बुधवार, 28 जून 2023

लघुकथा

 

एक माँ के मन का लॉकर

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

     घर धीरे-धीरे सामान से भरने लगा था। दिल के मैल भी धुल चूके थे। करीबन 6 साल बाद अमित को खुलकर हँसता हुआ देखकर मैं वाकई खुश थी। मैंने तो कभी घर का बँटवारा, ज़मीन- जायदाद में हिस्सा ये सब पाने का सोचा ही नहीं था। जैसे काले धुएँ का असर था कि सब ओर गलतफहमी का ज़हर फ़ैल चूका था। पर कहते हैं न अंत भला तो सब भलाअब जैसे मुझे लग रहा था कि बहुत जल्दी ही परेशानियों के बादल छट जायेंगे। पर कहाँ, ऐसा होता है कि मुझे बिना दर्द कुछ मिल जाए। अब कसूर भी तो मेरा ही था। किसी ने ज़ोर ज़बरदस्ती तो की नहीं थी। बेकार में खून से मन रंगा लिया। एक शाम अलमारी साफ करते -करते ऊन का गोला हाथ लग गया। आधा ही बुन पाई थी मोज़ा उसी समय तो आसमान मेरे सर पर गिरा था। अमित ने कितना मना किया था पर मैं ही बेवजह.... पर क्या वाकई में वजह नहीं था? एक सपना ही सही क्या बेवजह सपना देखना मेरा कसूर था? आज ऊन के गोले को हाथ में लेकर मैं यूँ ही सोचने लगी, घर सामान से जैसे भर रहा है क्या मन भी उसके बिना भरा हुआ नहीं है? आज सब है पर दिल के हुक को अकेले मैं ही सह रही हूँ। इतने में बच्चों की आवाज़ आने लगी खेलकर वापस आ गए थे। मैंने ऊन के गोले को अलमारी के लॉकर में ही रख दिया। कुछ बातें ऐसे ही मन के लॉकर में रह जाती है। जीवन भागता है क्योंकि माँ को आदत होती है भागते-दौड़ते जीवन में अपने मन की बात को मन के लॉकरमें दबा देने की।

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

हैदराबाद

3 टिप्‍पणियां:

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...