प्रकृति
रूपल उपाध्याय
पल्लवित है
सृष्टि सारी,
वृष्टि का ज़रा
ध्यान रख।
परिनिष्ठ है, सम्पूर्ण है बस,
दृष्टि में
सम्मान रख।।
नतमस्त हो इस
विशद भूगोल पर,
अपना अस्तित्व
ज़रा सँवार ले,
अन्यथा सर्वनाश
का परिणाम यों स्वीकार ले।।
देवतुल्य प्रकृति
की अब न कर क्षति,
वक्त है संभल जा
और न भ्रष्ट कर मति।
स्निग्ध से संचित
किए,
इस रिश्ते का
ख्याल रख,
हम प्रकृति के, प्रकृति है हमारी,
इस नेह का ज़रा
मान रख।।
कर विकास है पथ
प्रशस्त,
कर न अब यूँ
प्रकृति को ध्वस्त।
विकास भी क्या
ऐसा जो बने सर्वनाश,
आहतमुक्त समाज की
अब हमें है आश ।।
हे मनुष्य! उस
मनु के अनुभव की ज़रा थाह ले,
जलप्लावन की उस
घटना को अब न दोहराव दे।
इतिहास खोज कर
देखेंगे तो ,
मिलेगा यही तथ्य,
प्रकृति मानव
अभिन्न हैं,
केवल यही है सत्य
।।
जब-जब हुआ ह्रास
प्रकृति का,
मनुज जीवन भी कहाँ
टिका,
बना वसुधैव
कुटुंबकम् जब बाज़ारवाद,
लोभ की हाट में
तब बेतहाशा बिका।
वसुंधरा की
सुंदरता को और न करे ध्वस्त,
प्रकृति रक्षा
करने से ही बनेगा जीवन स्वस्थ ।।
रूपल उपाध्याय
हिंदी विभाग, कला संकाय,
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय,
बड़ौदा (गुजरात)
बहुत सुंदर भाव, साधुवाद।
जवाब देंहटाएंआपके अमूल्य नेह के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद 🙏।
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