ट्राम में एक
याद : चेतना पारीक के बहाने
विकास कुमार मिश्रा
प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक
प्रेम काव्य का केंद्रीय कथ्य रहा है। आदिकवि के मुख से नि:सृत संस्कृत का प्रथम
श्लोक भी क्रौंच पक्षी की
प्रेमक्रीड़ा
में विघ्न डाल, जोड़े
में से एक की हत्या कर देने वाले निषाद के लिए श्राप रूप में प्रस्फुटित हुआ था।
हिंदी के कवि सुमित्रानंदन पंत का “वियोगी पहला कवि” वस्तुत: प्रेम-वियोगी ही है।
प्रेम के दोनों पक्षों – संयोग एवं वियोग को केंद्र में रखकर प्रचुर मात्रा में
काव्य सृजन हुआ। वस्तुत: वियोग प्रेम में अवकाश नहीं पैदा करता,
अपितु वह प्रेम में प्रकाश की उत्पत्ति करता है।
वियोग में प्रेमी का भौतिक शरीर भले ही अलग हो,
परन्तु मन से वह और भी एकाकार हो जाता है। गोया –
तुलसीदास कृत रामचरितमानस के राम हनुमान के द्वारा सीता से कहते हैं –
तत्व
प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
सो
मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।
हिंदी साहित्य में भी आदिकाल से लेकर
आधुनिक काल तक असंख्य प्रेम केन्द्रित काव्यों का सृजन हुआ। प्रेम पर काव्य सृजन
की इतनी प्रचुरता का कारण इसके प्रति ‘नेति-नेति’ की धारणा है। हरेक कवि ने इसका
अलग-अलग दर्शन किया और अभिव्यक्ति भी सबकी अलग-अलग रही। प्रेम संबंधी कविताओं को
दो भागों में बाँटकर
देखा जाता है। पहली, वे
कविताएँ जिनमें प्रेम के
उदात्त रूप का दर्शन होता है। दूसरी, वो
कविताएँ जिनमें प्रेम
फूहड़ता के कक्ष में प्रवेश करता दिखाई देता है। हिंदी साहित्य में प्रेम के
उदात्त रूप को केन्द्रित कर बहुत कम कविताएँ लिखी गई हैं। अकविता आंदोलन ने तो
फूहड़ता की भी परिसीमा को ध्वस्त कर दिया था।
हिंदी में उदात्त प्रेम पर लिखी गई
कुछ ही स्मरणीय कविताएँ
हैं, जिनमें ज्ञानेंद्रपति
की कविता ‘ट्राम
में एक याद’
एक प्रमुख कविता है। यह कविता बहुचर्चित है एवं कई भाषाओं में इसका अनुवाद किया
गया है। इसकी प्रथम पंक्ति - चेतना पारीक,
कैसी हो? – इतनी
चर्चित हुई कि पाठक के मन में ‘चेतना पारीक’ कविता के शीर्षक के
रूप में पैठ गया। कविता के प्रारम्भिक अंश में कवि ‘चेतना पारीक’ से गत जीवन के
अनुभवों के आधार पर कई प्रश्न पूछता है। ये ऐसे प्रश्न हैं,
जो चेतना पारीक के बहाने एक आधुनिक प्रगतिशील
स्त्री का चित्र मन में पैदा कर देते हैं। एक ऐसी स्त्री का चित्र,
जो आधुनिक परिवेश में जी रही है,
जो नाटक में भाग लेती है,
लाइब्रेरी जाती है,
कविता लिखती है,
गीत गाती है,
चित्र बनाती है,
बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती है,
उसे ढेर सारे मित्र बनाने पसंद हैं तथा वह प्रेम
भी करती है। इन सबके साथ ही उसमें आदर्श एवं उदात्त चरित्र वाली स्त्री की
प्रतिमूर्ति दिखाई देती है। कवितांश पाठक को अपने साथ ही मानसिक यात्रा पर ले चलता है,
कविता पढ़ते-पढ़ते पाठक ‘चेतना पारीक’ से प्रश्न पूछना
प्रारम्भ कर देता है और स्मरण में खो जाता है।
चेतना
पारीक, कैसी
हो?
पहले
जैसी हो?
कुछ-कुछ
खुश
कुछ-कुछ
उदास
कभी
देखती तारे
कभी
देखती घास
चेतना
पारीक, कैसी
दिखती हो?
अब
भी कविता लिखती हो?
तुम्हें
मेरी याद न होगी
लेकिन
मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती
ट्राम में फिर आँखों
के आगे झूली हो
तुम्हारी
क़द-काठी की एक
नन्ही-सी,
नेक
सामने
आ खड़ी है
तुम्हारी
याद उमड़ी है
चेतना
पारीक, कैसी
हो?
पहले
जैसी हो?
आँखों में उतरती
है किताब की आग?
नाटक
में अब भी लेती हो भाग?
छूटे
नहीं है लाइब्रेरी के चक्कर?
मुझ-से
घुमन्तू कवि से होती है कभी टक्कर?
अब
भी गाती हो गीत, बनाती
हो चित्र?
अब
भी तुम्हारे हैं बहुत बहुत मित्र?
अब
भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो?
अब
भी जिससे करती हो प्रेम, उसे
दाढ़ी रखाती हो?
चेतना
पारीक, अब
भी तुम नन्हीं गेंद-सी उल्लास से भरी हो?
उतनी
ही हरी हो?
कवितांश में चेतना पारीक की छवि के
साथ ही कवि के प्रेमिल मन का भी दर्शन होता है। कवि का प्रेमी मन आज भी चेतना पारीक
की याद में गुम है, वह
भूल नहीं पाया। कवि अपने बहाने एक उदात्त प्रेमी का भी अंकन करता है।
कविता के उत्तरार्द्ध में कवि चेतना
पारीक के बहाने महानगरीय त्रासदी का वर्णन करता है। विकसित महानगरों में जीवन
अतिगत्यात्मक अवस्था में है। सबको दौड़कर पहले पहुँचने की जल्दी है,
सबको जिंदगी एक दौड़ लगती है। महानगरों की गलियों
में शोर-शराबा और ट्रैफिक जाम एक आम बात बन चुकी है। इस भाग-दौड़ की महानगरीय
जिंदगी में कवि को कलकत्ता की विकलता स्पष्ट सुनाई देती है। मनुष्य महानगरीय
जिंदगी जीने की प्रक्रिया में प्रकृति से दूर होता जा रहा है। उसके महावन में एक
भी गौरैया
नहीं है। …और गौरैये
के बिना महावन कैसा? चेतना
पारीक के बहाने कवि महानगर के महाट्टहास का अंकन करता है। इस महाट्टहास ने न जाने
कितने पशु-पक्षियों का बसेरा लील लिया। यह महाट्टहास डरावना है,
उसके समक्ष मधुर हँसी ने दम तोड़ दिया है।
पूँजीवादी इस समाज में मशीनी धक-धक के सामने किसी एक जीवित धड़कन का कोई महत्व
नहीं रह गया है। कवि पूर्व के कलकत्ता का स्मरण कर व्यथित है कि विकसित होते
महानगर बहुत कुछ खत्म करते जा रहे हैं।
उतना ही शोर है इस शहर में वैसा
ही ट्रैफ़िक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल
ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम
है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत
अविराम है
इस महावन में फिर भी एक गौरैये
की जगह ख़ाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही
पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम कम है
विराट धक्-धक् में एक धड़कन कम
है कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते
हैं उतनी जगह ख़ाली है
वहाँ
उगी है घास वहाँ
चुई है ओस वहाँ
किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा
पोंछ-पोंछ देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता
लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे
लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़
दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के
बराबर जगह सूनी है
चेतना पारीक,
कहाँ
हो कैसी हो?
बोलो,
बोलो,
पहले जैसी हो !
उत्तरार्द्ध में कविता पाठक के मन को
त्रास से भर देती है, वह
चेतना पारीक के बहाने विकास के नाम पर हो रही विभीषिका के प्रति पाठक को चेताती
है। कविता बिल्कुल नये ढंग से प्रेम और महानगरीय समस्या को एक साथ अंकित करती है।
कवि का अनुभव इतना व्यापक है कि वह समस्त पाठक को अपना स्वयं का अनुभव प्रतीत होता
है।
विकास कुमार
मिश्रा
शोध छात्र,
हिंदी विभाग
सरदार पटेल
विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर
(गुजरात)
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