साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
साहित्य का
समाजशास्त्र, साहित्य और समाज के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करने वाला शास्त्र है।
वस्तुतः साहित्य और समाज के अन्तर्सम्बधों से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि
दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है
और मनुष्य ही साहित्य की रचना करता है। इस प्रकार साहित्य और समाज के बीच एक
व्यक्ति होता है जो साहित्य से भी जुड़ता है और समाज से भी। सामाजिक ताने-बाने की
व्याख्या का अनुसंधान समाजशास्त्र के अन्तर्गत होता है इसीलिए मानवीय जीवन के
पहलुओं की व्याख्या इस शास्त्र के अन्तर्गत होती है। स्पष्ट है कि समाजशास्त्र
मानवीय सम्बन्धों के अन्तःसम्बन्धों की व्याख्या करता है और साहित्य इन सम्बन्धों
से पनपे विचारों को अपने अंदर समाहित करने का प्रयास करता है।
साहित्य और
समाज के अन्तःसंबंधों की व्याख्या के लिए मार्क्स की पंक्ति महत्वपूर्ण है कि ‘साहित्यिक रचना एक सामाजिक उपादान है’
अर्थात् साहित्य के विषयवस्तु इसी समाज से लिए जाते हैं।
साहित्य के समाजशास्त्र का आधार यह मानता है कि साहित्य का मुख्य सरोकार मनुष्य का
सामाजिक जगत होता है और रचनाकार की सामाजिक चेतना उसके कथानक, पात्रों के चयन,
प्रतीक, अलंकार और भाषा आदि के माध्यम से व्यक्त होती है ।
साहित्य के समाज
शास्त्र के संस्थापक की बात की जाए तो लगभग तेन को इसका संस्थापक माना जाता है
लेकिन फ्रांस में यह पहले से ही चर्चा में था। फ्रांसीसी महिला ‘मादम स्टेल’ की पुस्तक ‘सामाजिक संस्थाओं से साहित्य के सम्बंध का विचार (1800)
से इसकी चर्चा शुरू हुयी है। जिस समय ‘मादम स्टेल’ इस पर लेखन कार्य कर रही थीं तब वह नहीं जानती थीं कि वे
साहित्य के समाजशास्त्र की नींव रख रही हैं। ‘मादम स्टेल’ ने जर्मन दर्शन के आधार पर साहित्य को सामाजिक सम्बन्ध
(धर्म, सत्ता, कानून, परिवार) से जोड़ा और उसके प्रति आलोचनात्मक रही है।
साहित्य के
समाजशास्त्रीय अध्ययन को लेकर कई पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने अपने विचार दिए
हैं जिनमें लियो लावेथल, लूसिए, गो- ल्डमैन, रेमण्ड विलियम तथा मैनेजर पाण्डेय आदि महत्वपूर्ण है।
लावेथल मानते हैं कि, "साहित्य से युग विशेष के जीवन अनुभव का हमें पता चलता है
इसीलिए अच्छा साहित्य वही होता है जिसमें सामाजिक - ऐतिहासिक अनुभवों की गहरी
अभिव्यक्ति होती है और मानव जीवन की दशाओं के बारे में अन्तर्दृष्टि देने की
क्षमता होती है। ‘साहित्य और समाज के बीच के सम्बन्ध को समझने के लिए लावेथल
ने सामूहिक चेतना और चेतना के बीच संबन्ध को समझना जरूरी समझा।’
इसी प्रकार लूसिए-गोल्डमैन साहित्य और समाज के सम्बन्धों को
समझने के लिए विश्वदृष्टि से समानधर्मिता का अध्ययन करते हैं । इनके अनुसार ‘विश्वदृष्टि सामाजिक वर्ग के जीवन में निहित होती है लेकिन
वह दर्शन, कला और साहित्य के रूप में व्यक्त होती है।’
प्रो. मैनेजर पाण्डेय
गोल्डमैन द्वारा विकसित धारणा ‘समानधर्मिता की धारणा’
को साहित्य और समाज के सम्बंध को समझने के लिए उपयुक्त
मानते हैं। प्रो. पाण्डेय जी का मानना है कि,
‘समाज से साहित्य का संबंध
भावना को स्पष्ट करने के लिए अब तक जितनी मान्यताएँ सामने आयी हैं उनमें
समानधर्मिता की धारणा सबसे अधिक सुसंगत प्रतीत होती है।’
साहित्य का
समाजशास्त्र व्यापक सामाजिक प्रक्रिया के भीतर क्रियाशील सम्पूर्ण साहित्यिक
प्रक्रिया की गतियों और परिस्थितियों की व्याख्या करते हुए साहित्य के वास्तविक
सामाजिक स्वरूप की पहचान कराता है और उसमें साधारण पाठकों की दिलचस्पी जगाता है।
अर्थात् कहा जा सकता है कि साहित्य का समाजशास्त्र बनावटी रहस्यमयता का पर्दाफाश
करके साहित्य के सामाजिक रूप और अर्थ को उजागर करता है जिससे साधारण पाठक उसकी ओर
आकर्षित होता है। प्रो. मैनेजर पाण्डेय अपनी कृति ‘साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि’ में लिखते हैं कि
‘साहित्यिक समाजशास्त्र का लक्ष्य केवल कृति की व्याख्या नहीं है। यह काम दूसरी
आलोचना पद्धतियों में भी होता है। उसका लक्ष्य सामाजिक अस्मिता की व्याख्या है।’
साहित्य के
समाजशास्त्र की मुख्य प्रवृत्ति समग्रतावादी होती है। वह साहित्य के सभी रूपों और
पक्षों को समग्रता से समझने पर जोर देता है। प्रो. मैनेजर पाण्डेय
साहित्यिक प्रक्रिया के तीन पक्षों की बात करते हैं – लेखक,
रचना और पाठक। साहित्य विश्लेषण की अधिकांश दृष्टियों के
केन्द्र में इन तीनों में से कोई एक रहता है। साहित्य के समाजशास्त्र में इन तीनों
का विवेचन होता है और इनके आपसी सम्बन्धों का भी। साहित्य के समाजशास्त्र की
मुख्यतः दो धाराएँ होती हैं, जिसकी भी चर्चा प्रो. मैनेजर पाण्डेय ही करते हैं। ये दो
धाराएँ – मीमांसापरक और अनुभवतावादी हैं। इसमें एक में साहित्य के सामाजिक महत्व
के अर्थ का विश्लेषण होता है और दूसरी धारा में साहित्य के अस्तित्व का। पहली धारा
साहित्य में समाज की अभिव्यक्ति की खोज करती है और दूसरी समाज में साहित्य की
वास्तविक स्थिति की पहचान। पहली को प्रायः साहित्यिक समाजशास्त्र या समाजशास्त्रीय
आलोचना कहा जाता है, और दूसरी को समाजशास्त्र जिसे प्रो. पाण्डेय अपनी पुस्तक
में विस्तार से व्याख्यायित करते हैं।
साहित्य के
समाजशास्त्र के स्वरूप को देखते हुए यह पाते हैं कि इसमें अनेकता है। इसका कारण
हैं - दृष्टियों और पद्धतियों में अंतर होना । ऊपरी तौर पर समाजशास्त्र एक अनुशासन
लगाता है लेकिन वास्तविकता यह है इसके भीतर अनेक दृष्टियाँ और पद्धतियाँ हैं,
जिसमें साहित्य का समाजशास्त्र जिस समाजशास्त्रीय पद्धति को
अपनाता है उसके अनुरूप उसका स्वरूप भी बनता है। इसीलिए जितने प्रकार के
समाजशास्त्र होते हैं उतने प्रकार के साहित्य के समाजशास्त्र भी दिखाई देते हैं।
साहित्य के
समाजशास्त्र को लेकर कई विवाद भी रहे हैं। एलेन सेगल
ने ‘ब्रिटिश जनरल ऑफ सोसियोलॉजी’
(1971) में यह प्रश्न
उठाया कि, ‘क्या साहित्य का समाजशास्त्र सम्भव है।... अगर संभव है तो
साहित्यिक कृति को समझने में इसका कौन सा वह अतिरिक्त और विशिष्ट योगदान होगा जो
एक साहित्य का आलोचक नहीं दे सकता।’ इसके उत्तर में आर. ए. संजीव
लिखते हैं कि ‘साहित्य के समाजशास्त्र का सीधा अर्थ है साहित्य का
समाजशास्त्रीय अध्ययन, सामाजिक जीवन अथवा सामाजिक सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में
साहित्य का अध्ययन, सामाजिक क्रिया के रूप में साहित्य के विविध पक्षों का
आख्यान अथवा साहित्य और सामाजिक विधान के परस्पर सम्बन्ध तथा प्रभाव-प्रतिक्रिया
का अध्ययन।’ संजीव ने रचनाकार, रचना और पाठक के बीच के सम्बन्धों को लेकर साहित्य के
समाजशास्त्रीय अध्ययन को समझाने का प्रयास किया।
अंततः हम कह
सकते हैं कि साहित्य के समाजशास्त्र के अन्तर्गत विकल्प की अनेक संभावनाएँ हैं।
समाजशास्त्रीय अध्ययन से साहित्य के समाजशास्त्र को जोड़कर साहित्य और सामाजिक
पक्षों को जाँचा परखा जा सकता है। इसीलिए यह सही है कि साहित्य के समाजशास्त्र का
लक्ष्य रचना की व्याख्या नहीं बल्कि उसकी सामाजिक अस्मिता की पहचान है।
संदर्भ
1.
पाण्डेय, मैनेजर (2016). साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि,
पंचकूला हरियाणा, आधार प्रकाशन।
2.
पाण्डेय, मैनेजर - साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका।
3.
मिश्र, डॉ० राजेन्द्र, साहित्य की वैचारिक भूमिका, नई दिल्ली, तक्षशिला प्रकाशन।
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
शोधार्थी एवं स्वतंत्र रचनाकार
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
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