जिन्दगी
बड़ा सच
डॉ.
वरुण कुमार
अस्पताल
का गमगीन माहौल। सभी के चेहरे बुझे हुए। मृत्यु की घटना के ऩजदीक में होने का
अनुभव भी कितना अवसन्नकारी होता है। डेड बॉडी
अस्पताल के नियमानुसार तीन कि चार घंटे बाद मिलेगी। तबतक लोग प्रतीक्षा कर रहे
हैं। लेकिन हर कोई दुःख से नहीं, माहौल के असर से या सामाजिक शिष्टाचारवश भी मुँह
लटकाए है। लोग लोकाचारवश भी “जिंदगी का कोई भरोसा नहीं”,
“सब भगवान की मरजी है”, “काल के आगे किसी की
नहीं चलती” जैसी रुटीन बातें कर रहे हैं।
मगर
क्या सचमुच ऐसा है? सचमुच क्या “जिंदगी का कोई भरोसा नहीं?”, “सब भगवान की मरजी है?”
“काल के आगे किसी की नहीं चलती?”
उसका
मोबाइल थरथराता है, वाइब्रेट मोड
में है। ‘उस’ का एसएमएस आया
है, “क्या हुआ? आर यू ओके?” उसे थोड़ी वितृष्णा हुई। सीधे फोन पर बात नहीं करेगी, मगर चिंता भी दिखाना चाहती है। मगर मोह का तंतु इतना कमजोर नहीं कि मौत का
वातावरण उसे फिलवक्त भी तोड़ सके। डर है तो बस लोकाचार का। लोग देखेंगे तो
क्या समझेंगे? कि वह इस माहौल में भी ‘इश्क लड़ा रहा है?’ उसने संदेश भेज दिया “आय एम ओके। ऐट हॉस्पिटल विद अदर कलीग्स। वेटिंग फॉर रिलीज ऑफ दी बॉडी।”
(वह दूसरे सहकर्मियों के साथ अस्पताल में है। लाश के छूटने का इंतजार कर रहा है।)
वह अपनी पत्नी की तरफ से सतर्क है। सोच रहा है, बड़ी
सजग है, मोबाइल में टाइप करते देख संदेह न करे। उसने
मोबाइल को वाइब्रेट मोड में उसी के डर से किया हुआ है।
इतना
हँसता खेलता परिवार। पत्नी हद दर्जे की शौकीन। पति की बीमारी के दौरान भी
सजती-सँवरती रही। कल्चरल प्रोग्रामों में, क्लब के फंक्शनों में जाती रही। मातम मनाना उसे आता ही नहीं था। जिंदगी और
उत्साह से भरपूर। अन्य स्त्रियाँ आश्चर्य करतीं या मुँह बिचकातीं, “कैसी औरत है, पति का कोई गम नही? उधर पति बीमार है और यह मस्ती मना रही है।” पति उसके विपरीत शांत स्वभाव
का, मगर सदा मुस्कुराता रहता। पत्नी को खूब ’पैम्पर’ करके रखा था। कलकत्ता तबादला होकर आने
से पहले किसी तरह का कोई मामला ही नहीं था। सबकुछ नॉर्मल। यहाँ आने के बाद उसे
संदेह हुआ कि पाइल्स है। होमियोपैथी दवा करवाई, फिर
एलोपैथी भी। फायदा नहीं हुआ तो ससुर ने लखनऊ में दिखलाया। डॉक्टर को गड़बड़ लगी, उसकी कोलोनोस्कोपी कराई और तब उसने मौत का भयावह पंजा सामने खड़ा पाया।
रेक्टल कैंसर। पुनः जाँच कराई। नतीजा वही।
लोग
सच ही कहते हैं मृत्यु अटल है। वही सबसे बडा सत्य है। सारा धर्म मृत्यु की
अनिवार्यता का चिंतन है। मध्यकाल के सारे कवि, क्या कबीर, क्या तुलसी, सभी मृत्यु को अंतिम, सबसे बड़ा सच मानते हैं।
अंतिम
तो है पर क्या सबसे बड़ा भी?
मोबाइल का एसएमएस एलर्ट बजता है। वह पूछ रही है, ”what happened, tell me.” वह क्या कहे। एसएमएस में इतना टाइप करना संभव नहीं।
देश
के सबसे बड़े कैंसर अस्पताल बंबई के चक्कर। दवाएँ, कीमोथेरेपी, रेडिएशन। गुदा का ऑपरेशन।
ट्यूमरग्रस्त कोशिकाओं को काटकर निकाल दिया गया और मलोत्सर्जन की वैकल्पिक
व्यवस्था कर दी गई। लगा कि ठीक हो गया है। एक असुविधा के साथ जिंदगी काटनी होगी पर
वह ’मैनेजेबुल’ है। चेहरे पर
हँसी और स्वास्थ्य की चमक लौट आई। किन्तु खुशी क्षणिक साबित हुई। कुछ महीनों बाद
कैंसर पास की दूसरी जगह उभर गया -- ’मेटास्टैसिस’!
दूसरे
दौर का कैंसर भयावह निकला। दर्द से जान निकल जाती। खिली खिली रहनेवाली पत्नी सामने
दिखती तो हँसता चेहरा लिए, मगर आँखों की
लाली बताती कि छिपकर रोई है। दुबली भी पड़ गई थी।
और
फिर “दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना!” आज अंतिम दवा हो गई। सारे कष्टों से
मुक्ति की। काल एक अलंघ्य विराट सत्य बनकर सबकी चेतना पर छाया है। मौत कितनी बड़ी
है। जिंदगी कितनी भी कमसिन, युवा हो, उसके आने में कोई रोक नहीं। जब चाहे उठा ले सकती है।
पर
क्या सचमुच ऐसा है? मोबाइल पर
एसएसएस का आदान-प्रदान जिंदगी और इच्छा से संचालित है। एक दूर बैठी औरत उसके बारे
में पूछ रही है, दिलचस्पी ले रही है। औरत-मर्द का
आकर्षण, नया जीवन रचने की आदिम प्रेरणा।
नेट
पर मिली थी। चैटिंग से दोस्ती का आरंभ। उसी शहर की रहनेवाली। उसके भी पति है, बच्चा है। पर पति से अलग किसी दूसरे पुरुष से जरा ‘स्पाइस अप’ करने के लिए नेट पर आई थी। दोनों
को चैटिंग सुखद और ‘प्रॉमिसिंग’ लगी थी। चैटिंग से आगे बढ़कर फोन पर वार्तालाप। धीरे-धीरे हिम्मत करके
दोनों ने अपने-अपने जीवनसाथियों से छिपकर मिल भी लिया था। उसकी सुंदरता ने उसे
मोहित कर लिया था और वह स्वयं भी उसपर अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व की छाप छोड़ने
में सफल रहा था।
लेकिन
उसके बाद जैसे एक सीमारेखा खिंच गई थी। चैटिंग, फोन वार्तालाप, और एक बार का मिलना, इससे आगे बढ़ने के लिए वह तैयार ही नहीं
होती। “तुम्हारा नाम विभा किसने रखा? विभा रोशनी को कहते हैं जो प्रकाशित होती है, फैलती
है। तुम तो बड़ी सिमटी, छिपी रहती हो। तुम्हारा
नाम निशा वगैरह कुछ होना चाहिए था।”
हालाँकि
वह स्वयं भी नहीं चाहता कि पत्नी से विश्वासघात करे लेकिन इतना डरा-डरा रहना उसे
पसंद नहीं। जरा खुलना भी चाहिए। विभा का संकोच उसे अखरता है। चैट में भी कुछ ‘चटपटी’ और बोल्ड बातें नहीं करती। नार्मल
के पर्दे के पीछे ही रहकर इच्छाओं को खोलने-छिपाने का खेल खेलती है। “अगली
मुलाकात कब होगी?” का उत्तर देती है, “हम मिले तो हैं?” फीजिकल होने तक के बारे में
पूछता है तो बोलती है क्या सिर्फ दोस्ती तक ही सीमित नहीं रह सकते?
दोस्ती!
नेट पर का छद्म परिचय। विभा भी क्या असली नाम होगा? इधर उसने भी तो उसे अपना असली नाम नहीं बताया है। किसी अवैध धंधे की तरह
सबकुछ छिपाकर किया हुआ। फोन पर जब आवाज सुनी तभी इत्मीनान हुआ कि औरत है और जब
मिला तभी उसके उम्र के बारे में यकीन कर पाया. नहीं तो वह कोई बुढ़िया भी हो सकती
थी।
तो
ऐसी जगह क्या करने आई है? दोस्त ऐसे नहीं
मिले क्या?
सब
कुछ आकाश में उड़ते बादल की तरह उडता-उड़ता, हल्का-फुल्का, जबकि सहकर्मी के सुखद-सुंदर जीवन पर
मृत्यु का प्रहार हथौड़े
जैसा ठोस है। मृत्यु का
साक्षी होने से बढ़कर कोई हिला देनेवाली घटना नहीं। किसी विशेष क्षण में पकड़ में आ
जानेवाले सत्य की तरह उसका साक्षात्कार होता है और सम्पूर्ण चेतना पर छा
जाता है। लेकिन उसके बाद? फिर रोज का जीवन तो वही ’जीवन है’ के भाव से चलता है,
न कि ’समाप्त हो जाएगा’ के भाव से। उसे लगता, मृत्यु को हर समय सच
मानकर चलना जीवन की उपेक्षा है, उसका मोल घटाना है।
अस्पताल
के भीतर से कोई संदेश आता है, प्रतीक्षारत
लोगों में हरकत होती है। लाश ‘हैण्ड ओवर’ की जा रही है। गाड़ी आती है। सफेद चादर में लिपटी पथरायी काया बाहर आती है
और श्मशान ले जानेवाली गाड़ी पर लादी जाती है। उसपर फूलों की मोटे मोटे गोल चक्कों
की सजावट। मृत्यु कितनी भी बड़ी हो, सम्मान तो जीवन को
ही दिया जाता है। मृतक को आदर देकर उस व्यक्ति का सम्मान करते हैं जो जीवित था, उसका नहीं जो निर्जीव होकर काठ की तरह पड़ा हुआ है।
‘राम नाम सत्य है’ का कोरस गूँजता है, गाड़ी चल पड़ती है।
वह
पूछ रही है क्या हो रहा है। उसे थोड़ी खीझ होती है। जब कुछ मिलना-जुलना ही नहीं, फोन पर बात भी नहीं करना
तो इतनी चिंता किसलिए दिखा रही है। वह मेसेज कर देता है कि वह अन्य लोगों के साथ
श्मशान घाट जा रहा है।
उसका
जवाबी मेसेज आता है और वह चौंक पड़ता है। “I want to see you.” ऐसे वक्त में मिलना चाहती है! गाड़ी में साथ
बैठे लोगों को देखता है। कुछ लोग दफ्तर और घर की भी बातें करने लगे हैं। उसे लगता
है कहीं वह उसे जाँच तो नहीं रही है कि वह कितना ‘गिर’ सकता है। वह अंदाजा लगाता है इस समय वह खाली होगी। बच्ची स्कूल में होगी।
उसका पति तो खैर महीने भर से बाहर दौरे पर है। क्या करे वह? एक सहकर्मी की मृत्यु की संवेदना और अंतिम यात्रा में आया है। यह अवैध का
रोमांस कितना गलत होगा।
पर
जिंदगी नैतिक-अनैतिक का कोई तर्क मानती भी है? गाड़ी में सबके साथ सटकर बैठे हुए उसे मेसेज टाइप करने में असुविधा हो रही
है। लोग देख न लें। क्या लिखे वह?
उसे
याद आती है मृतक की पत्नी की। अभी वह रो रही है। मगर आम औरतों की तरह चिघाड़ें
मारकर नहीं। चुपचाप। शायद मौत की प्रतीक्षा ने उसे मानसिक रूप से इस सदमे के लिए
तैयार कर दिया है।
सदमा? वह सदमे में है भी या बस गहरे दुःख में। अभी भी रंगीन कपड़ों टी-शर्ट और
जीन्स में है। उसके पति ने कहा था मेरे बाद गम न मनाना। बच्चों को वैसे ही खुश
रखना। वह स्वयं भी गम मनाती, कम से कम बाहर से, नहीं दिखती। उसे लगता है दोनों औरतों में एक तरह की समानता है - मौत या
जुदाई रहे तो रहे, जिंदा हैं तो जिन्दगी की खुशी ही मनाएँगे।
इनके लिए भी मौत नहीं, जिन्दगी ही बड़ी है। धर्म और दर्शन की तमाम जीवन की निस्सारता के उद्घोष के बावजूद मनुष्य व्यवहार में
तो जीवन को ही सत्य मानकर जीता है, नहीं तो मरने को ही
उद्यत न हो जाए?
फिर
भी, सत्य इतना मामूली नहीं होता कि इतने बाहर से ही दिख जाए। अगर जीवन को चलाए
रखने की पक्की चाबी हाथ में नहीं है, मृत्यु हर पकड़ से
बाहर है तो सबसे बड़ी मृत्यु ही हुई न। मृत्यु का साक्षात जीते-जी तो हो नहीं
सकता। जो कुछ बोध मिलता है वह दूसरे की मृत्यु से ही, द्रष्टा
रूप में। और इस सत्य को बड़े-बड़े ऋषियों ने किसी गहरे एकांतिक आत्म-साक्षात्कार
के ही क्षणों में ही पकड़ा है।
“I
want to see you.” पंक्ति उसके दिमाग में घूम रही है। क्या करे? यह अचानक की पेशकश। वह हिसाब लगाता है - श्मशान घाट से वह मॉल कितनी दूर
है जहाँ वह उससे मिली थी। टैक्सी से पंद्रह मिनट
से ज्यादा नहीं लगेंगे।
“Where
at?” वह पूछता है। भेजते ही उसे लगता है कि अब वह अपनी आतुरता
प्रकट कर चुका है।
गाड़ी
चली जा रही है। हिचकोले खाती। ट्रैफिक संकेतों पर रुकती। यह दुनियाँ, जीवितों की दुनिया, कितनी जंजालपूर्ण है। साले,
मरने के बाद श्मशान जाने में भी रुकावटें। वह अपनी बात पर खुद ही
मुस्कुरा देता है। रास्ते में दुकानों और घरों के दरवाजे। अंदर जीवन की हलचल -
कहीं खरीद-फरोख्त की, कहीं अन्य कामों की। यह सारी
मानवीय सभ्यता जिंदगी की बुनियाद पर ही तो खड़ी है। जीवन की क्षणभंगुरता और मृत्यु
का सत्य तो जानवरों, कीड़ो-मकोड़ों के लिए भी है। लेकिन
धरती पर इतनी ऊँची सभ्यता का कर्ता सिर्फ मनुष्य़ है। उसकी जिंदगी को बाकी
प्राणियों की तरह मृत्यु के सामने रखकर बराबर कर देना मानव की विशिष्टता का
अवमूल्यन है।
मोबाइल
में ‘सेन्ट रिपोर्ट’ चेक करता है। एसएमएस तो चला
गया है। क्या सोच रही है? कहाँ मिलें, या फिर इस बारे में ही कि मिला जाए या नहीं? उत्साह में ‘मिलना चाहती हूँ’ का संदेश भेज दिया होगा। या सचमुच मुझे चेक ही
रही थी?
तभी
मोबाइल का परदा चमकता है। संदेश आया है – “सेम प्लेस।’’
उसके
कलेजे से एक खुशी की साँस निकलती है, लेकिन
साथ ही अपनी ’बेशर्मी’ के
प्रति धिक्कार भी मन में उठती है। एकदम से श्मशान पहुँचते ही निकल जाना अच्छा
लगेगा? लोग बोलेंगे, या
सोचेंगे, फिर आए किसलिए थे?
पत्नी
ने चलते वक्त पूछा था, वहाँ से तो सीधे
घर आओगे ना? या कि ऑफिस जाओगे? उसने ‘देखो कैसा सिचुएशन रहता है’ कहकर आने की समय सीमा खुली रखी थी। देर से जाएगा तो समझेगी, श्मशान घाट पर ही देर हुई है। उसे धोखा देना अच्छा लगेगा?
आदमी
भी अजीब है। हाँ भी चाहता है और ना भी।
द्वंद्व
में पड़ा वह सोचता है, इस वक्त मृत्यु
की गंभीरता को इनकार कर एक छिछले से रोमांच के पीछे पड़ना घटिया बात नहीं होगी? भले ही मृतक उसका करीबी नहीं था, सहकर्मी ही था, वह भी दूसरे विभाग का, वह
आया है उसी की संवेदना प्रकट करने के लिए। अब बहाना बनाकर किसी लड़की से छिपकर
मिलने जाना?
“एक घंटे में?” वह मोबाइल पर पूछता है। जानेवाला तो चला गया। अब खाली केवल विधि-विधान होने हैं। इसमें रहूँ न
रहूँ, क्या फर्क पड़ता है।
जल्दी
ही ‘ओके’ का उत्तर आ जाता है।
कुछ
भी हो, यह एक अच्छे चरित्र के आदमी की हरकत तो नहीं हो सकती, वह अपने बारे में सोचता है। लेकिन तब, शुरू से
इस तरह चैट की दोस्ती और छुपाकर मिल लेना ही कौन सी ऊँची हरकत थी।
लाश
उतारी जा रही है। वह सभी के साथ कोई मदद के लिए सामने तैयार खड़ा रहता है। किसी ने उसे काउंटर से श्राद्ध के जरूरी सामानों की खरीद के
लिए रसीद कटाने को कहा है। वह दौड़कर जाता है। काउंटर पर लाइन लगी है। मरने पर भी उसके पीछे जीवितों के लिए चैन कहाँ।
मिट्टी
की हाँड़ी, जौ के दाने, गाय का घी, अगरबत्तियाँ, दूब, गोबर, लाल
कपड़ा न जाने क्या क्या... हिन्दुओं ने मरने के बाद भी कितना प्रपंच रच रखा है।
शमशान
घाट का पचपच भींगा अव्यवस्थित माहौल। बहुत सारी व्यवस्था के बावजूद अंदर बेतरतीबी।
कोई खड़े-खड़े थककर जंगले पर बैठ गया है, कोई जमीन पर। कोई रो रहा है, कोई सबसे विरक्त
बातें करने में व्यस्त। इधर पंडितों से दक्षिणा का
मोल-भाव चल रहा है । इस सारे प्रकरण में कौन सी गरिमा
है? इससे तो बेहतर है किसी स्वच्छ माहौल में किसी सधे, सँवरे व्यक्ति से मुलाकात। ‘उस’ की सुंदर काजलरंजित आँखें, सुंदर भौंहें, गोरे सजीले मुख पर स्मित हास्य,
बालों की क्यारी में पतली सी सिंदूर रेखा, प्रथम संबोधन में ‘हाय’ की मधुर आवाज उसकी स्मृति में तैर जाती हैं।
उसने
घड़ी देखी। अभी आधा घंटा है। पंद्रह मिनट अभी और यहाँ रह सकता है। शवदाह की बारी
आने में अभी एक घंटे से कम न लगेगा। मृतक के पिता, भाई, चाचा आदि व्यस्त हैं। उनके चेहरों पर गम से
ज्यादा फिक्र और विरक्ति के से भाव। मृतक कितना भी अपना हो, उसके
चले जाने के बाद उसकी देह को निपटाने का बोझ तो होगा ही। मौत को कबूल कर लेने के
सिवा रास्ता क्या है?
अगर
निकलने में थोड़ी देर भी हो तो क्या होगा। थोड़ा इंतजार ही कर लेगी। सहकर्मियों से
यूँ ही कुछ देर बातचीत करता है।
पत्नी
का फोन आया है। वह भी घऱ पहुँच गई है। यहाँ के बारे में पूछ रही है। वह उसे यहाँ की स्थिति से अवगत करा देता
है। कब आओगे पूछ रही है। ‘देर लगेगी’ वह कहता है।
‘सीधे घर आना, इधर-उधर मत जाना।’ वह चौंकता है, इसे कुछ भनक तो नहीं लग गई?
अपना
दुहारापन उसे भारी लगता है। उससे मिलकर मन ही मन प्रफुल्लित घर जाएगा,
लेकिन ऊपर-ऊपर पत्नी के सामने मुँह लटकाए रहेगा, ताकि वह समझे कि श्मशान से आ रहा हूँ। कैसा धोखेबाज है वह!
इतना
बोझ मन पर किसलिए? इसीलिए न कि वह
शवयात्रा के बहाने किसी ऐसे-वैसे काम के लिए नहीं, बल्कि एक
औरत से मिलने जाने के लिए जा रहा है। कोई और काम होता तो इतना ज्यादा अपराध-बोध न
होता। प्रेम, वफादारी, सब इच्छाओं पर
लगी बेड़ियाँ हैं। मरने पर असत आचरण साथ नहीं जाता, तो सत
आचरण ही कौन साथ जाता है। जानेवाला सब सही-गलत से शून्य होकर जाता है। मृत्यु एक
बड़ा शून्य है - न उसमें अच्छे कामों का प्लस है, न बुरे
कामों का माइनस।
मृतक
के प्रति मेरी संवेदनाएँ, लेकिन मुझे जाना तो
उसके पास है जो जिन्दा, हाड़-मांस की मनुष्य है।
समय
हो रहा है। वह जाने की अधीरता में है। अपने साथियों को उसने कह रखा है,
एक काम है, निकलना पड़ेगा। वह मौत के परिसर
में जीवन की इच्छा का पोषण करेगा, भले ही चुपचाप
रहकर, भले ही अनैतिक होकर।
“ठीक है, मैं अब निकलता हूँ। बाय ।”
‘बाय...’
वह
बाहर निकल जाता है।
“टैक्सी…”
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डॉ. वरुण कुमार
निदेशक (राजभाषा)
रेल मंत्रालय, नई दिल्ली
यथार्थ का सुंदर चित्रण।अच्छी कहानी सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कहानी। बधाई।
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