शुक्रवार, 31 मार्च 2023

कविता

 


बदलती हुई स्त्री

सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

 

जब अपने

तेरहवें-चौदहवें

साल में डरते हुए उसने

स्त्री होने की ओर

कदम बढ़ाया था

तब माँ ने आहिस्ते से

कई राज़ बताए थे

 

उन दिनों में

संभल कर रहने के लिए

कई गुर कानों में

घोल दिए थे

 

वह सारी उम्र

उन सीखों पर

डरती-घबराती चलती रही,

 

उन विशेष दिनों

मंदिरों,रसोई घर जाने

से  बचती रही ,

 

खुद के और घर की

बुजुर्ग महिलाओं की

नज़र में उपेक्षित बनी रही

 

कई बार संकोच व शर्म से

आँखें नीची कर

खुद को कोसती रही

 

जबकि वह भी

साइंस की किताबों में

पढ़ी थी वंश को आगे बढ़ने

एवं संसार को जीवित

रखने के लिए यह

प्रकृति की सबसे

जरूरी क्रिया है

 

फिर भी

प्रकृति के उपहार पर

नजरें सदा झुकी रहीं।

 

पर !

जब वह

अपनी बिटिया के

हाथों थमाना चाही

शर्म का वही पैकेट

 

तब बिटिया ने हँसते हुए

माँ को गले लगा कर कहा

क्या माँ ?

यह तो बहुत कॉमन है

यह तो सभी जानते हैं

किससे छिपाना ?

क्या शरमाना ?

 

उसे स्त्री का

इस तरह बदलना

बहुत सुखद लगा,

उसने खुद के अंदर

सृजन करने वाली

स्त्री को दुलारा और

अपने ऊपर पड़ी

शर्म की चादर को

उतार

स्त्रियों के बदलने के दौर में

खुद भी शामिल हो गयी

जहाँ स्त्री के विशेष दिन

शर्म के नहीं

गर्व के होते हैं

स्त्री के सम्पूर्ण होने

के होते हैं।

-0-

 


सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

राँची

2 टिप्‍पणियां:

  1. समय के साथ बदलते दौर में सकारात्मक सोच लिए एक सुंदर कविता। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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