शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

निबंध

 


ढाई आखर

डॉ. पूर्वा शर्मा

‘प्रेम’– शब्दकोश का ही नहीं बल्कि जीवन का सर्वाधिक सुंदर शब्द है। यह सुंदर शब्द आकर्षक तो है ही साथ ही बहुप्रयुक्त एवं बहुचर्चित भी। आकार में छोटा, महज ढाई अक्षर के इस शब्द ‘प्रेम’ के मर्म की गहराई और विस्तार अनंत है। शब्दों के माध्यम से इसे बयाँ करना असंभव है। हम चाहे जितना भी कहें लेकिन प्रेम की कहानी तो है अनंता। जिगर मुरादाबादी के शब्दों में –

कोई हद ही नहीं यारब मुहब्बत के फ़साने की

सुनाता जा रहा है जिसको जितना याद होता है।

दरअसल कितना कुछ लिखा जा चुका है इस प्रेम के विषय पर, प्रेम की अनेक दास्तानों को बयाँ करती अनगिनत पुस्तकें न जाने कितने पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रही हैं।  लेकिन फिर भी इसको परिभाषित करना, व्याख्यायित करना, अभिव्यक्त करना बहुत कठिन है। कई बार मन माफ़िक शब्द ही नहीं मिल पाते इस प्रेम की अनुभूति को बताने में, जताने में। असल में प्रेम अभिव्यक्ति के विषय से ज्यादा हृदयतल में महसूस किए जाने वाले भाव का नाम है।

  मनुष्य जीवन का मूलाधार है – प्रेम। प्रेम के बिना मनुष्य का जीवन संभव नहीं। सारा संसार इस प्रेम की डोरी से बँधा हुआ है। एक ऐसी डोर जो दिखाई नहीं देती लेकिन हम सब इससे बँधें हुए हैं। मनुष्य के जीवन एवं मनुष्यता के विकास में प्रेम की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण रही है। कबीरदास के विचार से जिस मनुष्य के हृदय में प्रेम का संचरण नहीं होता वह हृदय श्मशान के समान है, जीवित होते हुए भी मृतक के बराबर –

जेहि घट प्रेम न संचरै, सो घट जानि मसान ।

जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ।।

सामान्यतः प्रेम – किसी के प्रति अत्यधिक आकर्षण, विशेष जुड़ाव, निजी लगाव की एक सुदृढ़ भावना है। मनुष्य एवं मनुष्येतर दोनों के प्रति हमारा यह प्रेमरूपी लगाव होता है। किसी व्यक्ति,वस्तु, स्थान, जीव, ईश्वर आदि के प्रति यही प्रेम भावना निस्वार्थ पैदा होती है। जिस के प्रति यह गहरा लगाव होता है उसे प्राप्त करने में, उसे प्रसन्न रखने में,उसके प्रति पूर्णतया समर्पित होकर उसके लिए कुछ भी कर गुजरने में हमें अत्यधिक सुख और सुकून का अनुभव होता है। प्रेम समर्पण और त्याग सिखाता है। त्याग और समर्पण प्रेम को उच्चता की ओर ले जाता है। राम के प्रति लक्ष्मण अथवा भरत का प्रेम उनके त्याग में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कान्हा के प्रति मीरा का समर्पण भाव तो किसी से कहाँ छुपा है। मन से, कर्म से और वचन से किसी के प्रति समर्पण की प्रेरणा तो सिर्फ़ प्रेम से ही प्राप्त होती है। कोई भी रिश्ता तभी प्रगाढ़-अटूट हो सकता है जब उसका आधार प्रेम हो। प्रेम हृदय की सर्वोत्तम अनुभूति-कोमलतम भाव है। प्रेम का विस्तार अत्यधिक है। मनुष्य के हृदय में अधिकांश भाव ज्ञात-अज्ञात रूप में प्रेम-प्रसून होते हैं। बर्टेण्ड रसेल लिखते हैं – “प्रेम मानव जीवन की अत्यंत महत्त्वपूर्ण बातों में से है और मेरे विचार में प्रत्येक ऐसी प्रणाली बुरी है जिसमें इसके स्वतंत्र विकास में बाधा डाली जाती है।”

प्रेम के अनेक पर्याय हैं, जैसे – स्नेह, प्रीति, अनुराग, अनुरक्ति, लगाव, मुहब्बत, इश्क़ आदि।

प्रेम शब्द का अर्थ है – जो प्रीति देता हो यानी अनंत तृप्ति प्रदान करता हो।  प्रेम शब्द एक अत्यंत व्यापक शब्द है। इसका दायरा बहुत विस्तृत है। प्रेम की व्याप्ति को हम मुख्यतः लौकिक एवं अलौकिक, इन दो रूपों में देखते हैं। अर्थात् लौकिक प्रेम एवं अलौकिक प्रेम। प्रेम के इन दोनों रूपों में से विशेषतः लौकिक प्रेम में विस्तार एवं वैविध्य अधिक है। 

सामान्य अर्थ में देखा जाए तो जो इस लोक अथवा संसार से संबंध रखता हो वह लौकिक और जो इस लोक से परे हो, अभूतपूर्व हो वह अलौकिक है। इस लोक, धरातल अथवा इस संसार के व्यक्ति, वस्तु, स्थान, जीव आदि का मूर्त आधार प्रेम को मिलने पर वह लौकिक प्रेम कहलाता है। यह लौकिक प्रेम मनुष्य एवं मनुष्येतर दोनों के प्रति होता है। मनुष्येतर में भी जड़ एवं चेतन दोनों के प्रति।

सामाजिक एवं पारिवारिक रिश्तों का मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इन रिश्तों का मुख्य आधार प्रेम ही होता है। प्रेम के विविध रूप इन रिश्तों में मिलते हैं। इन विविध रूपों में – पति-पत्नी का प्रेम अर्थात् प्रणय अथवा दाम्पत्य, संतान के प्रति माता-पिता का प्रेम अर्थात् वात्सल्य, भाई-बहन का प्रेम अर्थात् स्नेह , अपने से बड़ों के प्रति प्रीति अर्थात् श्रद्धा, मित्र अथवा दो समवयस्कों में प्रेम यानी सख्य या मैत्री भाव, गुरु-शिष्य प्रेम, सेव्य-सेवक प्रेम आदि प्रेम के अनेक रूप हम देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त भक्ति यानी श्रद्धा और प्रेम के योग से हुई धर्म की रसात्मक अनुभूति, प्रकृति-प्रेम, जन्मभूमि-मातृभूमि अथवा राष्ट्र के प्रति प्रेम या देश-प्रेम, मानव प्रेम अथवा वैश्व-मैत्री, कुटुंब प्रेम आदि भी लौकिक प्रेम से संबद्ध है।   

प्रेम के इन सभी भिन्न-भिन्न रूपों में से पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका के बीच दाम्पत्य-प्रेम अथवा शृंगार रस से संबंधित ‘प्रेम’ का जीवन में विशेष महत्त्व रहा है। यहाँ तक कि प्रेम शब्द सुनते ही हमें सर्वप्रथम इसी भावक्षेत्र का बोध होता है। शृंगार रस से संबंधित यह प्रेम भिन्न लैंगिक व्यक्तियों के काम संबंधित प्रणय या दाम्पत्य भाव का वाचक है। संयोग एवं वियोग – शृंगार की दो अवस्थाओं में से संयोगावस्था में मिलन के क्षण अत्यधिक आनंद देने वाले होते हैं। अपने प्रिय के साथ बिताए प्रत्येक क्षण इस अवस्था को अविस्मरणीय एवं रोमांचकारी बना देते हैं। लेकिन इसकी ठीक विपरीत स्थिति वियोगावस्था में होती है। अपने प्रिय से दूर विरह की यह स्थिति सबसे ज्यादा पीड़ा देती है। विरह की पीड़ा मृत्यु के समान होती है। विरह की अग्नि में तपकर ही प्रेम की पराकाष्ठा, उसका उदात्त स्वरूप सामने आता है। प्रेम की पवित्रता, प्रगाढ़ता, एकनिष्ठता की परख इस अवस्था से होती है। मिर्ज़ा ग़ालिब का अंदाज़े बयाँ देखिए –

कहूँ किस से मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है

मुझे क्या बुरा था मरना? अगर एक बार होता।

माता-पिता का अपनी संतान के प्रति, अधिक आयु वालों का अपने से छोटों के प्रति जो प्रेम होता है उसमें ममत्व भाव का संयोग होता है, जो वात्सल्य प्रेम है। वात्सल्य प्रेम का आलंबन शिशु है, जिसकी मनोहारी चेष्टाएँ, स्पर्श और क्रीड़ाएँ इसके प्रकट होने का आधार होता है। कृष्ण अर्थात् कान्हा के सौम्य स्वरूप एवं बालक्रीड़ाओं-लीलाओं से कौन परिचित नहीं है? दरअसल बालक को देखकर मन उसकी सृष्टि करने वाले ईश्वर की भावना में मग्न हो जाता है।  यही कारण है कि सूर एवं तुलसी ने क्रमशः राम व कृष्ण की बाल-चेष्टाओं का वर्णन करते हुए उनके संबंध में अलौकिकता और ईश्वरीयता की भावना को भी व्यक्त किया है। इस वर्णन को सुनकर ही मन में वत्सल भाव जाग उठता है। इस भाव की अधिकता शिशु के नन्हे रूप-रंग को देखकर ही होती है। अपने बच्चे के प्रति माता-पिता का यह भाव तो नैसर्गिक है ही लेकिन अन्य किसी प्रौढ़/ वृद्ध का भी दूसरों की संतान के प्रति वैसा ही स्नेहपूर्ण भाव दिखाई देना स्वाभाविक है। इस तरह वात्सल्य में किसी छोटे बालक के प्रति निश्छल एवं निष्कपट प्रेम की भावना होती है। यह प्रेम का अत्यंत निर्मल-पवित्र एवं आदर्श रूपों में सर्वश्रेष्ठ रूप है। बालक सृष्टि का सबसे पवित्र, निष्पाप एवं ईश्वरीय जीव है, इस बात की सुंदर काव्यात्मक अभिव्यक्ति देखिए –

कौन तुम अतुल अरूप अनाम? अये अभिनव, अभिराम

निर साँसों के पिंजर द्वार! कौन हो तुम अकलंक, अकाम?

अकुन तुम गूढ़, गहन, अज्ञात? अहे निरूपम नवजात!

विमल हिम-जल के एक प्रभात, कहाँ से उतरे तुम छबिमान!

      सुमित्रा नंदन पंत (पल्लव की ‘शिशु’ नामक कविता)

प्रकृति के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, इन दोनों को अलग-अलग करके देखना मुश्किल है। प्रकृति ने मनुष्य को सदा कुछ न कुछ दिया ही है। मनुष्य एवं प्रकृति का परस्पर घनिष्ठ संबंध रहा है। सदैव मनुष्य की सहचरी रही प्रकृति से मनुष्य को वात्सल्य, ममता सहानुभूति आदि प्राप्त होती रही है। अपने चारों ओर प्रकृति को देखकर मनुष्य के हृदय में एक प्रेम भावना उत्पन्न होती है। प्रकृति का सौम्य रूप हो अथवा भीषण रूप, प्रकृति प्रेमी मनुष्य उसके हर रूप के प्रति अपना प्रेम प्रकट करता है। प्रकृति का दर्शन उसका स्नेहिल और शीतल स्पर्श हमें एक सौन्दर्य बोध एवं सुखद अनुभूति कराते हैं। इसके साथ ही हमारे हृदय में प्रेम भाव को अंकुरित कराने वाले प्रकृति के प्रति प्रेम स्वाभाविक है। यह प्रकृति प्रेम काव्य का भी केन्द्रीय विषय रहा है। अंग्रेजी के कवि शैली (Shelley) को प्रकृति के हरेक रूप से प्रेम है –

I love snow and all the forms

Of the radiant frost;

I love waves, and winds, and storms,

Everything almost

Which is Nature's, and may be

Untainted by man's misery.

(Quoted from ‘Invocation’)

अपनी जन्मभूमि, अपनी मिट्टी, अपने देश, अपने राष्ट्र से सहज लगाव स्वाभाविक है। घर, ग्राम एवं प्रांत के प्रति प्रेम भी देश-प्रेम का ही अंग है। राष्ट्र प्रेम में व्यक्ति अपनी जाति, संप्रदाय, समाज, अपना निवास स्थान, अपने सीमित भू-भाग, राज्य आदि से निकलकर सम्पूर्ण देश, राष्ट्र और देश की सभी जातियों-धर्म संप्रदाय-संस्कृति एवं समस्त भूमि से बँधता है, उससे प्रेम भाव से जुड़ता है। देश के प्रति मान-सम्मान की भावना, अपने देश की सभ्यता-संस्कृति पर गौरव, देश स्वतंत्रता-सुरक्षा व देश वासियों की समस्याओं के हल हेतु चिंतित-जागरूक, देश के भविष्य के उज्ज्वलतम रूप को देखने की आकांक्षा आदि बिन्दु हमारे देशप्रेम-राष्ट्रप्रेम से जुड़े हैं। साथ ही देश के प्राकृतिक वैभव – यानी समुद्र, पहाड़, नदियाँ, आकाश, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि को देखकर आनंदित होना और अपनी मिट्टी से सनकर आह्लादित होना और अपने देशवासियों से प्रेम करना यह सभी भावनाएँ राष्ट्रप्रेम से जुड़ी है।

प्रत्येक मनुष्य को अपने धर्म-संस्कृति, अपनी भाषा आदि से जुड़ाव-लगाव तो होता ही है लेकिन अपने धर्म एवं संस्कृति के अतिरिक्त अन्य धर्म और संस्कृति के प्रति सहिष्णु एवं उदार होना हमारी उच्च संस्कृति का सूचक है। देश प्रेम अथवा राष्ट्र प्रेम की भावना तो उदात्त है ही लेकिन इससे ऊपर उठकर जब यह भावना समस्त मानव जाति के कल्याण के वैश्वविक धरातल पर पहुँचती है तो यही भावना विश्व भावना अथवा वसुधैव कुटुंबकम की भावना बन जाती है। राष्ट्र प्रेम विश्व प्रेम तक पहुँचने की प्रथम सीढ़ी है। जो व्यक्ति देश से प्यार नहीं कर सकता वह विश्व से कैसे करेगा? वैश्विक शांति का आधार तो मानव प्रेम है। वर्तमान परिस्थिति को देखकर हम कह सकते हैं कि आज विश्व को मानवता की बहुत आवश्यकता है, बशीर बद्र ने सच ही कहा है – 

सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें

आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत।

ईश्वरीय प्रेम अलौकिक प्रेम है। भक्ति के मार्ग से ही ईश्वरीय प्रेम प्राप्त हो सकता है। इस संसार में रहते हुए ईश्वर को अलौकिक मानकर उसकी भक्ति, उसकी साधना करना एक भक्त के जीवन का उद्देश्य होता है। जो ईश्वर से प्रेम करते हैं उनके लिए बस ईश्वर ही परम सत्य होता है और समस्त दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं होता। भक्त तो बस अपने आप को ईश्वर को समर्पित कर देता है। अलौकिक प्रेम में ईश्वर को ईश्वर के रूप में लेते हुए तो प्रेम किया ही जाता है, साथ ही कई बार सामाजिक रिश्तों को स्थापित करते हुए भी यह प्रेम प्रकट होता है, यथा –

तुम ही हो माता, पिता तुम ही हो।

तुम ही हो बंधु, सखा तुम ही हो ॥

      नरेश शर्मा

सूफी मत के अनुसार ‘इश्क़ हकीकी’ (प्रेम) में ईश्वर को स्त्री के रूप में भी देखा है। “सूफी मत में ईश्वर की भावना स्त्री के रूप में की गई है। वहाँ भक्त पुरुष बनकर उस स्त्री की प्रसन्नता के लिए  सौ जान निसार होता है, उसके द्वार पर जाकर प्रेम की भीख माँगता है। ईश्वर एक दैवी स्त्री के रूप में उसके सामने उपस्थित होता है – इस तरह सूफी मत में ईश्वर स्त्री और भक्त पुरुष है।” सूफी अपने आप को भूलाकर परमात्मा से एकाकार करना चाहते हैं। सूफी अपने प्रेमी यानी ईश्वर को याद करते हुए गोल-गोल घूमकर नाचते हैं –

इशक डेरा मेरा अन्दर कीता।

भरके ज़हिर पिआला मैं पीता।

झब दे आवीं वे तबीबा नहीं ते मैं मर गईआ।

तेरे इशक नचाया करके थईआ थईआ।

      बुल्ले शाह

प्रेम का क्षेत्र विशाल है। प्रेम के विभिन्न रूप है। जिस हृदय में प्रेम के विभिन्न रूप उचित अनुपात में प्राप्त होते हैं वह हृदय स्वस्थ हृदय कहलाता है। लोक-परलोक, मनुष्य-मनुष्येतर, जड़-चेतन तक इसके स्पर्श की पहुँच है। मैत्री हो या सखाभाव, श्रद्धा हो या भक्ति, दाम्पत्य हो या समपर्ण भाव, वात्सल्य हो या राष्ट्र प्रेम – चाहे कोई भी भाव हो प्रेम के अनेक रूप में प्रेम तो सिर्फ़ प्रेम ही है। इन सब प्रेम रूपों का स्थायी भाव रति ही है जो प्रेम के रूप भेद से अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इसके लिए हृदय में कोई अलग-अलग खंड नहीं है। एक ही हृदय में यह सब प्रकार के प्रेम समन्वित रूप से गतिशील रहते हैं।

प्रेम के बारे में कहा जाता है कि न तो प्रेम को पैदा किया जा सकता है न ही खत्म, न ही इसे खरीदा जा सकता है और न ही इसे बेचा जा सकता है। प्रेम तो बस हृदय की उपज है। ग़ालिब कहते हैं –

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’,

कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।

प्रेम तो साहित्य का स्थायी भाव है। साहित्य की दीर्घ परंपरा में आरंभ से लेकर वर्तमान समय तक जिन विषयों का विशेष स्थायित्व रहा है उनमें प्रेम सर्वोपरि है। अनगिनत सर्जकों ने प्रेमानुभूति का बड़े ही सहजता, सरलता से मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। सर्जकों द्वारा किए गए प्रेमोद्गर साहित्य की अमूल्य निधि है।

प्रेम के बारे में एक ही बात कही जा सकती है कि प्रेम से बढ़कर दुनिया में और कोई ज्ञान नहीं है –

पोथी पढ़-पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

 

 


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

1 टिप्पणी:

  1. ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित ( डॉक्टर) होय ...सौ बात की एक बात कही है । वास्तव में प्रेम के बिना जीवन नीरस और बेजान ही होता है । अच्छा लेख । आशीर्वाद पूर्वा ।

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