मंगलवार, 30 मई 2023

निबंध

 



सच्चा शिक्षक कौन ?

श्री रामेन्द्र त्रिपाठी

आचार्य विनोबा भावे ने कहीं कहा था कि अगर कोई शिक्षक राष्ट्रपति हो जाय, तो यह आचार्यत्व की तौहीन है ; क्योंकि उसकी निगाह में राष्ट्रपति का पद गुरुतर है और शिक्षक का कमतर। हाँ, अगर कोई राष्ट्रपति यह कहे कि वह अपना पद छोड़कर अध्यापन-कार्य करेगा और इतना ही नहीं, वह सत्ता-प्रतिष्ठान के समूचे लाव-लश्कर और विपुल राजवैभव को सचमुच ठोकर मारकर पढ़ने-पढ़ाने के महत्कार्य में लग जाता है, तो ऐसे व्यक्ति के जन्मदिन को शिक्षक-दिवस के रूप में मनाना श्रेयस्कर रहेगा।  

समाज, राष्ट्र, विश्व और व्यक्ति के निर्माण में शिक्षक की भूमिका सर्वोपरि है ।  वह गढ़ता है जडीभूत मूल्यों के स्थान पर स्वस्थ जीवन-मूल्य ; वह सुसंस्कृत करता है नयी पीढ़ी को ; और हमें अनुप्राणित करता है प्रतिफल, सत्य की खोज में अहर्निश सन्नद्ध रहने को ।  सच्चा शिक्षक जीर्ण-शीर्ण सामाजिक ढांचे के ध्वंस का वातावरण तैयार करता है और वह करता है , नयी समाज-रचना के लिए बीजवपन ।  वह बेहतर समाज बनाने के लिए खड़ी करता है , समर्पित युवा कार्यकर्ताओं की फ़ौज ।  इसलिए शिक्षक का स्थान या महत्त्व राष्ट्राध्यक्ष या शासनप्रमुख से कहीं ज़्यादा है ।

सच कहा जाय , तो राजकाज और प्रशासन में दोयम दर्जे के नेतृत्व से काम चलाया जा सकता है ; लेकिन राष्ट्र-निर्माण और नयी समाज-रचना की अगुआई आला दर्जे के तत्त्वचिन्तकों , मनीषियों या आचार्यों को ही करनी पड़ेगी ।  ऐसे प्रखर, कर्मठ , पक्षमुक्त और ऊर्जस्वित लोग निकलेंगे, जनगण के बीच से ।  सच कहा जाय ; तो प्रामाणिक , दूरद्रष्टा, परिवर्तनकांक्षी, प्रतिश्रुत, पथप्रदर्शक और निर्भीक नेतृत्व का अधिकांश शिक्षकों के बीच से निकलेगा ।

आज ज़रूरत है, चाणक्य जैसे शिक्षकों की, जो न केवल व्यापक जन-आन्दोलनों के गर्भ से एक नयी राजनीतिक शक्ति, कार्यप्रविधि और व्यवस्था को जन्म दे सकें ; बल्कि जो सूत्रपात करें आमूलाग्र सामाजिक क्रान्ति के चक्र-प्रवर्तन का ।  

विद्या के क्षेत्र का व्यक्ति मूलत: सत्ता व दल की राजनीति करने के लिए नहीं बना होता ।  आपद्धर्म की बात अलग है और समझ में आती भी है ; लेकिन आपद्धर्म को सहज गुणधर्म नहीं माना जा सकता ।  कहने का मतलब यह है कि शिक्षा के क्षेत्र का व्यक्ति राजसत्ता नहीं चाहेगा ।  वह अपने सारस्वत क्षेत्र में पूरी तरह जमे रहते हुए आवश्यकता पड़ने पर सत्ता-प्रतिष्ठान को सावधान ज़रूर कर सकता है ।  शिक्षक लोकशक्ति का वाहक बनकर भ्रष्ट, मदान्ध, कर्त्तव्यच्युत और दायित्वविमुख शासन-तन्त्र को सही सबक़ सिखा सकता है ।

अध्यापक अपने विद्यार्थियों को तो पढ़ायेगा ही    यह उसका न्यूनतम बुनियादी यानी प्राथमिक दायित्व और कर्त्तव्य है ।  अनिवार्य रूप से करणीय इस कार्य के साथ-ही-साथ उससे एक बृहत्तर भूमिका की अपेक्षा भी की जाती है ।  वह अपने परित: परिवेश और सन्निकटस्थ समुदाय या समाज से जुड़कर लोकशिक्षण का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य भी करेगा ।  शिक्षक व्यापक लोकहित का पैरोकार रहेगा ।  समाज, राष्ट्र या राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह शिक्षक के सम्यक योगक्षेम की सम्मानजनक व्यवस्था सुनिश्चित करेगा ।  विद्या, पाठशाला और शिक्षक को बाज़ार की ताक़तो के भरोसे या रहमोकरम पर बिल्कुल भी नहीं छोड़ा जा सकता ।  राज्य, समाज या समुदाय को शिक्षा का बोझ वहन करना ही पड़ेगा ।


 

श्री रामेन्द्र त्रिपाठी

(आई ए एस)

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. सच कह रहे हैं विद्या, पाठशाला और शिक्षा व्यवस्था को बाज़ार के रहमोकरम पर बिल्कुल भी नहीं छोड़ा जा सकता।सुंदर आलेख।बधाई

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  2. शिक्षक समाज का निर्माता और मार्गदर्शक होता है,वह सत्ता की कामना से ऊपर उठकर समाज हित में स्व प्रेरित होकर शिक्षण कार्य का चयन करता है अत: उसका स्थान सत्ता के हर एक शीर्ष पद से ऊँचा माना जाता रहा है,परंतु समय और परिस्थिति ने उसे भी स्खलित किया है,इसलिये यह पद भी आज कमतर आंका ना रहा है। इन सभी स्थितियों पर सम्यक विवेचन प्रस्तुत करता वैदूष्य पूर्ण आलेखके लिये श्री रामेन्द्र त्रिपाठी जी को हार्दिक साधुवाद।

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