हिंदू धर्मग्रंथों की मूल संवेदना
डॉ. राज बहादुर गौतम
भूमिका:- ज्यादातर हिन्दुओं के पास अपने ही धर्मग्रंथ को पढ़ने के लिए समय नहीं है।
वेद,
उपनिषद पढ़ना तो दूर, हम सुप्रसिद्ध गीता तक को नहीं पढ़ते हैं जबकि गीता को केवल
मेरे अनुसार एक से दो घंटे में पढ़ा जा सकता है। हालाँकि कई जगह हम सभी भागवत
पुराण सुनने और रामायण का अखंड पाठ करने के लिए अवश्य ही समय निकाल लेते हैं और
कभी कभी घर में सत्यनारायण की कथा का आयोजन कर लेते हैं। लेकिन हमको यह जानकारी
होनी आवश्यक है कि पुराण, रामायण तथा महाभारत हिन्दुओं के धर्मग्रंथ नहीं हैं बल्की
धर्मग्रंथ तो हमारे वेद ही हैं। जिनका ज्ञान अब केवल ऋषि मुनियों एवं पंडित
विद्वानों को ही है। इनसे संबंधित जानकारी
प्राप्त करने से पूर्व धर्म, ग्रंथ एवं शास्त्र की ओर थोड़ी दृष्टि केंद्रित करना हमारे
लिए अनिवार्य है।
धर्म:- “धर्म का तात्पर्य मानव समाज से परे अलौकिक शक्ति पर विश्वास से है,
जिसमें पवित्रता, भक्ति, श्रद्धा, भय आदि तत्व सम्मिलित होते हैं। जिन्हें हम साधारण शब्दों
में धर्म कहते हैं।”1
परिभाषा:- डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार- “धर्म की अवधारणा के अंतर्गत हिंदू उन स्वरूपों और
प्रतिक्रियाओं को कहते हैं जो मानव जीवन का निर्माण करती है और उसको धारण करती है।”2
दुर्खीम के अनुसार- “धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित आचरणों की समग्रता है जो
इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदायों के रूप में संयुक्त करती है।”3
शास्त्र :- “व्यापक अर्थों में किसी विशिष्ट विषय या पदार्थसमूह से सम्बन्धित वह समस्त
ज्ञान जो ठीक क्रम से संग्रह करके रखा गया हो, शास्त्र कहलाता है।”4
परिभाषा:- “शास्ति च त्रायते च। शिष्यते अनेन।”5
शास्त्रों को दो भागों में बाँटा गया है- श्रुति एवं
स्मृति। श्रुति के अंतर्गत धर्मग्रंथ वेद समाहित हैं और स्मृति के अंतर्गत इतिहास
और वेदों की व्याख्या की पुस्तकें पुराण, महाभारत, रामायण, स्मृतियाँ आदि सम्मिलित हैं। हिन्दुओं के धर्मग्रंथ तो वेद
ही माने जाते हैं। वेदों का सार उपनिषद को कहा जाता है तथा उपनिषदों का सार गीता
है। आओ जानते हैं कि उक्त ग्रंथों में क्या- क्या समाहित है।
हमारे वेदों में क्या है?
वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, संस्कार, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित संपूर्ण ज्ञान
विद्यमान है। वेद- चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद का आयुर्वेद,
यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्व वेद और अथर्ववेद का स्थापत्य वेद ये
क्रमश: चारों वेदों के उपवेद भी वेदों की शाखा में गिनवाए गए हैं।
ऋग्वेद :- ऋक अर्थात् स्थिति एवं ज्ञान। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के
मंत्रों के साथ- साथ ज्ञान अर्जन के कई तत्व है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की
प्रार्थना, स्तुतियाँ तथा देवलोक में उनकी स्थिति का संपूर्ण वर्णन है। इसमें जल-चिकित्सा,
वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी
हमे प्राप्त होती है।
यजुर्वेद :- ‘यजु’ अर्थात् गतिशील आकाश एवं कर्म। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियाँ
और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्रों का यहाँ उच्चारण हैं। साथ ही यज्ञ के
अलावा तत्वज्ञान का वर्णन भी है। तत्वज्ञान का अभिप्राय है रहस्यमयी ज्ञान।
अर्थात् ब्रम्हांड, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। इस वेद की दो शाखाएँ मानी गई
हैं- शुक्ल और कृष्ण।
सामवेद :- साम का अर्थ रूपांतरण तथा संगीत। सौम्यता तथा उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की
ऋचाओं का संगीतमय रूप है। इसमें सविता, अग्नि और इन्द्र देवताओं के बारे में हमें जिक्र मिलता है।
इसी से शास्त्रीय संगीत और नृत्य का जिक्र भी हमें प्राप्त होता है। इस वेद को
संगीत शास्त्र का मूल बिंदु माना जाता है। इसमें संगीत के विज्ञान और मनोविज्ञान
का वर्णन भी हमें मिलता है।
अथर्ववेद :- थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ है अकंपन। इस वेद में रहस्यमयी
विद्याओं,
जड़ी-बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र हमे प्राप्त होता है।
इसमें भारतीय परंपरा और ज्योतिष का ज्ञान भी हमें मिलता है।
उपनिषद क्या है?
उपनिषद वेदों का सार मात्र है। सार अर्थात् निचोड़ या संक्षिप्त विवरण। उपनिषद
भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूल आधार हैं, ये भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। ईश्वर है या नहीं,
आत्मा है या नहीं, ब्रह्मांड कैसा है आदि सभी गंभीर,
तत्वज्ञान, योग, ध्यान, समाधि, मोक्ष आदि की बातें उपनिषद में मिलेंगी। हिंदुस्तान के
उपनिषदों को प्रत्येक हिन्दू को अवश्य पढ़ना चाहिए। इन्हें पढ़ने से ईश्वर,
आत्मा, मोक्ष और जगत के बारे में सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।
वेदों के अंतिम भाग को ‘वेदांत’ कहते है। वेदांतों को ही उपनिषद कहा जाता हैं। उपनिषद में
तत्वज्ञान की चर्चा है। उपनिषदों की संख्या वैसे तो 108 है, परंतु मुख्य ये 12 ही माने गए हैं, जैसे- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छांदोग्य, 10. बृहदारण्यक, 11. कौषीतकि और 12. श्वेताश्वतर।
षड्दर्शन क्या है?
वेद से निकला है षड्दर्शन:- वेद और उपनिषद को पढ़कर ही छः
ऋषियों ने अपना दर्शन निर्मित किया है। जिसे भारत का षड्दर्शन कहा जाता हैं। दरअसल
यह वेद के ज्ञान का श्रेणीकरण है। ये गिनती में छः दर्शन
हैं- पहला न्याय, दूसरा वैशेषिक, तीसरा सांख्य, चौथा योग, पांचवां मीमांसा और छटा वेदांत। वेदों के अनुसार सत्य या
ईश्वर को इनमें से किसी एक माध्यम से नहीं जाना जा सकता। इसीलिए वेदों ने कई
माध्यमों की चर्चा की है।
गीता में क्या है?
महाभारत के १८ अध्यायों में से एक भीष्म पर्व का हिस्सा है
गीता को माना जाता है। गीता में भी कुल १८ अध्याय हैं। दस अध्यायों की कुल श्लोक
संख्या सात सौ है। वेदों के ज्ञान को नए तरीके से किसी ने अपने अनुसार व्यवस्थित
किया है तो वे भगवान श्रीकृष्ण हैं। अत: वेदों का पॉकेट संस्करण है गीता,
जो हिन्दुओं का सर्वमान्य एकमात्र ग्रंथ है। किसी के पास
इतना समय ही नहीं है कि वह वेद या उपनिषद पढ़े। उनके लिए गीता ही सबसे उत्तम
धर्मग्रंथ है। गीता को बार-बार पढ़ने के बाद ही वह समझ में आने लगती है।
गीता में भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग को प्रस्तुत किया गया है। उसमें
यम-नियम और धर्म-कर्म के बारे में भी विस्तार से बताया गया है। गीता कहती है कि
ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है। गीता को हम बार-बार पढ़ेंगे तो हमारे समक्ष इसके ज्ञान का रहस्य खुलता चला जाएगा।
गीता के बारे में कहा जाए कि गीता के प्रत्येक शब्द पर एक अलग ग्रंथ लिखा जा सकता
है तो यह गलत नहीं होगा।
गीता में सृष्टि उत्पत्ति, जीव विकास क्रम, हिन्दू संदेशवाहक क्रम, मानव उत्पत्ति, योग, धर्म-कर्म, ईश्वर, भगवान, देवी-देवता, उपासना, प्रार्थना, यम-नियम, राजनीति, युद्ध, मोक्ष, अंतरिक्ष, आकाश, धरती, संस्कार, वंश, कुल, नीति, अर्थ, पूर्व जन्म, जीवन प्रबंधन, राष्ट्र निर्माण, आत्मा, कर्मसिद्धांत, त्रिगुण की संकल्पना, सभी प्राणियों में मैत्रीभाव आदि सभी की जानकारी विद्यमान
है।
श्रीमद्भगवद्गीता स्वयं
श्रीकृष्ण की वाणी है। इसके प्रत्येक श्लोक में ज्ञानरूपी प्रकाश है जिसके
प्रस्फुटित होते ही अज्ञान का अंधकार पूरी तरह नष्ट हो जाता है। इसमें
ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गों की विस्तृत व्याख्या की गई है। इन मार्गों पर चलने से
व्यक्ति निश्चित ही परम पद का अधिकारी बन जाता है। गीता को अर्जुन के अलावा और
संजय ने सुना और उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया। गीता में श्रीकृष्ण ने ५७४,
अर्जुन ने ८५, संजय ने ४० और धृतराष्ट्र ने एक श्लोक बोला है।
उपरोक्त ग्रंथों के ज्ञान का सारांश:-
१. ईश्वर के संदर्भ में :-
ब्रह्म (परमात्मा) केवल एक ही है जिसे कुछ लोग सगुण (साकार)
तो कुछ लोग निर्गुण (निराकार) मानते हैं। हालाँकि वह संसार में अजन्मा,
अप्रकट है। उस शक्ति का न कोई पिता है और न ही कोई उसका
पुत्र है। वह किसी के भाग्य या कर्म को नियंत्रित नहीं करता। न कि वह किसी को दंड
या पुरस्कार प्रदान करता है। उसका न तो कोई प्रारंभ है और न ही अंत। वह अनादि और
अनंत है। उसकी उपस्थिति से ही संपूर्ण ब्रह्मांड चलता है। सभी कुछ उसी से उत्पन्न
होकर अंत में उसी में लीन हो जाता है, जो ब्रह्मलीन कहलाता है।
२. ब्रह्मांड के संदर्भ में :-
आज यह दिखाई देने वाला जगत फैलता चला जा रहा है और दूसरी ओर
से यह सिकुड़ता भी जा रहा है। लाखों तारे, सूर्य और धरती पर लोग का जन्म हुआ है,
तो उसका अंत भी होगा जो जन्मा है वह निश्चित रूप में मरेगा
भी। सभी कुछ उसी ब्रह्म से जन्मे हैं और अंत में उसी में लीन हो जाने वाले हैं। यह
ब्रह्मांड पूर्ण रूप से परिवर्तनशील है। इस जगत का संचालन उसी की शक्ति से स्वत:
ही होता है, जैसे कि सूर्य के आकर्षण से ही धरती अपनी धूरी पर टिकी हुई होकर चलायमान रहती
है। उसी तरह लाखों सूर्य और तारे एक महासूर्य के आकर्षण से टिके होकर संचालित होते
रहते हैं। उसी तरह लाखों महासूर्य उस एक ब्रह्मा की शक्ति से ही जगत में आज
विद्यमान हैं।
३. आत्मा के संदर्भ में :-
आत्मा का स्वरूप ब्रह्म (परमात्मा) के समान है। जैसे सूर्य
और दीपक में जो फर्क है उसी तरह आत्मा और परमात्मा में फर्क होता है। आत्मा के
शरीर में होने के कारण ही यह शरीर संचालित होता है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि
संपूर्ण धरती, सूर्य, ग्रह-नक्षत्र और तारे भी उस एक परमपिता की उपस्थिति से ही संचालित होते चले आ
रहे हैं।
आत्मा का न कभी जन्म होता है और न ही कभी उसकी कोई मृत्यु
होती है। आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है। यह आत्मा अजर और अमर
मानी जाती है। आत्मा को प्रकृति द्वारा तीन शरीर मिलते हैं- एक,
वह जो स्थूल आँखों से दिखाई देता है। दूसरा,
वह जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं,
जो कि ध्यानी को ही दिखाई देता है और तीसरा,
वह शरीर जिसके कारण इसे शरीर कहते हैं,
उसे देखना अत्यंत ही मुश्किल होता है। बस उसे वही आत्मा
महसूस करती है, जो कि उसमें विद्यमान है। आप और हम दोनों ही एक आत्मा हैं। हमारे नाम और शरीर
अलग-अलग हैं परंतु हमारा भीतरी स्वरूप एक ही है।
४. स्वर्ग और नरक के संदर्भ में :-
वेदों के अनुसार पुराणों के स्वर्ग या नर्क को गतियों के
आधार पर समझा जा सकता है। स्वर्ग और नर्क दो गतियां हैं। आत्मा जब देह छोड़ती है
तो मूलत: दो प्रकार की गतियां होती हैं- पहला अगति और दूसरा गति।
1. अगति :- अगति में व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त नहीं होता है
उसे फिर से इस संसार में जन्म लेना पड़ता है।
2. गति :- गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है या वह
अपने कर्मों से मोक्ष प्राप्त करता है।
अगति के चार प्रकार माने गए हैं- 1.
क्षिणोदर्क, 2. भूमोदर्क, 3. अगति और 4. दुर्गति।
1.1.क्षिणोदर्क : क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के
रूप में मृत्युलोक में आता है और संतों-सा जीवन जीता है।
1.2.भूमोदर्क : भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता
है।
1.3.अगति : अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।
1.4.दुर्गति : दुर्गति में वह कीट-कीड़ों जैसा जीवन पाता है।
गति के भी चार प्रकार- गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं- 1.
ब्रह्मलोक, 2. देवलोक, 3. पितृलोक और 4. नर्कलोक। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता
है।
तीन मार्गों से जीवन यात्रा :-
जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर अपनी
यात्रा की शुरुआत करती है तो इस दौरान उसे तीन तरह के मार्ग मिलते हैं। ऐसा कहा
जाता है कि उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर
करता है। ये तीन मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक
और देवलोक की यात्रा के लिए जाने जाते है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा के लिए ले जाता है और
उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए जाना जाता है।
५. धर्म और मोक्ष के संदर्भ में :-
धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म का अर्थ है यम और नियम को समझकर
उसका पालन करना। नियम ही धर्म है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य प्राप्त होता
है। हिन्दू धर्म के अनुसार व्यक्ति को मोक्ष के बारे में विचार अवश्य करना चाहिए
तथा मोक्ष क्या है? स्थितप्रज्ञ आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है। मोक्ष का
भावार्थ यह है कि आत्मा शरीर नहीं है, इस सत्य को पूर्णत: अनुभव करके ही अशरीरी होकर स्वयं के
अस्तित्व को पुख्ता करना ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी मानी जाती है।
६. व्रत और त्योहार
के संदर्भ में :-
हिन्दू धर्म के सभी व्रत, त्योहार या तीर्थ सिर्फ मोक्ष की प्राप्ति के लिए ही
निर्मित हुए हैं। मोक्ष तब मिलेगा जब व्यक्ति स्वस्थ रहकर प्रसन्नचित्त और खुशहाल
जीवन व्यतीत करने लगेगा। व्रत से शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहते है। त्योहार से मन
अति प्रसन्न होता है और तीर्थ से मन और मस्तिष्क में वैराग्य और अध्यात्म का जन्म
निरंतर होता रहता है।
मौसम और ग्रह-नक्षत्रों की गतियों को ध्यान में रखकर बनाए
गए व्रत और त्योहारों का महत्व भी अपने स्थान पर बहुत अधिक होता है। व्रतों में
चतुर्थी,
एकादशी, प्रदोष, अमावस्या, पूर्णिमा, श्रावण मास और कार्तिक मास के दिन व्रत रखना अत्यंत श्रेष्ठ
माना जाता है। यदि उपरोक्त सभी नहीं रख सकते हैं तो श्रावण के पूरे महीने व्रत
रखने चाहिए एवं त्योहारों में मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, नवरात्रि, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और हनुमान जन्मोत्सव ही महत्वपूर्ण
त्योहार होते हैं। पर्व में श्राद्ध और कुंभ का पर्व अवश्य मनाना चाहिए।
व्रत करने से काया निरोगी और जीवन में शांति स्थापित होती
है तथा सूर्य की बारह और बारह चन्द्र की संक्रांतियां मानी जाती हैं। सूर्य
संक्रांतियों में उत्सव का अधिक महत्व होता है, तो चन्द्र संक्रांति में व्रतों का अधिक महत्व होता है।
चैत्र,
वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन। इसमें से श्रावण मास को व्रतों में सबसे
श्रेष्ठ मास माना जाता है। इसके अलावा प्रत्येक माह की एकादशी,
चतुर्दशी, चतुर्थी, पूर्णिमा, अमावस्या और अधिकमास में व्रतों का अलग-अलग महत्व होता है।
सौरमास और चान्द्रमास के बीच बढ़े हुए दिनों को मलमास या अधिकमास कहा जाता हैं।
साधुजन चातुर्मास अर्थात् चार महीने श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक माह में व्रत रखते हैं।
उत्सव, पर्व और त्योहार सभी का अलग-अलग अर्थ और अपना एक महत्व है।
प्रत्येक ऋतु में एक उत्सव है। उन त्योहार, पर्व या उत्सव को मनाने का महत्व अधिक महत्वपूर्ण है जिनकी
उत्पत्ति स्थानीय परंपरा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथ,
धर्मसूत्र, स्मृति, पुराण और आचार संहिता में हमें प्राप्त होता है। चन्द्र और
सूर्य की संक्रांतियों के अनुसार कुछ त्योहार मनाए जाते हैं। बारह सूर्य संक्रांतियाँ
होती हैं जिसमें से चार प्रमुख हैं- मकर, मेष, तुला और कर्क। इन चार में मकर संक्रांति सबसे महत्वपूर्ण
मानी जाती है। तथा सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ,
संक्रांति और कुंभ। पर्वों में रामनवमी,
कृष्ण जन्माष्टमी, गुरुपूर्णिमा, वसंत पंचमी, हनुमान जयंती, नवरात्रि, शिवरात्रि, होली, ओणम, दीपावली, गणेश चतुर्थी और रक्षाबंधन प्रमुख प्रमुख माने जाते हैं। हालाँकि
सभी में मकर संक्रांति और कुंभ को सर्वोच्च माना गया है।
७. तीर्थ के संदर्भ में :-
तीर्थ और तीर्थयात्रा का बहुत पुण्य माना जाता है। जो
मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं, उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थों में
चार धाम ज्योतिर्लिंग, अमरनाथ, शक्तिपीठ और सप्तपुरी की यात्रा का ही महत्व माना गया है।
अयोध्या,
मथुरा, काशी और प्रयाग को तीर्थों का प्रमुख केंद्र माना जाता है
जबकि कैलाश मानसरोवर को सर्वोच्च तीर्थ माना गया है। बद्रीनाथ,
द्वारका, रामेश्वरम् और जगन्नाथपुरी ये चार धाम हैं। सोमनाथ,
द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ, विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम्, घृष्णेश्वर और बैद्यनाथ ये द्वादश ज्योतिर्लिंग माने गए
हैं। काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया,
कांची और अवंति उज्जैन ये सप्तपुरियां हैं। उपरोक्त कहे गए
तीर्थ की यात्रा ही धर्मसम्मत माने जाते है।
८. संस्कार के बारे में :-
संस्कारों के प्रमुख सोलह प्रकार बताए गए हैं जिनका पालन करना
हर हिन्दू का कर्तव्य है। इन संस्कारों के नाम इस प्रकार हैं - गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। प्रत्येक हिन्दू को उक्त संस्कार को
अच्छे से नियमपूर्वक रीति अनुसर करना चाहिए। यह मनुष्य के सभ्य और हिन्दू होने की
महत्वपूर्ण निशानी है। उक्त संस्कारों को वैदिक नियमों के द्वारा ही संपन्न किया
जाना चाहिए।
९. पाठ करने के बारे में :-
वेदों, उपनिषद या गीता का पाठ करना या सुनना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य
होता है। उपनिषद और गीता का स्वयं अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के
समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य माना जाता है। लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित
व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है क्योंकि वह उसका विरोध
करता है तथा उसका समर्थन नहीं करता। प्रतिदिन धर्मग्रंथों का कुछ पाठ करने से देव
शक्तियों की कृपा हमें निरंतर प्राप्त होती रहती है। हिन्दू धर्म में वेद,
उपनिषद और गीता के पाठ करने की परंपरा प्राचीनकाल से चली आ
रही है। वक्त बदला तो लोगों ने पुराणों में उल्लेखित कथा की परंपरा शुरू कर दी,
जबकि वेदपाठ और गीता पाठ का आज भी बहुत अधिक महत्व है।
१०. धर्म, कर्म और सेवा के संदर्भ में :-
धर्म-कर्म और सेवा का अर्थ यह कि हम ऐसा कार्य करें जिससे
हमारे मन और मस्तिष्क को शांति प्राप्त हो और हम मोक्ष का द्वार खोल पाएं। साथ ही
जिससे हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय हित भी साधे जाते हों अर्थात् ऐसा कार्य जिससे
परिवार,
समाज, राष्ट्र और स्वयं को लाभ भी प्राप्त हो। धर्म-कर्म को कई
तरीके से साधा जा सकता है, जैसे- व्रत, सेवा, दान, यज्ञ, प्रायश्चित, दीक्षा देना और मंदिर जाना आदि।
सेवा का मतलब यह कि सर्वप्रथम माता-पिता,
फिर बहन-बेटी, फिर भाई-बंधु की किसी भी प्रकार से सहायता करना ही
सर्वप्रथम धार्मिक सेवा है। इसके बाद अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना पुण्य का
कार्य माना जाता है। इसके अलावा सभी प्राणियों, पक्षियों, गाय, कुत्ते, कौओं, चींटी आदि को अन्न-जल देना ये सभी यज्ञ कर्म में सम्मिलित
होते हैं।
११. दान के संदर्भ में :-
दान से इन्द्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूट जाती है। मन की
ग्रथियां खुलती रहती हैं जिससे मृत्युकाल में बहुत लाभ प्राप्ति होती है। देव
आराधना का दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेदों में तीन प्रकार के दाता कहे गए
हैं- 1.
उक्तम, 2. मध्यम और 3. निकृषटतम। धर्म की उन्नति, रूप, सत्य विद्या के लिए जो देता है,
वह उत्तम धर्म है। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है वह
मध्यम दान होता है और जो वेश्यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्ट दान माना गया है। पुराणों में
अन्नदान,
वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है,
यही दान पुण्य दान भी कहलाता है।
१२. यज्ञ के संदर्भ में :-
यज्ञ के प्रमुख पाँच प्रकार होते हैं- ब्रह्मयज्ञ,
देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ आदि। यज्ञ पालन से ऋषि ऋण,
देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण समाप्त होता जाता है। नित्य
संध्यावंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है। देवयज्ञ सत्संग तथा
अग्निहोत्र कर्म से संपन्न होता है। अग्नि जलाकर होम करना अग्निहोत्र यज्ञ कहलाता
है। पितृयज्ञ को श्राद्धकर्म भी कहा जाता है। यह यज्ञ पिंडदान,
तर्पण और संतानोत्पत्ति से संपन्न होता है। वैश्वदेव यज्ञ
को भूत यज्ञ भी कहते हैं। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्तव्य
समझना व उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ कहलाता है। अतिथि यज्ञ से अर्थ मेहमानों
की सेवा करना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि
यज्ञ कहलाता है। इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में हमें प्राप्त
होते है।
१३. मंदिर जाने के संदर्भ में :-
प्रति गुरुवार को मंदिर अवश्य जाना चाहिए। घर में मंदिर
होना चाहिए। मंदिर में जाकर परिक्रमा आवश्य करनी चाहिए। भारत में मंदिरों,
तीर्थों और यज्ञादि की परिक्रमा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही
रहा है। मंदिर की सात बार (सप्तपदी) परिक्रमा करना बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता
है। यह सात परिक्रमा विवाह के समय अग्नि के समक्ष भी की जाती है। इसी प्रदक्षिणा
को इस्लाम धर्म ने परंपरा से अपनाया जिसे तवाफ कहा जाता है। प्रदक्षिणा षोडशोपचार
पूजा का ही एक अंग होता है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है। हिन्दू सहित जैन,
बौद्ध और सिख धर्म में भी परिक्रमा का अपना एक महत्व है।
इस्लाम में मक्का स्थित काबा की सात परिक्रमा का प्रचलन है। पूजा-पाठ,
तीर्थ परिक्रमा, यज्ञादि पवित्र कर्म के दौरान बिना सिले सफेद या पीत वस्त्र
पहनने की परंपरा भी प्राचीनकाल से हिन्दुओं में आज भी प्रचलित है। मंदिर जाने या
संध्यावंदन के पूर्व आचमन या शुद्धि करना जरूरी है। इसे इस्लाम में वुजू कहा जाता
है।
१४. संध्यावंदन के संदर्भ में :-
संध्यावंदन को संध्योपासना भी कहा जाता हैं। मंदिर में जाकर
संधिकाल में ही संध्यावंदन की जाती है। वैसे संधि आठ वक्त की मानी गई है। उसमें भी
पांच महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। पांच में से भी सूर्य उदय और अस्त अर्थात् दो वक्त
की संधि अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच,
आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना
की जाती है। संध्योपासना के चार प्रकार माने जाते हैं- 1.
प्रार्थना, 2. ध्यान, 3. कीर्तन और 4. पूजा-आरती। व्यक्ति की जिसमें जैसी श्रद्धा होती है,
वह वैसा ही संध्यावंदन करता है।
१५. धर्म की सेवा के संदर्भ में :-
धर्म की प्रशंसा करना और धर्म के बारे में सही जानकारी को
लोगों तक पहुँचाना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य माना जाता है। धर्म प्रचार में वेद,
उपनिषद और गीता के ज्ञान का प्रचार करना ही उत्तम माना गया
है। धर्म प्रचारकों के कुछ प्रकार होते हैं। हिन्दू धर्म को पढ़ना और समझना बहुत
आवश्यक होता है। हिन्दू धर्म को समझकर ही उसका प्रचार और प्रसार करना आवश्यक है।
जब हमें धर्म का सही ज्ञान होगा, तभी उस ज्ञान को हम दूसरे को बता सकते हैं। प्रत्येक
व्यक्ति को धर्म का प्रचारक होना आवश्यक है। इसके लिए भगवा वस्त्र धारण करने या
संन्यासी होने की जरूरत नहीं होती। स्वयं के धर्म की तारीफ करना और बुराइयों को
नहीं सुनना ही धर्म की सच्ची सेवा मात्र होती है।
१६. मंत्र के संदर्भ में : -
वेदों में हमे बहुत सारे मंत्रों का उल्लेख मिलता है,
लेकिन जपने के लिए सिर्फ प्रणव और गायत्री मंत्र ही कहा
जाता है,
बाकी मंत्र किसी विशेष अनुष्ठान और धार्मिक कार्यों के लिए
होते है। वेदों में गायत्री नाम से एक छंद है जिसमें हजारों मंत्र विद्यमान हैं
किंतु प्रथम मंत्र को ही गायत्री मंत्र माना जाता है। उक्त मंत्र के अलावा किसी
अन्य मंत्र का जाप करते रहने से केवल समय और ऊर्जा की बर्बादी होती है। गायत्री
मंत्र की महिमा सर्वविदित है। दूसरा मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र,
लेकिन उक्त मंत्र के जप और नियम कठिन माने गए है इसे किसी
जानकार से पूछकर ही उसके सानिध्य में ही जपना चाहिए।
१७. प्रायश्चित के संदर्भ में :-
प्राचीनकाल से ही हिन्दुओं में मंदिर में जाकर अपने पापों
के लिए प्रायश्चित करने की परंपरा चलती आ रही है। प्रायश्चित करने के महत्व को
स्मृति और पुराणों में विस्तार से समझाया जा चुका है। गुरु और शिष्य परंपरा में
गुरु अपने शिष्य को प्रायश्चित करने के अलग-अलग तरीके बतलाते हैं। दुष्कर्म के लिए
प्रायश्चित करना तपस्या का एक दूसरा रूप माना जाता है। यह मंदिर में देवता के
समक्ष 108 बार साष्टांग प्रणाम, मंदिर के इर्द-गिर्द चलते हुए साष्टांग प्रणाम और कावडी
अर्थात् वह तपस्या, जो भगवान मुरुगन को अर्पित की जाती है,
जैसे कृत्यों के माध्यम से की जाती है। मूलत: अपने पापों की
क्षमा भगवान शिव और वरुणदेव से इस प्राकर मांगी जाती है,
क्योंकि क्षमा का अधिकार केवल उनको ही है। जैन धर्म में ‘क्षमा पर्व’ प्रायश्चित करने का दिन माना जाता है। दोनों ही धर्मों के
इस नियम एवं परंपरा को ईसाई और मुस्लिम धर्म में भी शामिल किया गया है। ईसाई धर्म
में इसे ‘कंफेसस’ और इस्लाम में ‘कफ्फारा’ कह कर संबोधित किया जाता है।
१८. दीक्षा देने के संदर्भ में :-
दीक्षा देने का प्रचलन सर्वप्रथम वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ
किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा प्रदान की
जाती थी। माता-पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा प्राप्त कराने के लिए भेजते थे तब भी
दीक्षा दी जाती थी। हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा कहा
जाता है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है एवं दीक्षा के बाद व्यक्ति द्विज
बन जाता है अर्थात् द्विज का अर्थ दूसरा जन्म से लिया जाता है। या दूसरा
व्यक्तित्व। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहा जाता हैं।
यह दीक्षा देने की परंपरा जैन धर्म में भी प्राचीनकाल से ही
चली आ रही है, हालाँकि दूसरे धर्मों में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए
प्रयुक्त किया जाने लगा था और हिन्दू धर्म से इस परंपरा को ईसाई धर्म ने अपनाया
जिसे वे बपस्तिमा कहते हैं। अलग-अलग धर्मों में दीक्षा देने के भिन्न-भिन्न तरीके
गिनाए गए हैं। यहूदी धर्म में खतना करके दीक्षा प्रदान की जाती है।
अंततः हम यह कह सकते हैं कि चाहे किसी भी धर्म के ग्रंथ को
पढ़ा जाए तो उसमें केवल एक ही ईश्वर को महत्व दिया गया है तथा मनुष्यता सर्वप्रथम
है यदि मनुष्य के अंदर मनुष्यता नहीं तो वो कितने ही धर्म ग्रंथों का अनुसरण कर ले
सब व्यर्थ ही माने जाएंगे। मनुष्य के अंदर मनुष्यता नहीं तो उसका जीवन व्यर्थ है।
संदर्भ सूची :-
1. Www.Hindi.com
2. Www.Nayadost.in
3. Www.Nayadost.in
4. Www.Wikipedia.org
5. www.wikipedia.org
डॉ. राज बहादुर गौतम
पूर्व शोधार्थी (हिंदी विभाग)
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय बडौदा
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