शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल



हिमकर श्याम

दौड़ती भागती ज़िंदगी रह गयी

बेकली रहनी थी बेकली रह गयी

 

लोग रिश्ते सभी तोड़ कर चल दिए

मेरी आँखों में बहती नदी रह गयी

 

चाहतों पर करूँ और क्या तबसरा

हसरतें मर गईं, तिश्नगी रह गयी

 

मेरी आवाज़ उस तक न पहुँची कभी

बात मेरी सुनी-अनसुनी रह गयी

 

चंद मिनटों में ही जल गए घर के घर

आग तो बुझ गयीदुश्मनी रह गयी

 

सुब्ह होते ही सूरज कहीं छिप गया

सामने फिर वही तीरगी रह गयी

 

वक़्त ने ऐसे तेवर दिखाए उसे

शान-ओ-शौकत धरी की धरी रह गयी

 

मुल्क में ख़ूब 'हिमकर' तरक़्क़ी हुई

बेकसी, बेबसी, मुफ़लिसी रह गयी

 



हिमकर श्याम

राँची

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