हमें
एक हफ्ते की मोहलत दे दीजिए, कहीं से किसी से कर्जा लेकर आपकी फीस चुका देंगे। रहम
कीजिए, डाक्टर साहब।”
डॉक्टर का चेहरा भावशून्य रहा, होठों ने स्पष्ट किया, “मोहलत ही मोहलत है. मैंने लाश रोक ली है, पेमेंट कर जाना और लाश ले जाना।”
समसामयिक, बहुत सुंदर। सुदर्शन रत्नाकर
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