शुक्रवार, 31 मार्च 2023

काव्यास्वादन

 

स्त्रियाँ (अनामिका)

डॉ. पूर्वा शर्मा

एक नारीवादी साहित्यकार के रूप में अपनी पहचान बनाने वाली प्रसिद्ध कवयित्री ‘अनामिका’ ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री-जीवन के विविध रूपों, उसकी विडंबनाओं-विसंगतियों व त्रासदी को सफलता से रेखांकित किया है। उनकी प्रस्तुत कविता ‘स्त्रियाँ’ में स्त्री अस्मिता, स्त्री शोषण, स्त्री के अधिकार आदि का वर्णन बड़ी ही मार्मिकता के साथ हुआ है। वर्षों से समाज में स्त्री की स्थिति दोयम दर्जे की रही है और स्त्री स्वयं अपनी इस दयनीय स्थिति से भली-भाँति परिचित है। लेकिन इसका वह विरोध भी नहीं कर पाती है। स्त्री जीवन की इसी सच्चाई को कवयित्री ने इस कविता में निर्भीकता से बताया है। कविता के आरंभ की पंक्तियाँ ही स्त्री-शोषण को बखूबी स्पष्ट करती हैं। कवयित्री की संवेदना एवं शब्द चयन गज़ब का है – 

पढ़ा गया हमको

जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़

बच्चों की फटी कॉपियों का

चनाजोर गर्म के लिफ़ाफ़े बनाने के पहले!

यहाँ कवयित्री ने स्त्री को कागज़ की उपमा दी है और कागज़ भी कौनसा! ‘फटी कॉपियों का’ जिससे ‘चनाजोर गर्म के लिफ़ाफ़े’ बनाए जाते हैं। एक अनूठी उपमा देते हुए कितनी सहजता से, कितने सरल शब्दों में एक स्त्री के मन की बात कह दी है।  आगे की पंक्तियों में दूसरी उपमा ‘घड़ी’ भी बड़ी ही सहज एवं अनूठी है। सुबह-सुबह अलार्म बजने पर होने वाली अनुभूति को कितनी सुंदरता से स्त्री के वजूद के साथ जोड़ दिया है –

देखा गया हमको

जैसे कि कुफ़्त हो उनींदे

देखी जाती है कलाई घड़ी

अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद!

इन दोनों उपमाओं के बाद भी कवयित्री उपेक्षित स्त्री जीवन की संवेदना को व्यक्त करने के लिए दो और अन्य उपमाओं का उपयोग करके कहती हैं कि उसकी स्थिति, उसका वजूद तो जैसे इस पुरुष सत्तात्मक समाज में नगण्य ही रहा है। स्त्री के होने का भाव, उसके अस्तित्व का भाव, न होने की तरह ही है। अपने लाभ के लिए पुरुष समाज उसका बस भोग-उपयोग ही कर रहा है। उसके प्रति सभी का रवैया दूर के रिश्तेदारों के दुःख की भाँति है –

सुना गया हमको

यों ही उड़ते मन से

जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने

सस्ते कैसेटों पर

ठसाठस्स भरी हुई बस में!

भोगा गया हमको

बहुत दूर के रिश्तेदारों के

दुःख की तरह!


अपने अस्तित्व का बोध कराने के लिए स्त्री को अपनी आवाज़ बुलंद करनी ही होगी। इसलिए अनामिका एक विदुषी की भाँति बड़ी ही विनम्रता के साथ कहती है –

एक दिन हमने कहा

हम भी इंसान हैं –

हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर

जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद

नौकरी का पहला विज्ञापन!

कविता की आगे की पंक्तियों में भी कवयित्री का आक्रोश और आग्रह दोनों ही नज़र आता है। एक ओर जहाँ कविता के आरंभ में कवयित्री ने स्त्री की स्थिति-परिस्थिति को रेखांकित किया है वहीं दूसरी ओर आगे की पंक्तियों में उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि स्त्री को देखने के लिए आपके पास किस तरह की दृष्टि होनी चाहिए –

देखो तो ऐसे

जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है

बहुत दूर जलती हुई आग!

सुनो हमें अनहद की तरह

और समझो जैसे समझी जाती है

नई-नई सीखी हुई भाषा!

अपने विवेक से समस्या के साथ उसका निदान प्रस्तुत करने में कवयित्री सफल हुई है। लेकिन जैसे ही स्त्री अपने अस्तित्व बोध की बात करती है तो अगले ही क्षण उसकी इस माँग को खारिज़ करने का शोर सुनाई देने लगता है –   

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई

एक अदृश्य टहनी से

टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें

चीख़ती हुई चीं-चीं

दुश्चरित्र महिलाएँ, दुश्चरित्र

महिलाएँ –

समाज स्त्री को एक नये नजरिये से देखने को तैयार नहीं है। जैसे ही स्त्री अपने लिए आवाज़ उठाती है उस पर इल्ज़ामों के तीर चलना शुरू हो जाते हैं। पुरुषवादी समाज में स्त्री का चुप रहना ही श्रेष्ठ माना गया है और यही मान लिया जाता है कि आवाज़ उठाने वाली स्त्री तो दुश्चरित्र ही है।  

किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूलीं-फैलीं

अगरधत्त जंगली लताएँ!

खाती-पीती, सुख से ऊबी

और बेकार बेचैन, आवारा महिलाओं का ही

शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ...।

फिर ये उन्होंने थोड़े ही लिखी हैं

(कनखियाँ, इशारे, फिर कनखी)

बाक़ी कहानी बस कनखी है।

पहले से ही साहित्य की कहानी-कविताओं आदि में पुरुष लेखकों ने स्त्रियों का चित्र कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया है कि उसे एक विशेष ढंग से देखे-सुने जाने के लिए हम अभ्यस्त हो गए है। यही कारण है कि स्त्री को इस पुराने ढंग अथवा परंपरा से कुछ अलग अंदाज़ में देखना पसंद ही नहीं करते। यदि वह स्वयं को इस लीक से हटकर अलग तरीके से प्रस्तुत करती है तो उसे   चरित्रहीन और आवारा ही समझा जाता है। आगे की पंक्तियों में कवयित्री गुहार लगाकर पूरे पुरुष समाज से कह रही है कि अब तो नारी की इस त्रासदी से छुटकारा दे दो। अपने पर हर ज़ुल्म जैसे भ्रूण हत्या, यौन शोषण, दासत्व, अग्नि परीक्षा से मुक्ति चाहती है। निम्न पंक्तियों में ‘बख़्शो’ का स्वर देखिए –

हे परमपिताओ,

परमपुरुषों—

बख़्शो, बख़्शो, अब हमें बख़्शो!

संवेदना एवं कथ्य की दृष्टि से तो यह कविता बेजोड़ है ही, इसके अतिरिक्त सुंदर उपमानों के साथ अनूठे एवं सटीक विशेषणों जैसे – दूर के रिश्तेदारों के दुःख की तरह!, बहुत दूर जलती हुई आग, नई-नई सीखी हुई भाषा!, रंगीन अफ़वाहें, अगरधत्त जंगली लताएँ  आदि का प्रयोग कविता में चार चाँद तो लगाता है और उसके अर्थ में भी वृद्धि करता है।

समाज स्त्री को किस नज़रिए से देखता है और स्त्री स्वयं के प्रति कैसा व्यवहार अथवा दृष्टि की अपेक्षा करती है जो इस कविता के माध्यम से स्पष्ट होता है। स्त्री विमर्श का उद्देश्य – स्त्री की ‘स्व’ की पहचान का बोध जो प्रस्तुत कविता में परिलक्षित होता है। 

 


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

8 टिप्‍पणियां:

  1. Wah kya khub kaha aapne, dil ki baat ...

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  2. समाज के खून में काई जम चुकी है. चूल्हे में जली लकड़ी की किसको परवाह है. यहां तो रोटी की आलोचना की जाती है. जबकि पेट को तो बस भूख लगती है.

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  3. आज के समय मे बदले हुए हालात पर सटिक टिप्पणी

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  4. बेहद खूबसूरत कविता, और उतना ही सुंदर विश्लेषण पूर्वा जी का! बहुत बहुत बधाई।

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  5. प्रभावी अभिव्यक्ति ! कविता चयन और उसपर बेबाक विवेचन दोनों के लिए बधाई पूर्वा जी !

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  6. एक सुंदर कविता का सटीक बेहतरीन विश्लेषण पूर्वा जी। हार्दिक बधाई आपको। सुदर्शन रत्नाकर

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