बुधवार, 26 अप्रैल 2023

आलेख

 


काव्य-प्रयोजन की दृष्टि से उपन्यास साहित्य पर एक विहंगम् दृष्टिपात

डॉ. हसमुख परमार

उपर्युक्त आलेख का शीर्षक कुछ लोगों को चौंकानेवाला लग सकता है, क्योंकि जब भी हम काव्य-प्रयोजनों पर विचार करते हैं, हमारा ध्यान प्राचीन या मध्यकालीन कविता पर ही जाता है और अधिकांश विद्वानों ने जो इस संदर्भ में उदाहरण प्रस्तुत किए हैं वे उधर के ही हैं। दूसरे बहुत से लोग काव्य’ का अर्थ कविताही करते हैं। वे काव्यको कविताका पर्याय समझते है, परंतु ऐसा नहीं है। हमारे यहाँ काव्यशब्द का व्यापक अर्थ साहित्य या वाङ्मय है और कवि शब्द का अर्थ भी केवल कविता करनेवाले या लिखनेवाले तक सीमित न रहकर साहित्यकार के लिए होता रहा है। काव्येषु रम्यं नाटकम्जो कहा गया है, वह इसी व्यापक अर्थ की ओर संकेत करता है। डॉ. गुलाबराय के आलोचनात्मक ग्रंथ काव्य के रूपमें केवल पद्यरूपों की चर्चा ही नहीं है, अपितु उसमें गद्य के भी तमाम प्रकारों को लिया गया है। वह भी इस बात का ही प्रमाण है। अतः उपन्यास को भी काव्य का एक रूपसमझते हुए, प्रस्तुत आलेख में काव्य-प्रयोजनों के संदर्भ में हम अपनी चर्चा उपन्यास साहित्य, विशेषतः हिन्दी उपन्यास साहित्य को केन्द्रस्थ रखते हुए करेंगे। अधिकांश विद्वानों ने मम्मट द्वारा निरूपित काव्य-प्रयोजनों को ही अधिक मान्यता दी है। आचार्य मम्मट ने अपने ग्रंथ काव्य प्रकाशमें काव्य-प्रयोजनों की व्यवस्थित व वैज्ञानिक चर्चा की है-

काव्यं यशसेडर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।

सद्यः परिनिवृत्तये कांतासंमिततयोपदेशयुजे॥”

उपर्युक्त श्लोक में काव्य अर्थात् साहित्य के प्रमुख छः प्रयोजन बताए गए हैं- यशसे- यश या कीर्ति के लिए, अर्थकृते - अर्थ या धनप्राप्ति के लिए, व्यवहारविदे- व्यवहार जानने-समझने के लिए, शिवेतरक्षतये- अनिष्ट निवारण के लिए, सद्यःपरिनिवृत्तये- परमानंद की सद्यः अनुभूति के लिए और कांतासंमिततयोपदेशयुजे- कांतासंमित उपदेश के लिए। अब इन प्रयोजनों की चर्चा हम उपन्यास के संदर्भ में करेंगे।

1.   यशसे - यश या कीर्ति के लिए :

किसी भी कलात्मक या रचनात्मक कृति के मूल में यश या कीर्ति की कामना तो रहती ही है। यह कामना प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न रूप में होती है, पर होती जरूर है। अंग्रेजी में कहा गया है – Fame is the last infirmity of noble minds अर्थात् कीर्ति की कामना बड़े से बड़े लोगों में भी पायी जाती है। वार एण्ड पीस’, ‘मादाम बोवरी’, ‘क्राइम एण्ड पनिशमेंट’, ‘ओल्ड मेन एण्ड द सी’, ‘प्राईम एण्ड प्रेज्युडाइसजैसी औपन्यासिक कृतियों के कारण ही क्रमशः लियो टाल्सटोय, फ्लाबर्ट, दोस्त्योवस्की, हेमिंग्वे, जेन आस्टिन जैसे लेखक-लेखिकाओं के नाम विश्वविख्यात हुए हैं। हिन्दी में प्रेमचंद, जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, रेणु, नागार्जुन, मटियानी, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, श्री लाल शुक्ल, डॉ. रज़ा आदि की जो साहित्यकार के रूप में ख्याति है क्या उनके उपन्यास लेखन के कारण नहीं है? प्रेमचंद को तो उपन्यास सम्राट का बिरूद मिला हुआ है। रूस में उनके गोदानकी नब्बे हजार प्रतियाँ बिक गई थीं। उनको भारत का गोर्की तक कहा गया है।1  कई बार ऐसा होता है कि लेखक के प्रथम उपन्यास से ही वह साहित्य जगत में छा जाता है। ‘सेवासदन’ के प्रकाशन के साथ ही प्रेमचंद का सिक्का गालिब हो गया था। हिन्दी उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद युग का प्रारंभ सेवासदनके प्रकाशन से ही माना जाता है। मैला आंचलके प्रकाशन के साथ ही रेणु हिन्दी उपन्यास-गगन के एक ज्योति नक्षत्र के रूप में चमकने लगे थे। ‘शेखर एक जीवनीके प्रकाशन ने हिन्दी उपन्यास जगत में तहलका मचा दिया था। वे दिन’ उपन्यास को हिन्दी उपन्यास का तीसरा मोड’ माना जाता है।2 राग दरबारीको व्यंग्य उपन्यास का प्रतिमान माना जाता है।3  इसी तरह अंधेरे बंद कमरे’, ‘पचपन खंभे लाल दिवारें’, ‘आधा गाँव’, ‘काला जल’, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘मछली मरी हुई’, ‘सारा आकाश’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, ‘आपका बंटी’, ‘चित्तकोबराआदि उपन्यास क्रमशः मोहन राकेश, उषा प्रियंवदा, डॉ. राही मासूम रज़ा, गुलशेरखान शानी, कृष्णा सोबती, राजकमल चौधरी, राजेन्द्र यादव, डॉ. धर्मवीर भारती, मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग आदि लेखक-लेखिकाओं की अक्षय कीर्ति का आधारस्तंभ हैं। यदि नोबेल प्राइज विजेतासाहित्यकारों पर एक दृष्टिपात करें तो सर्वाधिक नोबेल प्राइज उपन्यासकारों को ही मिले हैं।4  नोबेल प्राइज के मिलते ही लेखक विश्व विख्यात हो जाता है। बोरिस पास्तरनाक, हेमिंग्वे, कामू, सार्त्र, आइजाक सिंगर, मार्कवेज़, डोरिस लैसिंग5 आदि इसके उदाहरण हैं। यही बात भारतीय ज्ञानपीठ के लिए कही जा सकती है।

2.   अर्थकृते - अर्थ प्राप्ति के लिए :

उपन्यास लेखन से अर्थ की प्राप्ति भी प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न रूप से होती है। प्रसिद्ध उपन्यासकार वाल्टर स्काट ने अपना कर्ज चुकाने के लिए ही वेवर्ली नोवेल्स’ लिखे थे।6 ऐसा कहा जाता है कि जब कर्ज हद से ज्यादा हो जाता था और लेनदारों के तगादे बढ़ जाते थे तब दोस्त्योवस्की लिखने बैठते थे। कृष्ण चंदर, प्रेमचंद, मटियानी, जैनेन्द्र आदि लेखक अपनी आजीविका उपन्यास लेखन से ही प्राप्त करते थे। प्रेमचंद ने अपने प्रारंभिक उपन्यास तो औने-पौने दाम में बेच दिये थे परंतु सरस्वती प्रेस की स्थापना के पश्चात् उनके उपन्यास उनकी प्रेस से छपे जिसके कारण उनके परिवार को बाद में काफी आर्थिक सहायता मिली। प्रेमचंद को काफी संघर्ष करना पड़ा, किन्तु बाद में उनके परिवार को आर्थिक लाभ हुआ। जैनेन्द्र का पूर्वोदय प्रकाशन इसका एक उदाहरण है। पूर्वोदय की स्थापना जैनेन्द्र की कमाई से ही हुई है। सम्प्रति उनके पुत्र इससे लाभान्वित हो रहे हैं। डॉ. राही मासूम रजा को आधा गाँव’ से जो पारिश्रमिक मिला था,7  उसे यदि उसके रचनाकाल में विभक्त किया जाए तो एक दिन के कुछेक आने बैठते हैं, परंतु उसके कारण उनको जो ख्याति मिली उससे बाद में उनको अर्थ लाभ हुआ है। लेखक को पारिश्रमिक (रोयल्टी) और एवोर्ड के रूप में जो रकम मिलती है उससे भी वे लाभान्वित होते हैं। योरोप-अमरीका में तो उपन्यासकारों को अच्छी खासी कमाई हो जाती है, भारतीय लेखक इस दृष्टि से कुछ घाटे में रहते हैं।

3.    व्यवहारविदे- व्यवहार जानने-समझने के लिए :

यह प्रयोजन लेखक पाठक दोनों के लिए है। उपन्यास के तत्वों में एक परिवेश या वातावरण है। श्रेष्ठ उपन्यास की रचना उसके यथार्थ-परिवेश निर्माण पर आधारित है। उपन्यास में जिस समाज का वर्णन किया जाता है उसके लोक-व्यवहार, रीति- रिवाजों, मान्यताओं, विश्वासों-अंधविश्वासों के यथार्थ चित्रण के लिए लेखक को स्वयं खूब जद्दोजहद करनी पड़ती है। उपन्यास की एक परिभाषा है- ‘A Novel is in its broadest definition a personal, a direct impression of life.8 उपन्यास में लेखक समाज का जो अनुभव निरूपित करता है वह प्रत्यक्ष और वैयक्तिक होता है। पढ़ा हुआ या सुना-सुनाया हुआ नहीं। ऐसा कहा जाता है कि सागर, लहरें और मनुष्य’ (उदयशंकर भट्ट) लिखने से पूर्व उसका लेखक मुंबई के मछुआरों की बरसोवा बस्ती में कुछ समय जाकर रहे थे। देशकाल या परिवेश के यथार्थ निर्माण के लिए लेखक को कई बार अनुसंधान की प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ता है। ‘मादाम बोवरीका लेखक अपने मित्र की स्मशान-यात्रा में जाते समय भी सोचता है कि शायद मुझे मेरी बोवरीके लिए कुछ मिल जाए।9  प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा लिखने से पूर्व अपने विषय के संबंध में खूब छान-बीन करते थे। इस प्रकार उपन्यास लेखन में स्वयं लेखक का व्यवहार- ज्ञान तो पक्का होता ही है, परंतु पाठक भी उससे लाभान्वित होता है। झवेरचंद मेघाणी के उपन्यासों से हम काठियावाड़ (सौराष्ट्र), पन्नालाल पटेल के उपन्यासों से उत्तर गुजरात, नागार्जुन - रेणु से बिहार, बंकिम-शरद-टैगोर आदि के उपन्यासों से बंगाल, प्रेमचंद के उपन्यासों से उत्तर प्रदेश, राजेन्द्र अवस्थी (जंगल के फूल के लेखक) से आदिवासी समाज, प्रभा खेतान से मारवाडी समाज की पहचान, मैत्रेयी पुष्पा से बुंदेलखंड का ग्रामीण समाज; राही मासूम रज़ा, शानी, असगर वजाहत, मेहरुनिस्सा परवेज़, नासिरा शर्मा आदि के उपन्यासों से मुस्लिम समाज के रीति-रिवाज और उनकी बारीकियों को बकायदा समझ सकते हैं। इस प्रकार उपन्यास एक छोटा-सा जेबीथियेटर भी है।

4.   शिवेतरक्षतये - अनिष्ट निवारण के लिए :

हमारे आलोचना-ग्रंथों में काव्य के इस प्रयोजन की चर्चा कवि या लेखक के अपने वैयक्तिक अनिष्ट या कष्ट निवारण के संदर्भ में की गई है। परंतु उपन्यास के संदर्भ में जब हम विचार करेंगे, विशेषतः सामाजिक समस्यामूलक उपन्यासों के संदर्भ में तो यह अनिष्ट निवारण की प्रक्रिया समग्र समाज या जाति को स्पर्श करेगी। हमारे प्रेमचंदकाल के लेखकों ने तत्कालीन सामाजिक दूषणों के खिलाफ मानो एक जंग ही छेड़ दी थी। नारी अशिक्षा, विधवा-विवाह-निषेध, दहेजप्रथा, अस्पृश्यता, बेमेल विवाह, शिशु विवाह, वृद्ध विवाह जैसे अनेक दूषण हमारे समाज में सदियों से घर करके बैठे थे। प्रेमचंद तथा प्रेमचंद-स्कूल के उपन्यासकारों ने इन सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए उपन्यास से हथियार का काम लिया है

5.   सद्यः परिनिवृत्तये - परमानंद की सद्यः अनुभूति :

आनंद की प्राप्ति तो प्रत्येक कला-रूप का मूल प्रयोजन होता है। उपन्यास के पठन से आनंद की प्राप्ति होती है, यह तो जगजाहिर-सी बात है। यदि छात्र पुस्तकालयों को छोड़कर अन्य सार्वजनिक पुस्तकालयों का सर्वेक्षण किया जाए तो ज्ञात होगा कि साहित्य जो पढ़ा जाता है उसमें उपन्यास का क्रम सर्वोपरि होगा। आनंद न आता या रस न पड़ता तो लेखक चार सौ पाँच सौ पृष्ठों के उपन्यास क्यों लिखते और पाठक उनको क्यों पढ़ता? राजेन्द्र यादव ने मटियानी के उपन्यास आकाश कितना अनंत हैको एक ही बैठक में पढ़ डाला था। ऐसा तभी संभव होता है जब उसमें आनंद आता हो। ऐसा कहा जाता है कि चंद्रकांताऔर चंद्रकांता संततिको पढ़ने के लिए कई गैर हिन्दीभाषी लोगों ने उस जमाने में हिन्दी भाषा को सीखा था।10 इसमें रुचिभेद को पूरा अवकाश है। कुछ लोग सस्ते बाजारू प्रकार के उपन्यास पढ़ते हैं। प्रायः यात्रा करते समय इस प्रकार के लोग मिल जाते हैं जो यात्रा की बोरियत से बचने के लिए प्रायः जासूसी प्रकार के उपन्यास पढ़ते नज़र आते हैं। परिष्कृत और साहित्यिक रुचिवाले स्तरीय, गंभीर और साहित्यिक प्रकार के उपन्यास पढ़ते हैं। अपने समय में प्रेमचंद ने पाठकों की रूचि में परिवर्तन लाने का भगीरथ कार्य किया था। डॉ. रामविलास शर्मा इस संदर्भ में लिखते हैं- चंद्रकांताऔर तिलिस्म होशरुबा’ के पढ़नेवाले लाखों थे । प्रेमचंद ने इन लाखों पाठकों को सेवासदनका पाठक बनाया। यह उनका युगांतकारी काम था। प्रेमचंद ने चंद्रकांता के पाठकों को अपनी ओर खींचा, ‘चंद्रकांतामें अरुचि पैदा की, जनरुचि के लिए उन्होंने नये मानदंड़ कायम किये।”11 साहित्यिक उपन्यासों के पाठकों में भी हमें दो कोटियाँ मिलती हैं- शिल्प, कला, नवीन भाषाभिव्यंजना, उपन्यास में काव्य का सा आनंद उठाने वालों को वे दिन’, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘मछली मरी हुई’, ‘नदी के द्वीप जैसे उपन्यास रुचिकर लग सकते हैं; तो उपन्यासों में सामाजिक सरोकारों से संबंध रखनेवालों को गोदान’, ‘झूठा सच’, मुर्दाघर’, ‘जिंदगीनामा’, ‘इदन्नमम्जैसे उपन्यास अच्छे लग सकते हैं।

6.   कान्तासंमिततयोपदेशयुजे - कान्ता के-से उपदेश के लिए :

हमारे यहाँ तीन प्रकार के उपदेश माने गये हैं- प्रभुसंमित, सुहृदसंमित और कांतासंमित। प्रथम में आज्ञा, दूसरे में सलाह सूचन और तीसरे में प्रेम से किसी बात को समझाने का संकेत है। कान्ता, पत्नी या प्रियतमा कोई बात सीधे नहीं कहती। वह उसके लिए समा बाँधती है और अपनी बात को धीरे से सरका देती है कि सामनेवाले से ना कहते नहीं बनता। एक शेर स्मृति में लहरा रहा है- बस यूँ ही कहा था जरा तुमने, बात तेरी सदा मनमानी हुई।’12  तो यह है कान्तासंमित उपदेश। साहित्य में प्रायः प्रश्न उठता रहता है कि किसी भी रचना में कितना उपदेश रह सकता है? प्रेमचंद पर प्रायः आरोप लगते रहे हैं कि वे उपन्यासों में कई बार उपदेशक बन जाते हैं। तो इसका जवाब यही है कि उपदेश इस प्रकार दिया जाए कि उसे सुननेवाले-पढ़नेवाले के हृदय में सीधे उतर जाय और बिहारी के नावक के तीरकी भाँति गंभीर घाव भी करे। यहाँ स्थानाभाव के कारण कई मुद्दे अचर्चित भी रह गये हैं यह तो एक तरह से एक बीज-लेख’ है। कोई चाहे तो इन्हीं बिंदुओं को विस्तार देकर समूचा शोध प्रबंध भी कर सकता है।

संदर्भ

१. दृष्टव्यः प्रेमचंद और गोर्की, सं. शचिरानी गुर्टू

२. हिन्दी उपन्यासः डॉ. इन्द्रनाथ मदान

३. चिंतनिका, डॉ. पारूकांत देसाई, पृ. ९२

४. दृष्टव्यः नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार, ठाकुर राजबहादुर सिंह

५. सन् २००७ की नोबेल विजेता, ब्रिटिश लेखिका डोरिस लैसिंग: चिल्ड्रन ऑफ वायोलन्स की लेखिका

६. समीक्षायणः डॉ. पारूकांत देसाई, पृ.७७

७. वही, पृ. ७५

८.उद्धृत डॉ. पारूकांत देसाई, समीक्षायण, पृ. ११५

९. हिन्दी उपन्यास पर पाश्चात्य प्रभाव, डॉ. भारतभूषण अग्रवाल, पृ.५६

१०. दृष्टव्यः हिन्दी उपन्यास साहित्य की विकास परंपरा में साठोत्तरी उपन्यास, डॉ. पारूकांत देसाई, पृ. ७१

११. प्रेमचंद और उनका युग, डॉ. रामविलास शर्मा, पृ. ३१

१२. सूखे सेमल के वृन्तों पर, डॉ. पारूकांत देसाई, पृ. ८९

 



डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर, सारगर्भित आलेख, हार्दिक बधाई 💐

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  2. सारगर्भित , ज्ञानवर्धक आलेख। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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  3. डॉ सुधा गुप्ता जी की स्मृति में उनको समर्पित श्रेष्ठ रचनाओं से सुसज्जित एक उत्कृष्ट अंक।डॉ पूर्वा शर्मा, उनके सहयोगी एवं सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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