गो संवर्द्धन एक लाभकारी एवं पुण्यकारी व्यवसाय
डॉ. अशोक गिरि
सम्पूर्ण विश्व में अग्रणीय तथा सर्वश्रेष्ठ होने का गौरव
भारतीय संस्कृति को है। हमारे देश की संस्कृति इतनी महान है कि उसमें महान
व्यक्तियों को ही नहीं अपितु प्रकृति प्रदत्त हर वस्तुओं को जैसे – ग्रह-उपग्रहों,
पेड़-पौधों, पर्वतों, नदियों, सरोवरों तथा पशु-पक्षियों आदि को देवतुल्य एवं स्तुत्य माना
गया है। पशुओं की शृंखला में गो का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। गो का भारतीय संस्कृति
में महत्त्वपूर्ण स्थान ही नहीं, वरन हमारी सम्पूर्ण संस्कृति की पीठिका गो है। हमारी
संस्कृति प्राचीनकाल से ही गो की ऋणी रही है। इसके साथ-साथ हमारे सम्पूर्ण साहित्य
में भी गो के द्वारा प्रदत्त वस्तुओं को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। गो एवं उसके
उत्पाद के महत्त्व पर भारतीय कृषि एवं अनुसंधान संस्थान,
राष्ट्रीय जैविक कृषि केन्द्र तथा नेशनल ब्यूरो ऑफ एनिमल
जेनिटिक रिसोर्सेज संस्था ने अपनी मुहर लगाई है।
व्यवसाय किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होता है। आधुनिक
युग में कृषि भी एक व्यवसाय है। जिसके संचालन में पशुओं की भूमिका को नकारा नहीं
जा सकता है। अर्थात् गो संवर्द्धन भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में महत्त्वपूर्ण
भूमिका का निर्वहन करेगा। वैदिक काल से ही पवित्र माना जाने वाला पशु है – गो,
जो प्राचीनकाल में सम्पन्नता का प्रतीक तथा वस्तुओं के
मूल्यांकन और विनिमय का भी साधन था।
हमारी संस्कृति में गो सरलता, शुद्धता एवं पवित्रता-सात्विकता की मूर्ति मानी गई है। इसका
एक कारण आरम्भिक समाज का कृषिजीवी होना है। उस समय गो सम्पन्नता की भी द्योतक थी।
यज्ञ आदि अनुष्ठानों में ऋषियों को दक्षिणा के रूप में गो दी जाती थीं।
शास्त्रार्थ में विजयी विद्वान का सम्मान भी गोदान से किया जाता था। कालान्तर में
गोदान पुण्य का साधन समझा जाने लगा और सामर्थ्यानुसार सोने,
चाँदी तथा बहुमूल्य वस्तुओं से अलंकृत करके उनका दान किया
जाता था।
गो के दूध में स्वर्ण तत्व होता है। गो का दूध और घी इसी
कारण से पीले रंग के होते हैं। यह पीलापन कैरोटिन नामक तत्व के कारण होता है।
मनुष्यों में मुख, फेफड़े व मूत्राशय आदि अनेक अंगों में कैंसर रोग का प्रमुख
कारण शरीर में कैरोटिन तत्व की कमी का होना होता है। गो के सींगों का आकार पिरामिड
की तरह होता है। यह एक शक्तिशाली एण्टीना की तरह कार्य करते हैं। इनकी सहायता से
गो सभी आकाशीय ऊर्जाओं को शरीर में ग्रहण कर लेती हैं। यही ऊर्जा हमें गोमूत्र,
दूध और गोबर के द्वारा मिलती है। गोमूत्र में कार्बोलिक
एसिड होता है, जो कि कीटाणुनाशक होता है। गो जितनी प्रसन्न होती है,
उतने ही उसके दूध में विटामिन उत्पन्न होते हैं। हमारा यह
प्रयास होना चाहिए कि कोई घर ऐसा न हो, जिसमें गो न हो, गो का दूध न हो।
गो का दूध, घी व मूत्र स्वास्थ्यकारक एवं सर्वरोग निवारक है। गोमूत्र व
गोबर से अनेक उदर, चर्म एवं रक्तादि के रोगों का निवारण होता है। अनुपम खाद
निर्माण का भी गोमूत्रादि दिव्य साधन है। पंचगव्यपान देह के त्वक् अस्थिगत दोषों
के निवारण एवं आत्मशुद्धि का परम साधन है।
गो का दूध एक पूर्ण आहार है। एक नवजात बालक,
जिसके लिए उसकी जन्मदायिनी माँ का दूध नहीं हो पा रहा है,
उसकी जीवनरक्षक गो ही तो है।
गोमूत्र, जो कई आयुर्वेदिक औषधियों में प्रयुक्त होता है,
यदि आप गोमूत्र का उपयोग साधारणतया भी करते हैं तो उसके
प्रभाव से आपका शरीर सदैव रोगमुक्त रहता है। यदि सही दिशा में वैज्ञानिकों द्वारा
अनुसंधान किया जाए, तो गोमूत्र से अनेक ऐसी व्याधियों का इलाज भी सम्भव है,
जिनका उपचार आज तक उपलब्ध नहीं है।
गो के गोबर का लेपन गाँव में आज भी किया जाता है। प्राकृतिक
रूप से गो के गोबर में वह शक्ति है कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति गो के गोबर को
अन्य अपविष्ट पदार्थों की तरह नहीं देखता। गो के गोबर को गोबर गैस एवं ईंधन के रूप
में भी प्रयुक्त किया जाता है। आप पाएँगे भौतिक रूप से गो का जो महत्त्व है,
वह इतना अधिक है कि हम उसे चाहकर भी अनदेखा नहीं कर सकते। हमारा
ग्रामीण समाज तो पूर्णतया गो पर निर्भर है। गो की सन्तान ही किसान के खेत में हरियाली
लाती है। गो के गोबर से जो खाद उत्पन्न होती है, उससे खेतों के उत्पादन में
आश्चर्यजनक वृद्धि होती है एवं वह पूर्णरूप से पर्यावरण के लिए उत्तम है।
गो के घी को अमृत कहा गया है, जो युवावस्था को स्थिर रखते हुए वृद्धावस्था को दूर रखता
है। श्यामा गो के घृतपान से वृद्ध व्यक्ति भी युवा जैसा हो जाता है। गो के घी में
पाए जाने वाले स्वर्ण-क्षार में अद्भुत औषधीय गुण होते हैं। गो के घी में वैक्सीन
एसिड,
ब्यूट्रिक एसिड, बीटा-कैरोटीन जैस माइक्रो न्यूट्रीएंट्स मौजूद होते हैं, जिनमें कैंसर युक्त तत्वों से लड़ने की अद्भुत क्षमता होती
है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने पर भी यदि गो के 100 ग्राम घी से यज्ञ किया जाए, तो इसके परिणाम स्वरूप वातावरण में लगभग एक टन ताजे ऑक्सीजन
का उत्पादन होता है। यही कारण है कि मन्दिरों में गो के घी का दीपक जलाने तथा
धार्मिक समारोहों में यज्ञ करने की प्रथा प्रचलित है। इसमें वातातरण में फैले
परमाणु विकिरणों को हटाने की पर्याप्त क्षमता होती है।
पंचगव्य गो के दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र को मिलाकर बनाया जाता है। मूर्तियों का भी
इससे स्नान कराया जाता है। यह माना जाता है कि पंचगव्य से शरीर की शुद्धि होती है।
अनेक अवसरों पर घर को शुद्ध करने में भी इसका प्रयोग होता है।
युगों-युगों से सभी आदि धर्मग्रन्थ एवं आदि वैज्ञानिक तथा
ऋषि-मुनियों ने बारम्बार लिखा, कहा और सिद्ध करके बताया है कि गो ही मानव जाति एवं
सम्पूर्ण प्रकृति की पोषक है तथा उनका पंचगव्य ही सृष्टि की जीवनी शक्ति का
एकमात्र स्रोत है। गो और पंचगव्य ही पंचभूतों पृथ्वी,
जल, वायु, अग्नि एवं आकाश को परिशुद्ध अर्थात् पवित्र रखने में सक्षम
है ।
हम सभी जानते हैं कि आज राष्ट्र व समाज ही नहीं,
अपितु पूरे विश्व में जितनी भी समस्याएँ हैं,
वे इन पंचभूतों के दूषित हो जाने से अथवा कमजोर हो जाने से
ही उत्पन्न हुई हैं और यह अनर्थ करने वाला कोई और नहीं,
बल्कि स्वयं मानव ही है। जब गो के पंचगव्य से मानव को
पवित्रता प्राप्त होती थी, तब मानव सही में मानव था तथा उसमें मानवीय गुण दया,
दान, प्रेम, स्नेह, त्याग एवं दूसरों के लिए बलिदान तक देने का भाव होता था। गो
जैसे-जैसे मानवीय समाज से उपेक्षित होती चली गई, वैसे-वैसे मानव जाति भयंकर
समस्याओं से ग्रस्त होती गई। क्योंकि मानव सहित सम्पूर्ण प्रकृति को सबल व सजीव
बनाने वाले पंचभूत ही पंचगव्य के अभाव में दूषित व कमजोर जो हो गए हैं ।
अब प्रश्न है कि पुनः गो को मानव समाज में पुनःस्थापित करने
के लिए रचनात्मक कार्य करने का साहस जुटाते पक्ष कोई अपवाद स्वरूप में ही नजर आ
रहे हैं। सभी को लग रहा है कि वर्तमान परिस्थितियों में गोसंरक्षण,
गोसंवर्द्धन, पंचगव्य परिष्करण एवं विनियोग के मार्ग से चलते हुए मन्जिल
तक पहुँचाना दुष्कर कार्य है।
गो के प्रति इस हतोत्साहित एवं उपेक्षा के दौर से मानव समाज
को जगाकर गो की महत्ता. उपादेयता एवं आवश्यकता को पुनः सिद्ध करने का महान कार्य
पिछले कई वर्षों से कई सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक संस्थाएँ कर रही हैं ।
यह सत्य है कि यदि सभी ही अपने-अपने जीवन में गोव्रत का
संकल्प लेकर गोसंवर्द्धन को जीवन में अनिवार्य रूप से स्वीकार कर लेते हैं तो
निश्चित ही गोसंवर्द्धन भी होने लगेगा और पंचगव्य की महत्ता व उपादेयता भी तीव्र
गति से स्थापित हो सकेगी। ऐसा होने पर लाखों-करोड़ों लोगों को प्रत्यक्ष गो
संवर्द्धन एवं पंचगव्य प्रयोग का संदेश मिलेगा। पंचगव्य की सब ओर माँग पैदा होगी
और पंचगव्य (शुद्ध देशी गो के दूध, दही, घृत, गोमूत्र एवं गोमय) की माँग पैदा होने से गो को अपनाने वाले
एवं बचाने वाले लाखों कदम एक साथ आगे बढ़ने लगेंगे ।
हम निश्चय करें कि जो वस्तुएँ गो के पंचगव्य से बनती हैं।
हम उन्हीं का प्रयोग करें और हम उत्सव पर उपहार के रूप में उन्हीं का लेन-देन
करें। इस बारे में गो की सेवा करने वाली कई संस्थाओं ने जो अनुमान लगाए हैं,
उनके अनुसार गो के पंचगव्य से अरबों रूपये का सामान बन सकता
है और जैसी हमारी गो के प्रति अगाध श्रद्धा है, उससे हाथों-हाथ बिक भी सकता है।
इस समय विभिन्न संस्थाएँ जो पंचगव्य से दवाइयाँ और अन्य
वस्तुएँ बना रही हैं, वे अपने ढंग से अनुसंधान भी करें। इस अनुसंधान क्षेत्र में
उद्योगपतियों के खुले दिल से आने से इसकी गति में बहुत प्रगति होनी निश्चित है। पंचगव्य
की वस्तुओं के विक्रेता बहुत कम हैं। इनकी संख्या भी सुचारु रूप से और बढ़ाने की
आवश्यकता है। इस समय भी पंचगव्य से बहुत वस्तुएँ बन रही हैं। दवाइयों की गिनती तो
अनगिनत है। कई निजी उद्योग वाले वैद्य असाध्य रोगों के निदान के लिए पंचगव्य का
सहारा लेकर औषधियाँ बनाकर और बेच रहे हैं, घनवटी की उपयोगिता लीवर, डायबिटीज, उदर रोग, श्वास और बवासीर जैसे रोगों के निदान के लिए लाभदायक है। यह
रक्तशोधक और उदर के कीड़ों का भी नाश करती है। ऐसे ही वात रोग,
गठिया और जोड़ों के दर्द के लिए पंचगव्य से बने कई प्रकार
के तेल बहुत ही लाभकारी हैं। पंचगव्य आधारित दवाइयों में कैंसर तक को ठीक करने की
औषधियाँ बन चुकी हैं और इस पर निरन्तर अनुसंधान भी किया जा रहा है
घर-घर में प्रयोग होने वाली अनेक वस्तुएँ पंचगव्य से बन रही
हैं,
जो बहुत लाभदायक है। जैसे विभिन्न प्रकार के नहाने के साबुन,
दाँत व मसूड़ों के रोगों का निदान करने वाला पाउडर,
बालों को चमकीला तथा रेशम-सा बनाने वाले शैम्पू और फिनायल
जैसी घर-घर में प्रयोग में आने वाली वस्तुओं से अरबों रुपए का व्यापार सम्भव है। घर-घर
में प्रयोग में आने वाला वाशबेसिन और संडास आदि की सफाई करने वाला पाउडर,
हाथ धोने का जलवत साबुन, कपड़े में सफेदी लाने वाला पाउडर,
कीटाणु रोधक, आफ्टर शेव लोशन, मच्छर भगाने के लिए क्वाइल व बर्तन साफ करने का पाउडर आदि
वस्तुएँ हैं, जो इस समय बन रही हैं। इस लम्बी गिनती में कृषि उपयोगी और पशु उपयोगी औषधियाँ
भी हैं।
यह सत्य है कि भारत के व्यवसायी और नागरिक भारतीय गो से
प्यार करते हैं और उसको ‘माँ’ की संज्ञा भी देते है। यदि व्यवसायी पंचगव्य सम्बन्धी
उद्योग लगाएँ और उनसे विभिन्न प्रकार के रोगों के निदान के लिए दवाइयाँ और घर में
प्रयोग में आने वाली अनेक वस्तुएँ बनाएँ। साथ ही व्यापारी इनको पूरी लगन से बेचें
और जनता इनका व्यापक रूप से प्रयोग करे, तो गाय बचेगी, देश समृद्ध होगा, लोग रोगमुक्त होंगे और देश को अरबों रुपए का लाभ भी होगा।
यदि हम अपने इतिहास पर गौर करें तो प्राचीन काल में हमारे
देश में जैविक खेती का जो स्तर था, आज उसका आधा भी नहीं है। पहले की खेती में पेड़-पौधों के
अवशेषों के साथ ही गोवंश को पूरी अर्थव्यवस्था का आधार माना जाता था। गोबर से बना
उर्वरक और गोमूत्र से बना पेस्टीसाइड ही किसानों का जीवन रक्षक होने के साथ-साथ
मिट्टी के लिए भी संजीवनी साबित होता था । गोवंश आधारित खेती ही हमेशा हमारी पूरी
अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है। जिस तरह की खेती हम आज के दौर में कर रहे हैं,
उससे न सिर्फ हमारी सेहत बल्कि मिट्टी की सेहत भी पूरी तरह
खराब हो रही है। हमें एक बार फिर अपने उसी दौर में लौटना होगा जहाँ स्वस्थ लोग,
सम्पन्न किसान और लहलहाते खेत हों।
वास्तव में यदि हम गो संरक्षण व संवर्द्धन के सच्चे हिमायती
हैं,
तो हमें सर्वप्रथम गाँव और गौचर भूमि बचानी चाहिए। पुराने
समय में ग्वाले दिन में गो को चुगाने के लिए गाँव के नजदीक के गोचर भूमि पर ले
जाते थे। सबसे पहला फायदा तो यही था कि गोशाला से चुगान के लिए जाने पर गो का
शारीरिक व्यायाम हो जाता था तथा गोचर भूमि से विभिन्न प्रकार की घास-पत्ती खाने से
विभिन्न पोषक तत्वों जैसे – खनिज पदार्थ व विटामिन आदि की पूर्ति हो जाती थी,
जिससे वे स्वस्थ रहते थे और दूसरा फायदा यह था कि भिन्न-भिन्न
घास-पत्ती खाने से उनके दूध में विभिन्न आयुर्वेदिक जीवन रक्षक रसायन का अमृतमयी
गुण आ जाने से गो का दूध पीने वाले स्वस्थ, बलवान व बुद्धिमान होते थे ।
महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि गो के संवर्द्धन के लिए गाँव ही
सबसे सुरक्षित व उचित स्थान हैं।
गो का दूध, घी, मूत्र स्वास्थ्यकारक एवं सर्वरोग निवारक है। गोमूत्र, गोबर
से अनेक उदर, चर्म,
रक्तादि के रोगों का निवारण होता है। अनुपम खाद निर्माण का
भी गोमूत्रादि दिव्य साधन है। पंचगव्यपान देह के त्वक् अस्थिगत दोषों के निवारण
एवं आत्मशुद्धि का परम साधन है।
सत्यतः गोसंवर्द्धन में ही राष्ट्र का विकास है। लेकिन आज
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है गो कैसे बचे? गो के प्रति उपेक्षा का भाव रखने का ही दुष्परिणाम है कि
दूध से बने खाद्य पदार्थों में मिलावट हो रही है। जिसके कारण व्यक्ति का स्वास्थ्य
तो प्रभावित हो ही रहा है साथ में वह भयंकर बीमारियों से ग्रस्त हो रहा है। इसलिए
दूध उत्पादन के लिए तो गो संवर्द्धन होना ही चाहिए। उद्योगपतियों का भी यह
कर्त्तव्य है कि वे अनुसन्धान करवाकर पंचगव्य पदार्थों से बनने वाली वस्तुएँ
अधिक-से-अधिक बनाएँ। इससे बूढ़ी गो, दूध न देने वाली गो एवं बैल किसान के लिए बोझ नहीं,
बल्कि आर्थिक लाभदायक बनकर उसके परिवार का भी संवर्द्धन
करेंगे ।
निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि गो संवर्द्धन के लिए
कोई एक व्यक्ति उत्तरदायी नहीं है, अपितु इसके लिए सरकारी, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक संस्थाओं को भी महत्त्वपूर्ण
भूमिका का निर्वहन करना होगा। तभी हमारा
गो संवर्द्धन एक पुण्यकारी एवं लाभकारी व्यवसाय का सपना साकार होगा।
डॉ. अशोक गिरि
बी-36,
बी.ई.एल. कॉलोनी,
कोटद्वार
(उत्तराखण्ड)
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