लोकगीतों में रसाभिव्यक्ति
डॉ. हसमुख परमार
काव्य के सभी तत्त्वों में सर्वाधिक महत्त्व ‘रस’ तत्व का है। भारतीय आचार्यों के एक बहुत बड़े वर्ग ने काव्य
की समीक्षा और विवेचन रस को केन्द्र में रखकर किया है। अतः भारतीय काव्यशास्त्र के
सभी संप्रदायों व सिद्धांतों में ‘रससिद्धांत’ सबसे ऊपर है। इस संप्रदाय के एवं इसके समर्थक आचार्यों के
द्वारा रस को काव्य का प्राणतत्व एवं ब्रह्मानंद सहोदर कहा गया है। “किसी सफल
काव्य रचना हेतु केवल शब्दसमूह ही पर्याप्त नहीं होता। इसके लिए उसमें हृदय
स्पर्शी चमत्कार की उपस्थिति अनिवार्य है। यह चमत्कार ही रस है- ‘रसे सारः चमत्कारः।’ अर्थात् वह अलौकिक चमत्कार जिससे मधुमति-भूमिका का निर्माण
होता है रस है।”1
भारतीय काव्यशास्त्र के प्रारंभिक दौर में रसों की संख्या
नौ बताई,
भरत ने तो नाटक के आठ रस को स्वीकार किए,
पर काव्य में नौ माने गए। आगे चलकर इसकी संख्या में वृद्धि
हुई और वह संख्या दस हुई आगे तो इसकी संख्या ग्यारह तक पहुँचती है- शृंगार,
वीर, करुण, अद्भुत, हास्य, भयानक, बीभत्स, रौद्र, शान्त, वात्सल्य, भक्ति ।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि लोकसाहित्य साहित्यशास्त्र के
मानदण्डों के अनुशासन से मुक्त होता है, किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि इसमें रस,
अलंकार, छंद आदि नहीं मिलते। रस को वैसे भी लोकगीतों की आत्मा ही
कही जाएगी, किंतु शिष्ट कविता में जिस तरह रस की सृष्टि के लिए जिन विभाव,
अनुभाव और संचारियों की जरूरत होती है,
यह स्थिति लोकगीतों के रस की नहीं होती। इसमें रस की
उत्पत्ति स्वतः होती है। अतः लोकगीतों में रस की प्रचुरता से इन्कार नहीं किया जा
सकता। “लोकगीतों में रस की अजस्र गंगा प्रवाहित है। जन-मन को रस स्नात कर देने की
इनमें अपूर्व क्षमता है। इन गीतों की रचना चाहे किसी भी क्षेत्र में हुई हो,
चाहे किसी भी बोली में हुई हो किन्तु इनका प्रभाव सर्वदेशीय
एवं सार्वजनीन है। अभावों से त्रस्त मानवजीवन को तन्मय कर ये गीत इतना आत्मविभोर
कर लेते हैं कि उन्हें आस्वादन के उन क्षणों में यथार्थ जगत सर्वथा विस्मृत हो
जाता है। उस समय वे रस की पयास्विनी में अवगाहन कर कृतार्थ हो उठते हैं। सच तो यह
है कि इन गीतों की रसात्मकता के सम्मुख महाकवियों की सरस सूक्तियाँ भी शुष्क एवं
नीरस जान पड़ती है।”2
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने तो यहाँ तक कहा है कि ‘ग्रामगीतों में मुझे तो रस की मात्रा व्यास-वाल्मीकि,
कालीदास, भवभूति, सूरदास और तुलसीदास से भी अधिक जान पड़ी है।’
लगभग सभी रस लोकगीतों में प्रकट होते हैं ।
शृंगार रस –
शृंगार रस का स्थायी भाव रति है । रति से आशय है
नायक-नायिका-वह चाहे पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका हो- का प्रेम। यह प्रेम दो
रूपों में प्रकट होता है- १ दोनों एक दूसरे के समीप प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रेम
को प्रकट करते है अर्थात् दोनों की मिलन अवस्था का वर्णन २. दोनों एक दूसेर से
वियुक्त अवस्था में रहते हैं। अतः इनकी वियोगजन्य स्थिति का वर्णन । संक्षेप में
नायक नायिका के मिलन के लिए बाह्य परिस्थितियाँ उनके लिए अनुकूल हो तो उन्हें सुखद
अनुभूति होती है और परिस्थितियाँ जब उनके प्रतिकूल हो तो दुखद अनुभूति।
इस प्रकार शृंगार के दो भेद १. संयोग शृंगार और २. वियोग शृंगार।
निम्न अवधी गीतों के अंशों में पत्नी के कथनों में पति की नजर से उत्पन्न होने
वाली प्रेमभावना एवं पति की प्रेमजन्य शरारत के वर्णन में संयोग शृंगार का सुन्दर
चित्रण मिलता है ।
“संवलिया रे
काहे मारै नजरिया ।
मारै नजरिया
जगावै पिरितिया,
संवलिया रे काहे
मारे नजरिया ।।
साँझ की चोरवा
समइले,
पलंग चढि बइठले हो
आरे हाई रे
मुसलनि प्रेम धरोहर हरखि के बाहर भड़ले हो।
मुसलनि खाटी तर
के पाटी सिरहाना पटडेहरि हो।
आरे हाइ रे सासू
मुसलनि राउर बेटा हरखि के बाहर भइले हो।”3
संयोग की तरह वियोग की अभिव्यंजना भी गीतों में प्रचुर
मात्रा में हुई है । अनेक प्रकारों से संबद्ध गीतों में तो इसकी झलक पाई जाती है,
किंतु बारहमासा के गीत तो वियोग के पर्याय ही कहे जा सकते हैं,
वैसे इन गीतों में मिलनसुख का वर्णन भी हो सकता है किंतु
आंशिक रूप में। प्रधानता तो विरहावस्था की ही होती है। प्रोषितपतिका नायिका की
स्थिति देखिए-
मगसर मगन हुयो
मन मेरो सुंदर सेज सँवारै।
किण संग बात करा
तन-मन की जाडों जुलम गुजारै
जोबन आन चढ्यो
गिगनारे नहीं किसी के सारै।
नहीं किसी के
सारै समद की झाल है।
मेरा पिया बसे
परदेश,
बिगाना माल है ।”4
करुण रस –
करुण रस का प्रभाव अत्यधिक है। भोज यदि शृंगार को ही एक रस
के रूप में स्वीकार करते है तो भवभूति करुण रस को ‘एको रसः करुण एवं
निमत्तेभेदात्त ।’ करुण ही एक रस है, अन्य रस तो भेद के कारण है। करुण रस का स्थायीभाव शोक है।
इस भाव की अभिव्यक्ति स्वजन-मृत्यु की पीड़ा, प्रिय वस्तु की हानि, पारिवारिक-सामाजिक जीवन में आने वाले कष्टों से होती है।
कन्याविदाय का प्रसंग, ससुराल में स्त्री द्वारा झेली गई तकलीफ़ों-वैधव्य,
प्रियजन की मृत्यु आदि से संदर्भित गीतों में करुण रस के
उदाहरण मिलते हैं। कन्या विदाई के प्रसंग का हृदय-द्रावक चित्र निम्न ब्रजगीत में
देखिए –
और के कौरे
गुडिया ओ छोड़ी,
रोवत छोड़ी
सहेली री।
मेरौ सब दुख
रिति गयौ पेटु
मैं हा फिर नहिं
जन मुंगी धीअ ।
मेरी धीअरि
जमैया लै गयौ।।”5
पति की मृत्यु के पश्चात विधवा हुई स्त्री की व्यथा एक मालवी गीत में देखिए – प्रसंग
रामायण से संबद्ध जरूर है किंतु इसके जरिए भारतीय समाज में एक विधवा का जीवन कितना
कष्टमय होता है इसका मार्मिक चित्रण इसमें हुआ है –
“वारी उमर मेरी
कैसे कटे,
न टूटे दूध के दाँत॥
पेले तो पीयर की
मारी। दूजे रामने विपता डारी,
तीजा पति लछमन
ने मारा,
विधवा कर डाली रे नाथ
मेरी फटन लगी
छाती ना टूटे दूध के दाँत ।।
लंका में नहीं
कोई हमारा, पीयर नहीं होत गुजारा,
वारी फटन लगी
छाती,
नाथ मेरी गोदो
रही खाली,
नहिं टूटे दूध के दाँत
नाथ मोहि विधवा
कर डाली,
ना टूटे दूध के दाँत।।”6
हास्य रस –
लोकगीतों में हास्य रस की भी कमी नहीं है। विवाह प्रसंग हो,
होली का त्यौहार हो या जन्मोत्सव इन अवसरों पर गाए जाने
वाले गीतों में स्थान-स्थान पर हास्यरस का पुट मिलता है। विवाह के अवसर पर अनेक
परिहास गीत गाए जाते हैं। इन गीतों में गाई जाने वाली गाली को सुनकर कोई भी
व्यक्ति अपनी हँसी को रोक नहीं सकता। हास्यरस का एक उदाहरण प्रस्तुत है-
“सगा जी ने काली
कुती परणावौ जी,
नारायण जी
परमेसर जी,
हथलेवो कींकर
जोडैजू नारायण जी परमेसर जी ।
सगै जी रौ हाथ
कुती रौ पंजो,
इऊँ हथलैवौ जोडै
जी।”7
वीररस –
शृंगार एवं शांत के साथ वीररस की भी प्रधान रसों में गणना
होती है। लोकगीतों में अनेक ऐतिहासिक व स्थानीय वीरपुरुषों के पराक्रम व पौरुष का
वर्णन हुआ है। राष्ट्रीय चेतना व देशभक्ति संबंधी कई गीतों में वीररस की प्रबलता
देखने को मिलती है। इस तरह के गीत भारत के लगभग सभी भाषा-भाषी प्रांतों के गाँव-गाँव
में सुनाई पड़ते है । हिन्दी लोकसहित्य में आल्हा, लेरिकायन जैसी रचनाएँ जो वीररस की गाथाएँ है। बुन्देली के
वीररस के गीतों के संबंध में उक्त विषय के एक अध्येता लिखते है- “वीररस के
बुन्देली लोकगीत इतिहास की कई शताब्दियों से अंग्रेजी राज स्थापना तक गूँजते रहे
हैं। सन् १८४२ में अंग्रेजों के विरुद्ध जैतपुर (बुन्देलखण्ड) के राजा परीक्षत की
वीरता इस प्रकार अभिव्यंजित हो उठी है –
ज्यों पाठे कौ झिरना रूकत नैयां। त्यों परीक्षत कौ होती टरत
नैयो।
भूरि हथिनियाँ गारद मिलि जाये। परीक्षत कौ तंगा कतल करजाये
।
डारे हथिनियाँ हजारन पछार। परीक्षत के तेगा न कर दऔ सहार।।”8
स्वतंत्रता संग्राम मे अपने प्राण न्यौछावर करने वाले शहीदों के शौर्य की पराकाष्ठा
देखिए –
‘देश के करतनवा केतने गएण
जेलखनवा वीर
झुलनवाँ झुलै ना।
करि कै तन मन धन
अरपनवा,
वीर झुलनवा झुलै ना।
पहिल झुलाइन
मजरेट भगतसिंह मरदनवाँ ।
हँसि-हँसि फाँसी
ऊपर झुलाइन गरदनवा ।
केतन घर में वीर
ललनवा ।
जलियां वाले बाग
मां केते ललनवा
गोली खाकै मरिगै
भारत मा के वीर ललनवा
कितने घर में
बिन सजनवाँ, वीर ने तन मन धन अरपनवा।।”9
शांतरस –
धार्मिक विषयों से संबंधी कई गीतों में स्थान-स्थान शांतरस
ज्यादा मात्रा में मिलता है। शांतरस का स्थाई भाव निर्वेद है। संसार की अस्सारता
एवं क्षणभंगुरता से उत्पन्न निर्वेद। देवी-देवताओं के गीत व भजन,
विविध व्रतों से संबंधी गीत, संतो की गीतात्मक वाणी, निर्गुनी गीत आदि में शांत रस की झाँकी दिखाई देती है। एक
राजस्थानी गीत का उदाहरण देखें-
“ऊँचे तो परबत
भवानी
कोयल कुलकै ए
मांय।
कोयल कुलकै
भवानी
मेवड़ो बरसै
भवानी
ताल भरियै मांय।”10
“आज के इस दौर में व्यक्ति संसार के मायाजाल में फँसता जा
रहा है। उसे प्रभु स्मरण के लिए समय ही नहीं है। प्रभु स्मरण संबंधी एक गीत देखिए
जिसमें संसार के सभी मायाजाल से दूर रहने को कहा गया है क्योंकि ये सब नश्वर है।
एक न एक दिन सब कुछ खत्म हो जाएगा। इनसे प्रीति रखना ही बेकार है। इन सभी जंजालों
से मुक्त हो जाना चाहिए। इससे अच्छा है कि हम प्रभु स्मरण करे और मन को निर्मल
बनाएँ। (बंजारा) लोकगीत देखिए –
“उठो ए रादा राम
भजो – राम भजो
राम भजवा री
बेला वेगीओ – कैसे भजु ओ म्हारा भोला भगवान
भोला भगवान –
जीवड़ों माया में लागो ओ राम
मति करो ए रादा
माया रो अभिमान – माया रो अभिमान
माया मारगिये
जासी।”11
वात्सल्य रस –
अधिकांश
भारतीय आचार्यो ने वात्सल्य को स्वतंत्र रस न मानकर शृंगार के अंतर्गत ही रखा,
किंतु भोज, भानुदत्त, विश्वनाथ आदि आचार्यो ने इसे स्वतंत्र रस के रूप में
स्वीकार किया। वात्सल्य का स्थायीभाव पुत्र स्नेह है। हिन्दी साहित्य में सूरदास
इस रस के बेजोड़ कवि माने गये हैं। पुत्र-जन्म संस्कार के अवसर पर गाए जाने वाले
सोहर तथा लोरी या पालने के गीतों में अधिकांश गीत वात्सल्य रस-धारा से ही युक्त
है। इन गीतों में माता-पिता का अपने पुत्र-पुत्री के प्रति प्रेमभाव प्रकट होता
है। कृष्ण के बालरूप एवं उनकी बाललीलाओं को विषय बनाकर गाए जाने वाले अनेक गीत
वात्सल्य रस से ओतप्रोत है।
कन्यैहा झूले
पालना ओ धीरे
कन्हैया झूले
पालना ओ धीरे-धीरे
को जौ झूले कौन
झुलावै
किसके लाल कौन
दे झुकवा
कौन दे झुकवा हो
धीरे-धीरे।
क्रिसन झुलै
जसुदा झुलावैं
नन्दजी के लाल
बेई नौ देय झुकवा
तो दय झुकवा हो
धीरे धीरे।”12
कृष्ण की तरह राम के बालरूप का वर्णन भी मिलता है – जिसमें
इनके प्रति भक्तों की वात्सल्यभाव से जुड़ी भक्ति ही है –
“चला देखि आई
राम के चरण कैसे
हमरे राम जी कै
छोटा-छोटा गोडवा।
चला देखि आई राम
जी चलथे कैसे।
हमरे रामजी कै
छोटा-छोटा हाथवा,
चला देखि आई
रामजी जेवथे कैसे।
हमरे रामजी कै
छोटि-छोटि दंतुली
चला देखि आई
रामजी हंसत कैसे।
हमरे रामजी कै
बड़ी-बड़ी अँखियाँ,
चला देखि आई
रामजी ताकत कैसे।”13
वात्सल्य का एक और उदाहरण –
सो जा मेरे
रामदुलारे सो जा,
आई सपनों की परी,
तुझको सुलाने को आई।
लाई चंदा का हिंडोला
झुलाने को लाई।
नूर आँखों के
दिलके सहारे सो जा।”14
उक्त रसों के अतिरिक्त लोकगीतों में भक्ति, भयानक, बीभत्स, अद्भुत आदि रसों का
परिपाक भी अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है।
संदर्भ –
१. समीक्षायण, प्रो. पारुकांत देसाई, पृ. १३७
२. हिन्दी लोकसाहित्य, डॉ. गणेशदत्त सारस्वतः पृ. ३२५
३. अवधी और भोजपुरी लोकगीतों का सामाजिक स्वरूप,
अनीता : उपाध्याय, पृ. २४९
४. वैचारिकी (पत्रिका) अगस्त सितम्बर २०१०, लोक में बारहमासा- बारहमासा में लोक,
विजय वर्मा, पृ. २६
५. लोकसाहित्य के प्रतिमान डॉ. कुन्दनलाल उप्रेती, पृ. २७७
६. मालवा के लोकगीत, पृ. १३८ ।
७. जैसलमेर के शृंगारिक लोकगीत, डॉ. भूराराम सुथार, पृ.
२२०
८. शोधार्णव (पत्रिका) जनवरी जून २०१३, बुन्देलखण्ड के वीरगीत, डॉ. भावना एन. सावलिया, पृ. १६०
९. हिन्दी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन- डॉ. गिरीशसिंह
पटेल, पृ. २५४-२५५
१०. राजस्थानी लोकगीत विहार, नरोत्तम स्वामी पृ. ०९
११. साहित्य परिवार (पत्रिका) जुलाई- २०१५, बंजारा लोकगीतों में रसाभिव्यक्ति’ प्रो. मीना जी बंजारा, पृ.६०
१२. लोकसाहित्य का शास्त्रीय अनुशीलन,
डॉ. महेश गुप्त, पृ. २५६
१३. अवधी लोकगीतः समीक्षात्मक अनुशीलन, पृ. ४९९
१४. हिन्दी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन,
पृ, २५३
(‘लोकगीत स्वरूप एवं प्रकार’ से साभार, पृ. 99-106)
डॉ. हसमुख परमार
वल्लभ विद्यानगर
जिला- आणंद
(गुजरात) – 388120
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