कुछ सत्ता है नारी की!?
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
8 मार्च अर्थात् अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस!
इस अवसर पर यह सूचना सुखद कही जा सकती है कि ऐसा पहली बार
हुआ है कि विश्व के सभी देशों में, महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व हो गया है,
और एक भी संसद ऐसी नहीं है जहाँ केवल पुरुष सांसद हों। कहना
न होगा कि इस उपलब्धि तक पहुँचने के लिए दुनिया की आधी आबादी को लंबी लड़ाई लड़नी
पड़ी है। लेकिन अभी समान अनुपात के लिहाज से यह उपलब्धि बहुत नाकाफी है - ऊँट के
मुँह में जीरा सरीखी! अंतर-संसदीय संघ (आईपीयू) के महासचिव मार्टिन चुनगाँग की
मानें तो प्रगति की इस रफ़्तार के साथ, संसदों में लैंगिक समता हासिल करने में अभी 80 साल और लगेंगे। यही नहीं, फ़िलहाल यौनवाद, उत्पीड़न और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा का माहौल वे सबसे बड़ी
चुनौतियाँ हैं, जिन्हें हम दुनिया भर में देख रहे हैं!
भले ही आज महिलाएँ दुनिया भर में अनेक क्षेत्रों में शिखर
पर हों,
लेकिन सबसे विकसित समाजों तक में उन्हें किसी न किसी रूप
में लैंगिक भेदभाव का सामना करना ही पड़ता है। पुरुष वर्चस्व की सामंती मानसिकता घर
से लेकर कार्यक्षेत्र तक व्यापक असमानताओं के रूप में स्त्रियों का पीछा किया करती
है। इस कारण उन्हें कई तरह की असुरक्षाओं से लड़ना पड़ता है। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है
कि केवल आज के ही दिन नहीं, बल्कि लगातार, हिंसा और भेदभाव जैसे उन तमाम मुद्दों पर चर्चा की जाती रहे,
जिनका सामना आज भी दुनिया भर की महिलाएँ कर रही हैं। साथ ही ज़रूरी है उन उपायों की खोज जो इन
महिलाओं को ऐसा बेहतर परिवेश प्रदान कर सकें जिसमें सुरक्षित और सम्मानित
जीवन की गारंटी शामिल हो।
यह जान कर कुछ लोग चौंक सकते हैं कि महिलाओं के मानव
अधिकारों को बहाल करने की दिशा में दुनिया फिलहाल जिस गति (या सुस्ती?)
से काम कर रही है, उससे महिलाओं और
लड़कियों के लिए समानता लाने में लगभग तीन शताब्दियाँ और लगेंगी! सयाने बता रहे
हैं कि लगातार असमानताओं से पीड़ित, लगभग 38 करोड़ 30 लाख महिलाएँ और लड़कियाँ, अत्यधिक ग़रीबी में रहने को मजबूर हैं। संयुक्त राष्ट्र के
आँकड़ों के मुताबिक, हर 11 मिनट में एक महिला या लड़की अपने ही परिवार के किसी सदस्य
के हाथों मौत का शिकार होती है!
यहाँ यह भी विचारणीय है कि विकास के नए सोपान चढ़ती दुनिया
महिलाओं के सामने नित नई और अबूझी समस्याएँ पैदा कर रही है। कई बार तो ऐसा लगता है
कि इक्कीसवीं सदी इस आधी दुनिया के लिए नई चुनौतियाँ लेकर आई है। यह कम चिंताजनक
बात नहीं है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ भौतिक दुनिया में होने वाला भेदभाव,
दुर्व्यवहार और स्त्री-द्वेष बड़ी तेजी से वर्चुअल दुनिया
में भी पैर पसार रहा है। इसका शिकार बनने वाली महिला जब तक इसे पहचान पाती है,
तब तक सब कुछ बिगड़ चुका होता है। और तब यह कह कर हाथ मलने
के अलावा कुछ नहीं बचता कि 'सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया?'
इसलिए वक़्त रहते महिलाओं और लड़कियों को वर्चुअल दुनिया यानी
डिजिटल क्षेत्र के संभावित खतरों से अवगत कराना आज की बड़ी जरूरत है। देखना यह भी
होगा कि औरतें प्रौद्योगिकी तक सीमित पहुँच के कारण प्रगति की दौड़ में पीछे न रह
जाएँ। समाज को सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें ऑनलाइन हिंसा का शिकार न बनाया जा
सके। तकनीकी उद्योगों में प्रतिनिधित्व
एवं लैंगिक पूर्वाग्रह जैसे मुद्दों को भी सुलटाना ज़रूरी होगा।
कहना न होगा कि नए हालात में लैंगिक समानता पर चर्चा करते
हुए यह तय करना ज़रूरी होगा कि सभी महिलाओं एवं लड़कियों के सशक्तीकरण के लिए
डिजिटल युग में नवाचार व तकनीकी परिवर्तन तथा शिक्षा पर ज़ोर दिया जाए,
क्योंकि अंततः शिक्षा ही मुक्ति का आधार है!
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा
हैदराबाद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें