बुधवार, 26 अप्रैल 2023

आलेख

 


हिन्दी हाइकु : तथ्य और कुछ विचार

डॉ. पूर्वा शर्मा

सर्वविदित है कि ‘हाइकु’ की जन्मभूमि तो ‘जापान’ रही है लेकिन उसकी कर्मभूमि तो आज सम्पूर्ण विश्व है। हाइकु में जापानी संस्कृति की महक का होना तो स्वाभाविक ही है, लेकिन जापानी हाइकु अपने आरंभिक दौर में ध्यान की क्रिया रही है जो कि ज़ेन गुरु के सानिध्य में की जाती थी। जापानी हाइकु के आधार स्तंभ हाइकु गुरु ‘बाशो’(1664-1694) एवं ‘इस्सा’ तो स्वयं संत थे इसलिए इनके हाइकु में अध्यात्म एवं ज़ेन दर्शन का प्रभाव ज्यादा दिखाई देता है। ‘बुसोन’ चित्रकार थे अतः उनके हाइकु में विषय वैविध्य दिखाई देता है। हाइकु को आध्यात्मिकता की धारा से मुक्त कर उसमें आधुनिकता एवं यथार्थ की ताज़गी भरने का कार्य हाइकु गुरु ‘शिकी’(1867-1902) ने किया। इन चारों हाइकु गुरुओं की सृजनात्मक प्रतिभा से सँवरकर जापानी हाइकु आध्यात्मिकता से लेकर आधुनिकता तक का सफ़र तय करके अपने वैविध्यपूर्ण वैशिष्ट्य रूप में प्रकट हुआ।

हिन्दी हाइ‌कु काव्य की प्रमुख कवयित्री एवं हाइकु की विशिष्ट अध्येता डॉ. सुधा गुप्ता के शब्दों में – बाशो सन्त थे, ‘हाइकु’ उनके लिये जीवन दर्शन था, बुसोन शब्द-शिल्पी थे, इस्सा ने हाइकु को मानवीय संस्पर्श दिया और शिकि ने उसे यथार्थ धरातल पर लाकर जन आन्दोलन का रूप प्रदान किया।” (हिन्दी हाइकु, ताँका, सेदोका की विकास-यात्रा : एक परिशीलन, डॉ.  सुधा गुप्ता, संयोजन -रामेश्वर काम्बोज पृ. 12)

विश्व की अनेक बोलियों-भाषाओं में इस काव्य शैली का तीव्र गति से प्रवेश, सृजन एवं अध्ययन की स्वीकृति को बखूबी देखा जा सकता है। जापानी हाइकु को भारतीय ज़मीन सर्वप्रथम रवीन्द्रनाथ टैगोर (जापानी जात्री, 1916) द्वारा बंगला भाषा के माध्यम से प्राप्त हुई। इसके पश्चात् हिन्दी में हाइकु के प्रवेश एवं विकास का श्रेय प्रयोगवाद के प्रवर्तक कवि अज्ञेय (अरी ओ करुणा प्रभामय,1959) को जाता है। जिन्होंने हाइकु के दार्शनिक आधार से प्रभावित होकर जापानी हाइकु के अनुवाद एवं हिन्दी हाइकुनुमा रचनाओं के सृजन का प्रयोग किया। और यह प्रयोग इतना सफल रहा कि इसके कारण हिन्दी में हाइकु काव्य के विकास का एक सुपथ निर्मित हुआ। बाशो के एक प्रसिद्ध हाइकु का अज्ञेय द्वारा अनुवाद देखिए –

सूखी डाली पर / काक एक एकाकी / रात पतझर की । 

(बाशो, अनु. – अज्ञेय)

हाइकु की सत्ता एवं महत्ता का अंदाज़ा हम इस बात से ही लगा सकते हैं कि मात्र सत्रह वर्ण होने के बावजूद यह त्रिपदी काव्य विश्वभर में एक स्वतंत्र एवं सशक्त काव्य विधा के रूप में प्रतिष्ठित है। भावानुभूति के चरम क्षण की संक्षिप्त प्रस्तुति कहे जाने वाले ‘हाइकु’ की पहचान क्या है? इसे ‘त्रिपदी काव्य’ कहा जाए या फिर ‘एक श्वासी काव्य’; कुछ लोग इसे ‘क्षण काव्य’ अथवा ‘आशु कविता’ भी कहते हैं। इसे किसी एक विशेष भाव, विचार या दृश्य की सीमित शब्दों में सांकेतिक प्रस्तुति समझा जाए अथवा 5-7-5 वर्ण के साँचे में ढली लघुकविता। दरअसल इसे इनमें से कुछ भी कहें  लेकिन इससे भी अधिक आवश्यक है कि इसमें पाठक की कल्पना, विचार अथवा समझ के लिए अनकहा रखने का रचना कौशल – यही इसकी विशेष पहचान है। यही अनकहा कहे से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन जाता है। काकासाहब कालेलकर हाइकु की विशेषता को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि “हाइकु में शब्द थोड़े, वर्णन में सादगी और व्यंजना को अवकाश अपरिमित-अपार।” गुजराती के हाइकुकार स्नेहरश्मि हाइकु में वर्णन से ज्यादा वस्तु को महत्त्व देते हैं। अनेक विद्वानों ने हाइकु को लेकर अपने-अपने मत प्रस्तुत किए हैं। बाशो ने इसे विराट सत्य की ओर इंगित करने वाली सांकेतिक अभिव्यक्ति कहा तो डॉ. सत्यभूषण वर्मा ने इसे अनुभूति के चरमक्षण की कविता कहा। डॉ. भगवतशरण अग्रवाल के अनुसार एक दो संकेतों या बिम्बों के माध्यम से, किसी एक रेखा-दृश्य के सौंदर्य या किसी विशेष मनोभाव को उभारना ही हाइकु है। जिसमें उस चित्र को पूरा कर, उसमें पसंद के रंग भरने का कार्य पाठक का होता है। संक्षेप में कहें तो हाइकु दृश्य जगत और आंतरिक जगत के प्रति गहन रागात्मक एवं विचारात्मक अनुभूति की कविता है।

हम आरंभ में ही कह चुके हैं कि अपनी जन्मभूमि पर विकसित हाइकु का मुख्य आधार तो अध्यात्म, जीवन दर्शन एवं प्रकृति ही रहा। लेकिन बाशो का स्वयं का मत है कि कोई भी विषय हाइकु के लिए अनुपयुक्त नहीं। वहीं हाइकुकार नलिनीकांत का मानना है कि प्रकृति, अध्यात्म एवं मनुष्यत्व – यह तीन हाइकु के प्रमुख विषय रहे हैं लेकिन फिर भी ऐसा नहीं है कि हाइकु इन दो-तीन विषयों तक ही सीमित रहा हो। हाइकु के विश्वस्तरीय प्रचार-प्रसार के चलते तो उसके वस्तुगत पक्ष में काफी वैविध्य आया है। और जहाँ तक हिन्दी हाइकु का प्रश्न है उसके संबंध में यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि आज हिन्दी कविता में जितना और जैसा विषय वैविध्य मिलता है वह हाइकु काव्य में भी है, कोई विषय इस काव्य से अछूता नहीं है। हाँ, अन्य काव्य शैलियों में निरूपित विषय का विस्तार इसमें भले न हो पर संकेत जरूर है। क्या नहीं हैं हिन्दी हाइकु काव्य में – प्रेम, प्रकृति, दर्शन, अध्यात्म, राष्ट्रीयता, सामाजिक यथार्थ, सांस्कृतिक संदर्भ, राजनीतिक परिदृश्य प्रभृति विषयों से संबद्ध हाइकु प्रचुर मात्रा में लिखे जा रहे हैं। संवेदना के विविध आयामों-स्तरों पर देखा जाए तो आज हिन्दी हाइकु काफ़ी संपन्न है। हाइकु कवियों की निजता-रागात्मकता-सौन्दर्य चेतना, सामाजिक-दार्शनिक-आध्यात्मिक दृष्टि, राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक प्रतिबद्धता, जगत-जीवन की अच्छाइयों से लगाव, समाज-जीवन की खामियाँ-दोषों की चिंता सब कुछ इसमें मिलता है।

पिछले चार-पाँच दशक की समयावधि में हाइकु को लेकर विपुलमात्रा में सृजन कार्य हुआ है। हिन्दी हाइकु के विकास की इस दीर्धावधि में अनेक पड़ावों में अनेक नामों को रेखांकित किया जा सकता है। भारतीय साहित्य, विशेषतः हिन्दी काव्यसंसार में इसे विशेष जगह एवं स्वीकृति दिलाने में डॉ. सत्यभूषण वर्मा का अहम् योगदान है। कुछ अध्येताओं के मतानुसार हिन्दी हाइकु का लेखन प्रारंभ तो प्रो. आदित्यप्रताप सिंह की लेखनी से हुआ – “केवल दस-ग्यारह वर्ष की अबोध उम्र में हाइकु से जुड़े आदित्य जी सन् 1942 से नियमित रूप से, हाइकु जिसे वे ‘हायकू’ कहते हैं, की रचना करने लगे थे।” (हिन्दी हाइकु, ताँका, सेदोका की विकास-यात्रा : एक परिशीलन, डॉ. सुधा गुप्ता, संयोजन -रामेश्वर काम्बोज, पृ. 55-56)

“जिन दिनों साहित्य जगत में ‘नयी कविता’ की घूम मची थी और प्रयोगवाद की भी चर्चा खूब हो रही थी, प्रो. उन दिनों हाइकु, सिन्-रियू रचकर अनुपम उपहार दे रहे थे। उस समय उनकी ‘सोन नदी’ (1951) शीर्षक हाइकु की चर्चाएँ जगह-जगह हो रही थीं। ...... हिन्दी का प्रथम हाइकु ‘सोन नदी’ है। (हिन्दी हाइकु : इतिहास और उपलब्धि, सं. रामनारायण पटेल, अभीप्सा पटेल, लेख-हाइकु के सार्थवाह : आदित्यप्रताप सिंह- डॉ. अर्चना सिंह, पृ. 109) 

डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन के मतानुसार – “आदित्यप्रताप सिंह मूलतः कवि है। जापानी काव्य विधा हाइकु को हिन्दी में सफलतापूर्वक अवतरित करने वाले सुधी सर्जकों में उन्हें पायनियर या अग्रणी कहा जा सकता है।”

हिन्दी हाइकु काव्य की विकास-यात्रा को तीन तरह के प्रकाशन माध्यम के द्वारा निरूपित कर सकते हैं – संपादित हाइकु संकलन, हाइकु कवियों के एकल-स्वतंत्र संग्रह एवं पत्र-पत्रिकाएँ।

हिन्दी में हाइकु लेखन के समानांतर इस विधा के अध्ययन-विवेचन-परिचय का कार्य भी गतिशील रहा, हालाँकि सृजन के सामने अध्ययन की मात्रा कम ही रही है। स्तरीय विवेचन तो और कम, बहुत कम मात्रा में हुआ। डॉ. सत्यभूषण वर्मा, डॉ. भगवतशरण अग्रवाल,  करुणेश प्रकाश भट्ट, डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. उर्मिला अग्रवाल, सतीशराज पुष्करणा, नलिनीकांत, नीलमेंदु सागर, रामनारायण पटेल, प्रभा शर्मा, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. भावना कुँवर एवं और भी अन्य नाम इस श्रेणी में शामिल है। प्रस्तुत पंक्तियों की लेखिका का भी इस दिशा में प्रयास - पीएच. डी. उपाधि हेतु इस विधा पर बृहद् कार्य कर चुकी है।

इन अध्येताओं ने हाइकु के शिल्प, शैली, विषय, हाइकु के मूल, हाइकु की प्रकृति-प्रवृत्ति, हिन्दी हाइकु की विकास यात्रा, हिन्दी हाइकु संबंधी शोध-समीक्षा कार्य आदि बिंदुओं को विस्तार से अपने अध्ययन का विषय बनाया।   

पिछले एक-दो दशकों से हाइकु सृजन-कर्म में तो जैसे बाढ़ ही आ गई है। आज हाइकु कवियों की संख्या लगभग एक हज़ार से अधिक हो चुकी है। लेकिन इस बात को भी हम नकार नहीं सकते कि इनमें से कुछ तो हाइकु तो सरल विधा मानकर अथवा हाइकु को फैशन के रूप में या अपने साथियों से प्रभावित होकर भी थोक की मात्रा में हाइकु लिख रहे हैं। ऐसी स्थिति में इस बात पर विचार करना बहुत जरूरी है कि हाइकु की परख किस आधार पर की जाए? कलात्मक-उम्दा कोटि के हाइकु के लिए अपेक्षित किन गुणों को देखा जाए? उदात्त हाइकु की क्या पहचान है? हाइकु किन प्रतिमानों पर खरा उतरना चाहिए? इन सब प्रश्नों के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि हाइकु ऐसा होना चाहिए जो कि पाठक को अत्यधिक प्रभावित करें, उसे गहराई से संवेदित करें, विशेष रूप से आस्वाद्य बने, मन-मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ सके।  इस पर हाइकु के अधिकारी अनेक विद्वानों ने अपने मत प्रस्तुत किए है। डॉ. सुधा गुप्ता के अनुसार –  “हाइकु अपनी लघुकाया - मात्र सत्रह वर्ण के छोटे से शरीर में कुछ ऐसा अवश्य लिए हैं जो बरबस मन को खींचता है - कुछ ऐसा संकेत जो पढ़ते ही मन को आह्लादित कर दे, उत्फुल्लता से भर दे - हाइकु की ऐसी वक्रता जो सहसा अर्थ को उद्घाटित कर पाठक-मन को चौंका कर रसप्लावित कर दे- पाठक का यह अनुभव कि बिना चेताए कोई लहर आकर उसे अपने साथ खींच कर, बहा कर ले गई है- यही है एक समर्थ-सफल हाइकु की पहचान, एकमात्र कसौटी !  ..….. हाइकु प्रथम बार पढ़ने में थोड़ा-सा अर्थ देकर, धीरे-धीरे खिलते फूल की भाँति भीतरी परत-दर-परत अर्थ खोलता चलता है - वही हाइकु उत्कृष्ट है।

इसी तरह से और भी अनेक विद्वान अध्येताओं ने आदर्श-उत्कृष्ट हाइकु की लाक्षणिकताओं को निरूपित किया है। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि विद्वानों ने उत्कृष्ट हाइकु के लिए जो गुण अपेक्षित माने हैं उनमें से कुछ हाइकु के सत्रह वर्ण के शिल्प और उसके लघुकाय आकार के संबंध में है बाकी के सभी गुण सीधे कविता से जुड़े हैं। अर्थात् हाइकु में ‘कवितापन’ का होना आवश्यक है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के अनुसार – “हाइकु की पहली और अंतिम शर्त है, उसका काव्य होना।” महज सत्रह वर्ण के ढाँचे में शब्दों की जोड़-तोड़ करके कुछ भी कह देना हाइकु नहीं कहलाता है। जरूरी है उसका कविता होना, उसमें कवितापन का होना। गरिमामय रचना विधान ही कविता को ऊँचाई प्रदान करता है। कविता में जो-जो तत्त्व आवश्यक हैं उनका संगुंफन होता है। उनमें सामंजस्य जरूरी है क्योंकि यह सामंजस्य ही उसका प्राणतत्व है। विविध काव्यांगों की समुचित प्रस्तुति ही काव्य के उत्कर्ष में सहायक होती है। इसलिए हाइकु कवि को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि सत्रह वर्णों -  5-7-5 के वर्णक्रम में उन्होंने जो कुछ लिखा है वह मात्र सूक्ति, कोई विचार या नारा न बन जाए या वस्तु-दृश्य का शब्द चित्र बनकर ही न रह जाए अथवा व्यक्तिगत एकालाप तक ही सीमित न रहा जाए। बल्कि वह विशुद्ध कविता हो कवितापन -सृजनात्मकता से वह परिपूर्ण हो, हाइकु की कसौटी का बुनियादी मानदंड-प्रतिमान यही है।

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता या समकालीन हिन्दी कविता या फिर इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता में हाइकु को हम कहाँ देखते हैं? कितना देखते हैं?, हाइकु हिन्दी कविता की मुख्यधारा में है या हाशिए पर...? इस तरह के प्रश्न इसलिए कि पचास वर्षों से भी अधिक समय से हिन्दी हाइकु की सृजन यात्रा जारी है, हिन्दी में इसकी स्वीकृति व लोकप्रियता के बावजूद लगता है कि हिन्दी शोध-समीक्षा-साहित्यिक गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों, अकादमिक पाठ्यक्रम, साहित्यिक पत्रिकाओं आदि के संबंध में हिन्दी के विविध काव्यरूपों-काव्य शैलियों से हाइकु की तुलना करें तो निश्चित रूप से हाइकु काव्य शैली थोड़ी पीछे ही रहती है। ऐसा नहीं है कि इन सभी क्षेत्रों में हिन्दी हाइकु नहीं है परंतु जब तुलनात्मक दृष्टि से हम देखते हैं तो इन सब में हाइकु की मात्रा, इसके लिए जगह कम ही है। ऐसा क्यों ? इसके कारण भी स्पष्ट हैं –

सर्वविदित है कि हाइकु हिन्दी की अपनी जातीय विधा नहीं है। जापान में उदित होकर बाद में विश्व की कई भाषाओं में उसका प्रवेश, प्रचार-प्रसार हुआ। इस तरह इसे विदेशी विधा का दर्जा मिला। हिन्दी की अन्य काव्यविधाओं की तुलना में नयी विधा है। हाइकु बहुत ही छोटे कद-आकार की कविता है। इसे हिन्दी में स्वीकृति जरूर मिली है पर उतनी नहीं जिससे कि पाठ्यक्रमों में विशेष या व्यापक रूप में शामिल हो सके।  

 उपर्युक्त इन कारणों पर यदि हम विचार करें तो कुछ बातें सामने आती हैं कि जापान की मिट्टी में पल्लवित होने के बावजूद आज हाइकु के भूमण्डलीय रूप को स्वीकृति मिली है। इतना ही नहीं भारत में, भारतीय भाषाओं में और विशेषतः हिन्दी में तो यह पूरी तरह से भारतीय रंग-रूप में ढल चुकी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दी के हाइकुकवि अपनी रचनाओं में भारतीयता को प्रस्तुत करते हुए अपने दायित्व का निर्वाह न केवल अच्छी तरह से कर रहे है  बल्कि वह इसमें सिद्धहस्त है।  

हिन्दी काव्य जगत में यह विधा नयी अवश्य है लेकिन अन्य काव्य विधाओं की तुलना में उतनी भी नयी नहीं है। यदि हिन्दी हाइकु की विकास यात्रा को देखे तो यह पिछले लगभग पचास-साठ वर्षों से नियमित प्रकाशित-विकसित हो रही है और इतनी लंबी अवधि किसी भी विधा को जमने में, अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में कम नहीं है।

हाइकु की लघुता उसकी सीमा भी है और उसका गुण भी है। हाँ, इसमें अन्य विधाओं की तरह विस्तार की गुंजाइश नहीं, पर ‘गागर में सागर भरने’ का गुण भी तो है। इसमें संकेत रूप में कहने की क्षमता भी है, अर्थात् कहे की तुलना में अनकहा का ज्यादा महत्त्व है।

अपने इतने सामर्थ्य के बावजूद हिन्दी काव्य की मुख्य धारा में आने के लिए इस विधा का संघर्ष जारी है। इसके इतने व्यापक प्रचार-प्रसार के होते हुए भी आज भी हिन्दी काव्य पाठकों, साहित्य के विद्यार्थियों में ऐसे पाठक-विद्यार्थी मिलना भी आश्चर्य की बात नहीं है जो हाइकु काव्य, यहाँ तक की हाइकु के नाम से भी अपरिचित है।

हिन्दी काव्य की विकासयात्रा संबंधी लेखन में, अकादमिक पाठ्‌यक्रमों में हाइकु को स्थान मिलने पर न केवल इसके प्रसार की, लोकप्रियता की संभावनाएँ और बढ़ सकती है बल्कि हाइकु  विषयक शोध-समीक्षा का दायरा भी बढ़ सकता है।

‘भारतीयता’ से संदर्भित विविध विषय-बिंदुओं के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी हाइकु काव्य पर विचार करना भी हिन्दी हाइकु काव्य के अध्ययन का एक महत्वपूर्ण आयाम हो सकता है।

वैसे देखें तो भारतीय भाषाओं के साहित्य में, भारतीय सर्जकों के सृजन में भारतीय ज़मीन-परिवेश से उपजे सृजन में भारतीयता तो अवश्य ही मिलेगी। पर यह तो एक सामान्य अर्थ में बात हुई। यहाँ पर जब हम भारतीयता की बात करते हैं तो हमारा आशय –  ‘भारतीयता’ की एक विशेष अवधारणा यानी भारतीय परिवेश, भारतीय संस्कृति-सभ्यता, भारतीय मूल्य एवं परंपराएँ, राष्ट्रीयता, भारतीय ऐतिहासिक-पौराणिक संदर्भ आदि की स्पष्ट-प्रत्यक्ष प्रस्तुति-अभिव्यक्ति से है।  

भारतीय जनजीवन में कहीं-कहीं अपनी संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण देखा जा सकता है। भारतीय आदर्शों-मूल्यों को भूलाते जाना, भारतीय परंपराओं -विचारधाराओं से अलग होते जाने की स्थिति पर एक सर्जक की चिंता और उनका अपनी संस्कृति-संस्कार-भारत-भारतीयता के प्रति अनुराग जब उनकी रचनाओं में प्रकट होता है तो उसे भी भारतीयता के अंतर्गत रखा जा सकता है।

प्रो. श्यामचरण दुबे के मतानुसार – “भारतीयता की खोज आज के संदर्भ में दो दृष्टियों से आवश्यक है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद देश में एक सांस्कृतिक अराजकता व्याप्त हो गई है। स्वदेश और स्वदेशी की भावनाएँ अशक्त होती जा रही है। हम बेझिझक पश्चिम का अनुकरण कर अपनी अस्मिता खोते जा रहे है। यह प्रवृति एक छोटे, पर प्रभावशाली तबके तक सीमित है, पर उसका फैलाव हो रहा है। यदि हमने इसे बिना बाधा बढ़ने दिया तो हमें परंपराओं की संभव ऊर्जा से वंचित होना पड़ेगा। और हमारी स्थिति बहुत कुछ त्रिशंकु जैसी हो जाएगी। दूसरा कारण और भी महत्वपूर्ण है। संस्कृति आज की दुनिया में एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में उभर रही है, न्यस्त स्वार्थ, जिसका उपयोग खुलकर अपने उद्देश्यों के लिए कर रहे हैं। उनपर रोक लग सकती है यदि हम निष्ठा और प्रतिबद्धता से भारतीयता की तलाश करें।”

हिन्दी हाइकु में भारतीयता अथवा हिन्दी हाइकु की भारतीयता विषयक चर्चा हमारे विचार से तीन दृष्टियों से आवश्यक है –

यह विधा अवश्य विदेशी है, इसकी संरचना जरूर जापानी है लेकिन इसकी आत्मा, संवेदना, संस्कार पूरी तरह से भारतीय है। हम यह कह सकते हैं कि हिन्दी ने जापानी हाइकु को पूरी तरह से भारतीय रंग-रूप दिया। इसलिए हिन्दी हाइकु में भारतीयता का स्वर केंद्र में है।

काव्य का अतिलघु रूप होने के कारण भले ही हाइकु में भारतीयता के विस्तार-वैविध्य की संभावना कम हो, किन्तु संकेत रूप में यह नन्हा काव्य अपनी बात कहने में कहाँ तक सफल है? और इस विषय को लेकर उसमें कितनी क्षमता अथवा सामर्थ्य है।

भारतीयता का एक संदर्भ भारत के बाहर से जुड़ा है अर्थात् भारत के बाहर रहने वाले प्रवासी रचनाकारों की रचनाओं में भारतीयता की छाप को देखना।

हिन्दी हाइकु में भारतीयता की साफ-सुथरी छवि को रचनाकारों ने कुछ इस तरह अंकित किया है –

पीपल दादा / कहानियाँ सुनते / दिनभर की। - डॉ. सुधा गुप्ता

बजते ढोल / दूर कहीं गाँव में / होती नौटंकी। - डॉ. शैल रस्तोगी

जनम हुआ / तब ढोल बजे थे / गाए सोहर। - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

नदी जल में / नहा के हवाएँ, दे / सूर्य को अर्घ्य। - कृष्णा वर्मा       

चौपाल बैठे / हुक्का गुड़गुड़ाते / मुखिया दादा। - डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

परदेस में / जब होली मनाई / तू याद आई। - डॉ. भावना कुँअर

लौटता कहाँ / मेरा प्रवासी मन / कोई न घर। डॉ. जेन्नी शबनम

हाइ‌कु ही नहीं बल्कि किसी भी साहित्यविधा में चित्रित अभिव्यक्त भारतीयता के अध्ययन के अंतर्गत अनेक बिंदुओं को रखा जा सकता है। इनमें भारतीय संस्कृति-सभ्यता, हमारी राष्ट्रीयता के अंतर्गत राजनीतिक-भौगोलिक-सांस्कृतिक रूप में राष्ट्र, हमारे दर्शन-चिंतन-धार्मिक आस्था से संबद्ध संदर्भ, भारतीय जनजीवन, प्रकृति, मिथक, प्रतीक, भारतीय भाषाओं के मान-सम्मान-महत्त्व, भारतीय मूल्य-आदर्श, स्वतंत्रता के पश्चात हमारी संवैधानिक निष्ठा, मानवाधिकार मौलिक अधिकार आदि को प्रस्तुत किया जा सकता है।

प्रस्तुत विषय में हम मुख्यतः राष्ट्रीय चेतना, भारतभूमि का गौरवगान, भारत का गौरवशाली इतिहास, देशप्रेम, स्वदेशी भावना, भारत की एकता-अखंडिता, विविधता मे एकता की भावना, सभी धर्म-जातियों-संप्रदायों के प्रति समान एवं सम्मान का भाव, भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य, आदर्श, मूल्य, परपराएँ,  इतिहास,वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र, भारतीय संविधान, लोकतंत्र, ग्राम्य-जीवन, भारत का भौगोलिक परिवेश, हमारी आस्था  प्रभृति  विषयों  से संबंधित हाइकु को देख सकते हैं। साथ ही इस दिशा में हिन्दी हाइकु काव्य की कुछ संभावनाओं को बता सकते हैं।

उपर्युक्त विषय से संबंधित कुछ हाइकु उदाहरण इस प्रकार है –

गाँव की गोरी / कीच में धँसकर रोपती धान।  -  डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव

फसल देख / मस्ती से हुक्का पीता / बैठ किसान।  - डॉ. भगवतशरण अग्रवाल

सूना ललाट/ हिमालय पूछेगा/ बिंदिया कहाँ।  - उर्मिला कौल

‘काम-दहन’ / शिव- श्राप से ग्रस्त / हुए ‘अतनु’ । - डॉ. सुधा गुप्ता

दादी बनाती / जोड़-जोड़ उपले / बड़ा गुहरा । डॉ. हरदीप कौर सन्धु

पिता का साया / बरगद की छाया / शीतल मन।  - सुदर्शन रत्नाकर 

भेजी थी माँ ने / संस्कारों की गठरी / डोली के संग। - शशि पाधा

आई हिचकी / अभी-अभी भाई ने / चोटी ज्यों खींची। - कमला निखुर्पा

संविधान में / मौलिक अधिकार / सजे खड़े हैं।  - डॉ. सुधा गुप्ता

सहलाती माँ / गोद में रख वर्दी / गाती है लोरी। - रचना श्रीवास्तव 

देश-रक्षा में / सर्द- शृंगार मेरा / मन तपता।  -  डॉ. कविता भट्ट

हम जानते हैं कि साहित्य और समाज एक दूसरे के पूरक होते हैं। साहित्य समाज से प्रभावित होता है और उसी तरह साहित्य भी समाज को प्रभावित करता है। सामाजिक जीवन, सामाजिक यथार्थ से साहित्य का सरोकार किसी न किसी रूप में होता ही है। आधुनिक काल के साहित्य में सामाजिक सरोकार को अधिक महत्त्व दिया गया है। वैसे भी साहित्य की सबसे बड़ी प्रासंगिकता उसके सामाजिक होने या समाज से जुड़ने तथा समाज को अपने से जोड़ने में है।  हिन्दी साहित्य में सामाजिक सरोकर की एक लम्बी परंपरा मिलती है। आज हम देखते हैं कि साहित्य की उपयोगिता, उसकी प्रासंगिकता को सामाजिक सरोकार के नजरिये से ज्यादा देखा जाता है। उसी परिप्रेक्ष्य में आज साहित्य को ज्यादा आँका जा रहा है।

यदि हम कविता की बात करें तो आधुनिक हिन्दी कविता, आज की हिन्दी कविता, सामाजिक जीवन को लेकर बराबर आगे बढ़ रही है। लेकिन हाँ, कथासाहित्य की तुलना में कविता में सामाजिक यथार्थ का विस्तार थोड़ा कम ही आएगा। और बात जब कविता की हो, वो भी हाइकु कविता की, जिसका कलेवर वैसे ही संक्षिप्त-सीमित होता है जिसके चलते सामाजिक यथार्थ को उसकी बहुआयामिता और विस्तार के साथ व्यक्त करने का उसमें पर्याप्त अवसर-अवकाश नहीं होता,  तथापि उसकी सांकेतिक रूप में, बिंदुओं के रूप में अभिव्यक्ति  हो सकती है।

इन्हीं कारणों से हिन्दी हाइकु में अन्य विषयों की अपेक्षा सामाजिक चिंतन और चेतना से जुड़े, सामाजिक सरोकार के स्तरीय हाइकु की संख्या कम ही कही जा सकती है। ऐसा नहीं है कि सामाजिक सरोकारों पर हाइकु लेखन नहीं हुआ है, हो तो रहा है परंतु जैसे हमने कहा कि अन्य विषयों के सामने थोड़ा कम ही हुआ है।

डॉ. उमेश महादोषी के विचार से – “मैं विश्वासपूर्वक मानता हूँ कि सामाजिक सरोकारों में भी हाइकु की सूक्ष्मता और सांकेतिकता की वृति स्वाभाविक, सहज और सफल सृजन का कारण बन सकती है। क्षमतावान हाइकुकार इस संदर्भ में जिम्मेवारी का प्रदर्शन करेंगे तो सामाजिक सरोकारों पर हाइक के अच्छो उदाहरण भी आएँगे और अगंभीर लेखन कर रहे रचनाकार भी आत्मसमीक्षा के लिए प्रेरित होंगे।”  (हाइफन पत्रिका 2018, पृ.96)

सामाजिक यथार्थ का, सामाजिक सरोकार का कवि वही है जो समाज को उसकी समग्रता में देखता है। समाज के ‘सु’ एवं कुदोनों रूपों का चित्रण करने वाले सर्जक की दृष्टि में समाज की अच्छाइयाँ-बुराइयाँ, श्रेष्ठताएँ-क्षतियाँ, शिखर-खाइ‌याँ सबकुछ आता है।

हिन्दू-मुस्लिम/ खून तो एक ही है/ जख्मों ने कहा।  - श्याम खरे

एक कदम / बढ़े शिक्षा की ओर / कन्या विभोर।  - ऋता शेखर 'मधु'

श्रम की बूँदें / झरतीं खेतों बीच / बनतीं सोना। - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

नींद न आए / नानी कहानी कहे / रिश्ता अनूठा। - पुष्पा मेहरा

मेह की घड़ी / ग़रीब की आँखों में / अश्रु की झड़ी। - रश्मि विभा त्रिपाठी

क्या खूब गढ़ा ! / अनपढ़ हाथों ने / शिक्षा भवन। - डॉ. पूर्वा शर्मा

समाज के विविध अंग इकाइयों से जुडी संवेदनाएँ, सामाजिक पारिवारिक जीवन, मनुष्य का पारिवारिक-सामाजिक दायित्व,  सामाजिक के साथ-साथ पारिवारिक रिश्तों की अहमियत समाज की अच्छाइयों के साथ-साथ समाज एवं परिवार की खामियों-दोषों-समस्याओं, धर्म-जाति-लिंग-संप्रदाय से ऊपर मनुष्यता, समाज के हित-कल्याण संबंधी विचार, विविध विमर्श जैसे – स्त्री, दलित, किसान, मजदूर आदि, समाज की सार्वजनिक सेवाएँ – शिक्षा-स्वास्थ्य-प्रशासन का उल्लेख आदि को सामाजिक सरोकार के सृजन के विषयों के अंतर्गत हम देख सकते हैं।

हिन्दी के कई हाइकुकारों का समाज-जीवन के प्रति विशेष लगाव रहा है। ऐसे कई कवि है जिनकी हाइकु रचनाएँ व्यक्तिनिष्ठ होने के साथ-साथ समाज निष्ठ भी है। हिन्दी हाइकु के वस्तुगत वैविध्य में सामाजिक सरोकार की उपस्थिति के कुछ उदाहरण देखिए –

धर्म की ध्वजा / आतंक के हाट में / ऊँची लहरे।  - आचार्य रघुनाथ भट्ट

हवालात में / बन्दी, अदालत में / न्याय सोता है।  - वेदज्ञ आर्य

सत्ता का कुआँ / कब किसका हुआ / गिरा जो डूबा । - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

विश्व भर में / नारी सम्मान सिर्फ़ / काग़ज़ों पर।  डॉ. सुधा गुप्ता

बाल विधवा / अकेली मोमबत्ती / जली पिघली।  - नीलमेंदु सागर

हमने देखा / रहती काग़ज़ों में / ग़रीबी रेखा।  डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

भीगा आँचल / सूना घर-आँगन / बेटा विदेशी। - सत्या शर्मा 'कीर्ति

सँजोए रिश्ते/ काँच-से नाजुक/ दरक गए। - भावना सक्सैना

ढलती उम्र / है समय निष्ठुर / न मिले मान। - सुषमा गुप्ता

एक ही छत / कमरों की तरह / बँटे हैं मन। - डॉ. सुरंगमा यादव

अंको की दौड़ / बच्चे घरों में कैद / मैदान सूने । - रमेश कुमार सोनी

चाँद की रोटी / गर्म पानी की दाल / परोसती माँ।  - प्रियंका गुप्ता

फिरे गलियों / अकुलाए उदर / हाथ कटोरा  - मंजूषा मन

स्लेट-किताबें / दूर ही से झाँकती / छोटू की आँखें। - अनिता मंडा

पेट की आग / चूल्हा न जला सकी / अर्थी है उठी । - डॉ. पूर्वा शर्मा

तपती रेत / मजदूरनी देखे / पैरों के छाले।  - कंचन अपराजिता

भूमंडलीकरण के दौर में हमारे जीवन में काफी कुछ परिवर्तन, अच्छे-बुरे दोनों ही रूपों में  आया है। इस स्थिति में साहित्य की चुनौतियाँ और भी बढ़ गई है।

हमारे यहाँ सन् 1991 के आसपास भूमंडलीकण की शुरुआत हुई और सन् 2000 के बाद इसका विशेष व व्यवस्थित प्रभाव परिलक्षित होता है। भूमंडलीकरण के कतिपय अच्छे परिणामों की अपेक्षा हमारे यहाँ उसके दुष्परिणाम ज्यादा दिखाई देते हैं। भूमंडलीकरण के चलते प्राकृतिक असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण में काफी वृद्धि हुई। भारतीय संस्कृति, जीवन, रहन-सहन, भाषा आदि को प्रभावित करके उसे कहीं-न-कहीं नुकसान भी पहुँचाया है।

इस स्थिति, इस परिवेश में जब हम हिन्दी कविता को देखते हैं, तो पाते हैं कि आज की हिन्दी कविता भूमंडलीकरण के समर्थन से ज्यादा उसके विरोध में आगे बढ़ रही है। उसमें भूमंडलीकरण की सहमती के नहीं बल्कि उसकी असहमती का स्वर ज्यादा बुलंद हो रहा है।  

कारण स्पष्ट है – “भूमंडलीकरण बहुत प्रयोजित ढंग से इतिहास, संस्कृति, विचारधारा के पूर्ण निषेध की घोषणा करने में लगा है जिससे हम अपनी ऐतिहासिक पहचान, पारिवारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता खो दें। घर-संस्कृति के स्थान पर वह हमें मल्टी कॉम्पलेक्स संस्कृति का सपना दिखा रहा है। वह हमारे परंपरागत जीवन मूल्यों, आदर्शों, भावों-रिश्तों को पिछड़ा और गैरजरूरी सिद्ध करने पर तुला है। वह सब को बाजारभाव से देख रहा है। वह विकास के नाम पर स्थानीय, क्षेत्रीय, सामूहिक कला-संस्कृति का विकृत करके नुमाइश की चीज बना देना चाहता है या सरे आम बिग बाजार का हिस्सा बना देना चाहता है। आज की हिन्दी कविता भूमंडलीकरण की इस कारगुजारी के प्रति न केवल जागरुक हुई है, बल्कि उसके प्रतिपक्ष में खड़ी है।”(आधुनिक हिन्दी कविता के कुछ हस्ताक्षर, डॉ दयाशंकर. पृ. 130)

भूमंडलीकरण के प्रभाव से हमारे समाज-संस्कृति-प्रकृति-पर्यावरण-जीवन शैली में आए बदलाव से हाइकु अनजान नहीं है। भारतीय अस्मिता, भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्पराएँ आदि को बनाए रखने की चिंता उसमें है।  भूमंडलीकरण के आक्रमण के विरोध के स्वर के साथ ही उसके विरोध-प्रतिकार के बाद भी उसे न रोक पाने का भी दर्द और बेचैनी है, यह भी हमारी आज की कविता में व्यक्त होती रही है। ऐसी स्थिति में हाइकु कवियों का भी अपने समाज के प्रति, अपनी संस्कृति के प्रति जो दायित्व है, उसका भी वह अच्छी तरह से निर्वाह करने में पीछे न रहे।

मनुष्य के जीवन में अर्थ की ही केंद्रीयता, अर्थ संबंधी निजी स्वार्थ, पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण, हमारी संस्कृति, हमारी भाषाओं की चिंता, हमारे आदर्श-मूल्य-परंपराएँ आदि को  बनाए रखने की चिंता, पर्यावरण-प्रदूषण, स्वदेशी भावना के कम होते जाने की चिंता, बाजारीकरण, उदारीकरण, मोलकल्चर, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्व और इस वजह से हमारे छोटे उद्योग, गृह उद्योग के अस्तित्व को खतरा, बेरोजगारी, विकास की दौड़ में मूलनिवासियों का विस्थापन - ऐसे अनेक मुद्दे हैं जो भूमंडलीकरण से भी प्रभावित है। आज के साहित्य में ये सब बड़ी संजीदगी से प्रस्तुत हो रहा है। इस स्थिति को बताने में हमारे हाइकु कवियों की भूमिका और ज्यादा महत्वपूर्ण हो।

कुछ हाइकुकारों ने अपने काव्य में इसे बखूबी चित्रित कर अपनी चिंता को व्यक्त किया    है –

गाँव से छूटे / ढोला-मारू के किस्से / बीड़ी के हिस्से । - भीकम सिंह

ज्ञान की बाढ़ / बह रहा संस्कार  / वस्त्र उतार। - नीलमेंदु सागर

कैसा विकास / आज आदमी बना / यंत्रों का दास ।  डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

खोले विभाग / पर्यावरण हेतु / काट के वन।  - अनिता मंडा

नूतन वेश, / टैंटू हैं प्रदर्शित, / कटि-प्रदेश ! डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

खेलना जिन्हें/ खिलौनों से खेलते / आज बमों से।  - डॉ. सतीशराज पुष्करणा

निगल गया / मोबाइल टॉवर / प्यारी गौरैया। - हरेराम समीप

सिमट गया / मोबाइल तक ही / पता हमारा!  - कमलेश भट्ट ‘कमल’

महानगर / पी गए सारा जल / नदी से छल।   - रमेश गौतम 

जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं कि हिन्दी हाइकु को लेकर जितना सृजनात्मक कार्य हुआ है उसके सामने समीक्षात्मक अथवा शोधपरक कार्य का परिमाण बहुत ही कम है।

हिन्दी में हाइकु सृजन विपुल मात्रा में हुआ है, हो रहा है। अनगिनत हाइकु कवि इस विधा को पुष्पित-पल्लवित करने में अपना योगदान दे रहे हैं। अन्य विधाओं की तरह इसमें भी संपन्नता तो आई है लेकिन इस सृजन के सामने अध्ययन कम ही हुआ है। हालाँकि हाइकु काव्य में उत्कृष्ट रचनाओं की कमी नहीं है, उसी तरह कुछेक स्तरीय अध्ययन कार्य भी सामने आए हैं। किंतु जब हम इसकी तुलना अन्य साहित्यिक विधाओं के साथ करते है तो यह कहना अनुचित नहीं होगा कि समीक्षा एवं शोध जगत में अभी भी हाइकु को जितना स्थान मिलना चाहिए उतना मिला नहीं है।

हाइकु संबंधित प्रमुख अध्येताओं और उनके कार्यों का जिक्र हम कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में हिन्दी हाइकु को लेकर पीएच. डी. अथवा एम. ए. / एम. फिल्. की उपाधि हेतु शोध कार्य/लघु-शोध प्रबंध लेखन हुआ है और हो रहा है। परंतु यदि सर्वेक्षण करें तो यह संख्या 25-30 से ज्यादा नहीं होगी।

समय-समय पर हाइकु विषयक लेख विविध पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। लेकिन इसमें किसी एक आयाम को लेकर परिचयात्मक रूप में विचार किया जाता है क्योंकि आलेख की भी अपनी सीमाएँ होती है। बृहद् कार्य अथवा अध्ययन के लिए इसमें अवकाश नहीं होता।

कुछ हाइकु सेवियों ने अपने द्वारा हाइकु रचनाओं की संपादित पुस्तकों में हाइकु-विषयक अपने विचार, टिप्पणियाँ एवं भूमिकाओं में प्रकट किए हैं, लेकिन इसमें भी विस्तार कम ही हो पाया है।

पुनः इस बात को दोहरा रहे हैं कि हिन्दी हाइकु संबंधी समीक्षात्मक ग्रंथों का अभाव है। हिन्दी हाइकु काव्य के शास्त्र (काव्य शास्त्र-सौन्दर्य शास्त्र) अथवा सिद्धांत ग्रंथ का अधिक लेखन हाइकु के सर्जकों, अध्येताओं एवं शोध-छात्रों विद्यार्थियों के लिए सहायक हो सकता है।

इस विषय में एक और बात उल्लेखनीय है कि हिन्दी हाइकु से जुड़े जो समीक्षक अथवा अध्येता है वे हाइकु कवि भी है – पहले हाइकु कवि है फिर समीक्षक अथवा पहले समीक्षक फिर कवि या फिर दोनों साथ-साथ। कहने का मतलब यह है कि दोनों भूमिकाएँ एक ही व्यक्ति निभा रहा है। वैसे यह अच्छी बात है लेकिन यदि हिन्दी काव्य समीक्षा की परंपरा में-हिन्दी कविता के शीर्षस्थ समीक्षकों के यहाँ यदि हाइकु आए तो हाइकु समीक्षा में अधिक गहराई, विस्तार और वैविध्य आ सकता है।

इस बात का हमने पहले भी उल्लेख किया है कि जब कोई साहित्यक विधा अकादमिक पाठ्यक्रम में शामिल होती है तो उससे संबंधित शोध-समीक्षा के लिए अवसर बढ़ जाते हैं। एक जानकारी के अनुसार गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद के एम.ए. हिन्दी के पाठ्यक्रम में एक प्रश्न पत्र – ‘हिन्दीतर प्रांतों का हिन्दी साहित्य का इतिहास’ की एक ईकाई ‘गुजरात का स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पद्य साहित्य’ के अंतर्गत ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी हाइकु का इतिहास’ को भी रखा गया है। इसी तरह से हाइकु को ज्यादा स्थान मिले तो अध्येताओं का ध्यान इस ओर अधिक आकर्षित हो सकता है।

हिन्दी में हाइकु की लोकप्रियता एवं स्वीकृति के बावजूद ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनकी दृष्टि इसके प्रति ज्यादा सकारात्मक नहीं है। इनका यह मानना है कि यह छोटे कद की विधा विदेशी है, इसमें विस्तार की गुंजाइश नहीं, लिखने में सरल है, कोई कलात्मकता-सृजनात्मकता की चुनौतियाँ नहीं, हाइकु लिखना फैशन है और इस तरह के जाने कितने आरोप इस नन्हे काव्य पर लगते रहे हैं। नलिनीकांत के शब्दों में – “ऐसी बात नहीं है कि हाइकु की निंदा नहीं हो रही या उसका विरोध नही हो रहा। खूब हो रहा है। मेरे पास विरोध तथा भर्त्सना के बहुत सारे लिखित परिपत्र है। किन्तु विरोध से कोई सत्य कभी रुक नहीं जाता, बल्कि दुगुने वेग से आगे बढ़ता है। हाइकु का सत्य वैसी ही एक ओजस्वी, तेजस्वी दुर्निवार वाग्धारा है।.... हाइकु का कोई स्वागत करे या न करे , किन्तु हाइकु सभी का आतिथेय स्वागत करता है।…. हाइकु को अंगीकार करें तो, दुत्कार करें तो, यह साहित्यांगन में समर्पित सेवा तथा प्रेम भाव के साथ संस्थापित हो चुका है। यह प्रस्थापना अपने आप में एक बुनियादी सत्य है।”  (हाइकु काव्य : शिल्प एवं अनुभूति, सं. रामेश्वर काम्बोज/ डॉ. भावना कुँवर, पृ. 25-26)

हिन्दी जगत में कतिपय लोगों का हाइकु विरोधी यह स्वर, उसके प्रति उपेक्षित भाव कम हो सकता है यदि हिन्दी हाइकु के भारतीय रूप से पूरी तरह से अवगत हो – कलात्मकता, सर्जनात्मकता से संपन्न हाइकु रचनाओं को मसलन देखा जाए – लघुकाय रूप में बहुत कुछ संकेतित करने, बहुत कुछ अनकहे पाठक की ग्रहण शक्ति के लिए छोड़ने की उसकी क्षमता से परिचित हो – हाइकु की आकरगत सीमा-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए अन्य काव्य प्रयुक्तियों की अपेक्षा उससे  बहुत ज्यादा अपेक्षा न रखें।

हमारे यहाँ साहित्य के सृजन-लेखन संबधी प्रशिक्षण का ट्रेंड बहुत पहले से चला आ रहा है। हमारी दीर्घकालीन काव्यशास्त्रीय परंपरा में कविशिक्षा संबंधी पर्याप्त विवरण उपलब्ध होता है। काव्य रचना के तरीके, काव्य के विषय, काव्य की भाषा, काव्य की संरचना संबंधी शिक्षा-मार्गदर्शन भी इन काव्यशास्त्रीय ग्रंथों का एक विषय रहा है। काव्य के सृजन, कवियों को तैयार करने हेतु काव्यपाठशालाओं की स्थापना के भी कुछ प्रमाण हमारे इतिहास में मिलते हैं। आज हम देखते हैं कि विविध माध्यमों से साहित्य संबंधी प्रशिक्षण का कार्य हो रहा है। कविता, कहानी, निबंध, गजल, दोहा, हाइकु प्रभृति को कैसे लिखे? इसका प्रशिक्षण बराबर दिया जाता रहा है। सोशल मीडिया के वर्चस्व के इस दौर में तो यह कार्य और ज्यादा हो रहा है। इसके लिए कार्यशालाओं का भी आयोजन हो रहा है। नवोदित लेखक-कवियों के सृजन कार्य को वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा देखकर, उनके द्वारा मार्गदर्शन- संशोधन संबंधी दी जाने वाली सलाह को भी इस तरह का प्रशिक्षण ही कहा जाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि हाइकु हो या फिर अन्य किसी विधा में लेखन संबंधी प्रशिक्षण से उस विधा के सृजनकर्म में निश्चित ही इजाफ़ा होता है। हिन्दी हाइकु में भी हम सकते हैं कि हाइकु लेखन शिक्षा से, वरिष्ठ हाइकुकारों के मार्गदर्शन से, उनकी प्रेरणा प्रोत्साहन से अनेक कवि इस विधा संबंधी सृजन में जुड़े हैं।

प्रशिक्षण जरूरी है, पर किसी विधा को कैसे लिखें ? क्या लिखें ? किस तरह की भाषा में लिखें ? यह बताने से ही अच्छी रचना का सृजन हो जाएगा ऐसा नहीं है। हाइकु और कोई विधा जिसका स्ट्रक्चर सीखा सकते हैं, पर रचना में स्ट्रक्चर साथ-साथ कंटेन्ट (विषय-वस्तु) का भी उतना महत्त्व है। अपनी रचना के लिए, एक कवि के लिए विषय चयन की क्षमता, दृष्टि, विचार, अनुभूति, सृजनात्मकता की आवश्यकता तो कवि अपनी प्रतिभा, विशेष अभ्यास-अनुभव से ही प्राप्त कर सकता है।

 


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

 

 

5 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा आलेख, हिंदी हाइकु में आपका योगदान अविस्मरणीय है।
    बधाई।

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  2. हायकू पर विस्तृत शोधयुक्त जानकारी । आशीर्वाद

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  3. सम्पूर्ण जानकारी भरा, सुंदर आलेख, बधाई।

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  4. विस्तृत विश्लेषण करता , ज्ञानवर्धक, महत्वपूर्ण आलेख। हार्दिक बधाई पूर्वा जी। सुदर्शन रत्नाकर

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