हिन्दी व्याकरणिक कोटियों के अध्ययन की प्रासंगिकता
डॉ. भावना ठक्कर
भाषा भावों की अभिव्यक्ति करनेवाला एक
सशक्त माध्यम है। भाषा से होनेवाली यह अभिव्यक्ति सुंदर, सार्थक और पूर्ण होनी चाहिए अर्थात् उसमें शुद्धता, स्पष्टता और सटीकता होनी चाहिए। भाषा को अभिव्यक्त करनेवाली सहज तथा
लघुत्तम इकाई वाक्य है। यह वाक्य एक या एक से अधिक व्याकरणिक योग्यता प्राप्त किये
हुए पदों से निर्मित होता है। इन पदों तथा वाक्यों के लेखन एवं उच्चारण में
शुद्धता व स्पष्टता लाने के लिए उन्हें व्याकरण के कई अनुशासनों का पालन करना
पड़ता है। इस अनुशासन को 'व्याकरण' तथा उसके अंग-उपांगों को 'व्याकरणिक कोटियाँ' कहा जाता है।
व्याकरणिक कोटियाँ भाषाई संरचना को नियंत्रित करनेवाली कोटियाँ हैं। ये
व्याकरणिक कोटियाँ मुख्य रूप से रूप साधक कोटियाँ हैं, जो उपकरणात्मक तत्वों को पद / पदबंध का रूप प्रदान करती है। व्याकरणिक
कोटियों को विभिन्न विद्वानों ने परिभाषित करने का भी प्रयास किया है। जैसे-
कुसुमलता
वर्मा के अनुसार
"किसी भाषा में पाए जानेवाले शब्द समूह का व्याकरणिक रूपों में संगठित 'रूप' ही 'व्याकरणिक कोटि' कहलाती है।"1
डॉ. एस. तोम्बा सिंह ने 'व्याकरणिक कोटियों का अध्ययन' में कहा है कि - "शब्दों को सुनने पर श्रोता को
उन शब्दों के कोशीय अर्थ का ज्ञान तो होता है, किन्तु साथ ही लिंग, वचन, पुरूष, कारक, काल, वाच्य आदि व्याकरणिक अर्थों का संकेत भी उसको मिलता है। उन लिंग आदि के
व्याकरणिक अर्थों को ही भाषाविज्ञानी व्याकरणिक कोटियाँ कहते हैं।
हिन्दी की व्याकरणिक कोटियाँ :
संप्रेषण व्यवस्था की लघुत्तम इकाई वाक्य मानी जाती है, जिसमें कम से कम दो पदबंधों की आवश्यकता पड़ती है- संज्ञा
पदबंध और (२) क्रिया पदबंध। ये दोनों पदबंध व्याकरणिक कोटियों द्वारा साधित होकर
एक-दूसरे से संगति मिलाते हैं और यह संगति ही अर्थतत्व को स्पष्टता के साथ श्रोता
तक पहुँचाती है। व्याकरणिक कोटियों को मुख्यतया दो भागों में विभाजित किया जा सकता
है- संज्ञापदबंध साधक व्याकरणिक कोटियाँ (जिसमें लिंग, पुरूष, वचन तथा कारक समाहित है) और क्रियापदबंध साधक व्याकरणिक
कोटियाँ (जिसमें वृत्ति, पक्ष, काल तथा वाच्य समाहित है)। इनका विवेचन करने से पूर्व व्याकरणिक कोटियों के
संबंध में रहे उल्लेखनीय तथ्यों को देखना आवश्यक है, जो इस प्रकार है- (१) प्रत्येक भाषा की व्याकरणिक कोटियाँ
भिन्न- भिन्न होती है। (२) सभी भाषाओं की व्याकरणिक कोटियाँ काल सापेक्ष होती हैं।
(३) भाषा की संरचना के अनुसार व्याकरणिक कोटियों का निर्धारण किया जाता है।
(१) संज्ञापदबंध साधक व्याकरणिक कोटियाँ
:
ये
व्याकरणिक कोटियाँ क्रियापद की बाह्य प्रकृति से सम्बद्ध होती हैं और नाम पद के
साथ अन्वय की स्थिति में प्रभाव डालती हैं। इसमें मुख्य रूप से लिंग, पुरूष, वचन तथा काल का समावेश होता है। इसका
विवेचन इस प्रकार है-
(१) लिंग :
लिंग एक
अनिवार्य और आवश्यक व्याकरणिक कोटि है। यह एक ओर जहाँ शब्द स्तर पर व्युत्पादक
कोटि है, वहीं दूसरी ओर पदबंध या वाक्य स्तर पर रूप साधक कोटि
भी है। जिन संज्ञा शब्दों के द्वारा किसी प्राणी अथवा वस्तु का नर या मादा के रूप
में बोध होता है उसे 'लिंग' कहते हैं। जैसे- सीता, गाय, बैल, घोड़ा आदि। हिन्दी भाषा में लिंग के
मुख्य दो भेद हैं (१) पुल्लिंग और (२) स्त्रीलिंग। यहाँ संस्कृत की तरह नपुंसकलिंग
नहीं है।
(१)
पुल्लिंग : जिस संज्ञा के द्वारा पुरूष जाति का बोध होता है, उसे 'पुल्लिंग' कहते हैं। जैसे- श्याम, लड़का, हाथी, शेर आदि।
(२)
स्त्रीलिंग : जिस संज्ञा के द्वारा स्त्री जाति का बोध होता है, उसे स्त्रीलिंग कहते हैं। जैसे- लड़की, हथिनी, बेटी आदि।
हिन्दी शब्दों के लिंग का निर्णय करना
अत्यंत कठिन है। यह साधारणतया दो आधार पर होता है - (१) प्राकृतिक या अर्थ और (२)
व्याकरणिक या रूप। पुरूष-स्त्री, भाई-बहन, गाय-बैल आदि प्राणीवाचक (चेतन) शब्दों का लिंग 'अर्थ' के अनुसार तय होता है क्योंकि यहाँ स्पष्ट है कि जो
पुरुषवाचक है वह पुल्लिंग है और स्त्रीवाचक स्त्रीलिंग है तथा अप्राणीवाचक (अचेतन)
शब्दों का लिंग 'रूप' के अनुसार निश्चित होता है।
(२) पुरूष :
पुरूष
कोटि विशुद्ध रूप से सर्वनाम से संबंधित है। पुरूष कोटि का प्रभाव क्रियापद की
तिङ् अवस्था पर लक्षित है, कृदन्त अवस्था पर नहीं। संरचना के स्तर
पर पुरूष कोटि का प्रभाव स्वतंत्र रूप से इतना सक्रिय नहीं है कि जिसके आधार पर
अलग वर्गीकरण प्रस्तावित किया जाए। पुरूष शब्द का बोध मूलतः पुरूषवाचक सर्वनाम के
द्वारा होता है।
बोलनेवाले, सुननेवाले तथा जिसके बारे में कथन किया जा रहा है वह इन तीनों पुरुषों के
लिए जिन सर्वनाम का प्रयोग होता है, उसे 'पुरूषवाचक सर्वनाम' कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो
वक्ता, श्रोता या जिसके विषय में कुछ कहा जाए इन तीनों के
बोधक सर्वनाम ही पुरूषवाचक सर्वनाम है। हिन्दी में मैं, आप, तुम, वह, वे आदि पुरूषवाचक सर्वनाम है।
भाषा प्रयोग की दृष्टि से हिन्दी में
तीन पुरुष हैं- (१) उत्तम पुरूष (वक्ता), (२) मध्यम पुरूष (श्रोता), (3) अन्य पुरूष (अन्य लोग, जिसके बारे में कथन हो)। इन प्रत्येक
पुरूष का एकवचन और बहुवचन होता है। हिन्दी में पुरूष सूचकता सर्वनामों के द्वारा
तथा क्रिया के कुछ रूपों के द्वारा व्यक्त होती है।
(३) वचन :
वचन
मुख्य रूप से पदबंध या वाक्य स्तर पर रूप साधक कोटि है। समस्त व्याकरणिक कोटियों
में यह कोटि व्यापक रही है। प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के आरंभ में ही द्विवचन का
लोप हो गया था - 'द्विवचनस्य बहुवचन्'।2 आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में भी
द्विवचन नहीं है।
संज्ञा या अन्य विकारी शब्दों के जिस
रूप से एक या एक से अधिक वस्तुओं का बोध होता है, उन्हें 'वचन' कहते हैं। भोलानाथ तिवारी के शब्दों
में वचन की परिभाषा देखें तो "शब्द के रूप का वह विधान जिससे उसके अर्थ में
संख्या का बोध हो, 'वचन' कहलाता है ।"3 वचन की संकल्पना मूलतः संख्यात्मक
(परिमाणात्मक) है अर्थात् इससे 'संख्या' का बोध होता है। व्याकरणिक वचन का विधान यह बताता है कि शब्द के अर्थ की
संख्या क्या है ? एक है, दो है या अधिक है तथा इस आधार पर हिन्दी भाषा में वचन के मुख्य दो भेद हैं-
(१) एकवचन और (२) बहुवचन।
(१)
एकवचन : शब्द के जिस रूप से एक व्यक्ति या एक वस्तु का बोध होता है, उसे 'एकवचन' कहते हैं। जैसे - लड़की, लड़का, राम, गाय, थाली आदि।
(२) बहुवचन : शब्द के जिस रूप से एक से
अधिक व्यक्ति या वस्तु का बोध होता है उसे 'बहुवचन' कहते हैं। अर्थात् समूह के लिए बहुवचन का प्रयोग होता
है। जैसे- लड़कियाँ, लड़कें, गायें, थालियाँ, किताबें आदि ।
वचन की दृष्टि से हिन्दी में कुछ
महत्वपूर्ण बातें देखें तो यहाँ एकवचन में 'है' क्रिया का प्रयोग अनुस्वार (॰) रहित होता है तथा
बहुवचन और आदरसूचक संज्ञा, सर्वनामों में 'है' क्रिया 'अनुस्वार' (॰) लगाकर प्रयुक्त की जाती है। जैसे- ए. व. : लड़का गीत गा रहा है। ब. व. :
लड़के गीत गा रहे हैं।
हिन्दी भाषा में कभी आदर, अतिशयता, विस्मय आदि का संकेत देने के लिए भी
शब्द को बहुवचन में प्रयुक्त किया जाता है और वाक्य में यदि क्रियारूप की अन्विति
उस संज्ञा के साथ हो तो क्रियारूप भी बहुवचन में रखा जाता है। जैसे - (१) गांधीजी यहाँ कभी आए थे। (२) वाह ! क्या कहने हैं रंग-ढंग के ?
हिन्दी में कुछ शब्द सदैव एकवचन में
होते हैं, जैसे - जनता, वर्षा, पुलिस, भीड़ आदि। इसके अतिरिक्त भाववाचक, व्यक्तिवाचक एवं द्रव्यवाचक संज्ञाओं का प्रयोग लगभग 'एकवचन' में होता है। साथ ही साथ हिन्दी के कुछ
शब्द ऐसे हैं, जो सदैव बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं। जैसे- दर्शन, हस्ताक्षर, लोग, समाचार, आँसू, ओंठ, आशीर्वाद आदि ।
(४) कारक :
वाक्य
के संदर्भ में पद एक प्रकार्यात्मक इकाई है तो कारक प्रकार्यबोधक व्याकरणिक कोटि। कारक
की संकल्पना संबंधात्मक है। एक वाक्य विशेष में आये संज्ञा अथवा सर्वनाम पदों का
परस्पर संबंध एवं उनका क्रिया के साथ संबंध जिस व्याकरणिक कोटि के द्वारा विवेचित
होता है, उसे 'कारक' कहते हैं। जैसे - "राम ने रावण को बाण से मारा।"
कारक का सीधा संबंध क्रिया के साथ होता
है। कारक का अर्थ है- करनेवाला या क्रिया का निष्पादन । इस शब्द की व्युत्पत्ति 'कृ' धातु से हुई है ।
"क्रियान्वयित्वं कारकत्वं"4 अर्थात् क्रिया के साथ जिसका
सीधा संबंध हो, उसे 'कारक' कहते हैं।
विभक्ति : कारक
सूचित करने के लिए संज्ञा या सर्वनाम के आगे जो प्रत्यय लगाये जाते हैं, उन्हें 'विभक्ति' कहते हैं। ये कारक विभक्ति अथवा चिह्न संज्ञा, सर्वनाम तथा अन्य शब्दों के पीछे आते हैं, इसलिए इन्हें 'परसर्ग' भी कहा जाता है। 'पर' का अर्थ है 'पीछे' और 'सर्ग' का अर्थ है 'जुड़ना'। इस प्रकार हिन्दी भाषा में कारकीय रूप दो प्रकार से
बनते हैं-
(१) कारक चिह्नों या परसर्गो द्वारा :
हिन्दी
में कारकीय संबंधों की अभिव्यक्ति जिन भाषिक रूपों या तत्वों के माध्यम से होती है
उनमें से एक परसर्ग या कारक-चिह्न है, जो नामपद के बाद आते हैं और अलग से
लिखे जाते हैं। ये कारकीय संबंधों को व्यक्त करने के अलावा अन्य कोई अर्थ नहीं
रखते। हिन्दी में इस कारक चिह्न या परसर्गों की व्यवस्था इस प्रकार है-
कर्ता |
कर्म |
करण |
संप्रदान |
अपादान |
संबंध |
अधिकरण |
ने |
को |
से, द्वारा |
को, के लिए |
से (अलगाव) |
का, के, की रा, रे, री ना, ने, नी |
में, पर |
(२)
परसर्गवत् प्रयुक्त अन्य स्वतंत्र शब्दों द्वारा :
हिन्दी
में कुछ स्वतंत्र शब्दों का प्रयोग परसर्ग के समान किया जाता है। ये शब्द मुक्त
रूप में भी अर्थवान होते हैं तथा कारकीय संबंधों को भी व्यक्त करते हैं। ये न तो
प्रत्यय है और न ही परसर्ग। कारकीय विभक्ति एवं परसर्ग न होकर भी ये शब्द उनका काम
करते हैं। इसीलिए इन्हें ‘परसर्गीय शब्दावली' भी कहा जाता है हिन्दी में प्रयुक्त इस प्रकार के कुछ शब्द निम्नलिखित हैं-
करण
कारक के अर्थ में : द्वारा, मारफत, कारण
संप्रदान
के अर्थ में : आगे, पीछे, बीच, भीतर, बाहर, पास
संग के
अर्थ में : साथ
इसके
अतिरिक्त : मारे अंदर, तक, तलक।
(२) क्रियापदबंध साधक व्याकरणिक कोटियाँ
:
क्रियापदबंध
साधक व्याकरणिक कोटियाँ क्रियापद की अन्तः प्रकृति से संबद्ध होती है अर्थात् इनका
क्रिया से प्रत्यक्ष संबंध है और क्रियापद किसी भी रूप में हो, ये अवश्य पाई जाती हैं। इन व्याकरणिक कोटियों में
वृत्ति, पक्ष, काल और वाच्य का समावेश होता है। ये
चारों कोटियाँ क्रियापद से सम्बद्ध है। इन व्याकरणिक कोटियों का विवरण इस प्रकार
है -
(१) वृत्ति :
वृत्ति
मूलतः क्रियापदबंध साधक व्याकरणिक कोटि है। 'वृत्ति' से तात्पर्य क्रिया को करनेवाले व्यक्ति का उस कार्य
के प्रति उसकी मानसिकता से है अर्थात् वक्ता की कथ्य विषय के प्रति चित्तवृत्ति ही
'वृत्ति' है। यहाँ वृत्ति शब्द पाश्चात्य
व्याकरणिक विवेचनों में प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द Mood के पर्याय रूप में प्रयुक्त किया गया है। हिन्दी में 'वृत्ति' के स्थान पर अर्थ, प्रकार, क्रियार्थ, क्रियाभाव, क्रिया प्रकार आदि शब्द भी व्यवहत होते
हैं। वृत्ति की सामान्य परिभाषा देना चाहे तो- जो कार्य व्यापार लौकिक जगत में
घटित - न हुआ हो और जो वक्ता के मस्तिष्क में ही इच्छा, संभावना, अनुमान, आज्ञा आदि के रूप में निहित हो, उसे 'वृत्ति' कहते हैं। कामताप्रसाद गुरु 'वृत्ति' के स्थान पर 'अर्थ' शब्द का प्रयोग करते हुए बताते हैं कि - "क्रिया के विधान करने की
रीति को 'अर्थ' कहते हैं।"5
निष्कर्षत: किसी क्रिया को करनेवाले
व्यक्ति की उस क्रिया के प्रति उसकी मानसिक स्थिति ही 'वृत्ति' है। वक्ता किसी बात के होने का निश्चयपूर्वक कथन करता
है, किसी बात के होने की संभावना या कामना करता है, उसकी आज्ञा या अनुज्ञा देता है या किसी से अनुनय कर
(उसे करने की) आज्ञा मांगता है, ये सब वृत्तियाँ हैं। सभी क्रियारूपों
से उन वृत्तियों की सूचना प्राप्त होती है । इस दृष्टि से देखें तो हिन्दी में 'वृत्ति' की अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है- मुक्त
रूप में और सन्नद्ध रूप में। आज्ञार्थक, संभावनार्थक, निश्चयार्थक, इच्छार्थक, संकेतार्थक या शर्त, संदेहार्थक आदि हिन्दी की प्रमुख
वृत्तियाँ है।
(२) पक्ष :
परंपरागत
हिन्दी व्याकरण में 'पक्ष' को क्रियारूप के एक स्वतंत्र तत्व या व्याकरणिक कोटि के रूप में स्वीकार
नहीं किया गया बल्कि क्रियारूप के इस तत्व को अप्रत्यक्ष रूप से काल (Tense) में ही समाहित माना जाता रहा था। कामताप्रसाद गुरू के
अनुसार "क्रिया के उस रूपांतर को काल - कहते हैं, जिसमें क्रिया के व्यापार का समय तथा उसकी पूर्ण व अपूर्ण अवस्था का बोध
होता है।"6
इस प्रकार हिन्दी ही नहीं बल्कि विश्व
की अधिकांश भाषाओं के व्याकरण के अंतर्गत पक्ष तत्व को काल के ही एक उपांग के रूप
में स्वीकार करने की परंपरा रही है । एक पृथक व्याकरणिक कोटि के रूप में पक्ष की
संकल्पना का स्वतंत्र विकास और तात्विक विवेचन एक-दो दशक पूर्व ही आरंभ हुआ। 'पक्ष' का व्याकरणिक कोटि के रूप में
सर्वप्रथम प्रयोग रूसी एवं स्लावी भाषाओं में क्रिया के रूपांतरण (Inflexion) में पूर्णता - अपूर्णता आदि को प्रदर्शित करने के लिए
किया गया। हिन्दी में भी पक्ष की उपस्थिति आधुनिक काल के साथ देखी जाती है। पक्ष
बोधक शब्द सदैव 'काल' या 'वृत्ति' बोधक शब्द से पूर्व रहता है। पक्ष
व्यापार की सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्थितियों के द्योतक होने के कारण ही हाकेट ने इसे
"क्रिया की परिरेखा या समोच्च रेखा (Contour of action)" कहा है7 पक्ष के मुख्य दो भेद हैं-
(१) पूर्ण पक्ष (फल प्रधान) (Perfective Aspect)
कथन के
क्षण में व्यापार के पूर्ण होने की सूचना जिस तत्व से मिलती है, उसे व्याकरण में 'पूर्णपक्ष' कहते हैं। यह समय के बारे में यह सूचना
देता है कि काम की प्रक्रिया की परिणति उसके अंत तक पहुँच चुकी है, इस कारण उसके आगे और होने की संभावना ही नहीं रहती।
इस प्रकार समग्रता होने के कारण इसके भेद नहीं बनते। धातु के अंत में 'आ' कर देने से पूर्ण क्रिया द्योतक रूप
बनता है। हिन्दी में इसकी अभिव्यक्ति दो प्रत्यय 'o' और 'य' से होती है। ये मुख्य किया की मूलधातु
में जोड़े जाते हैं। जैसे- 'वह आया है', 'वह आया था', 'वह आया होगा।
(२) अपूर्ण पक्ष (व्यापार प्रधान) (Imperfective Aspect)
कार्य-व्यापार
की अपूर्ण अवस्था का बोध जिस पक्ष के माध्यम से होता है, उसे 'अपूर्ण पक्ष' कहा जाता है। अपूर्ण पक्ष से यह ज्ञात होता है कि कथन के क्षण में व्यापार
प्रारंभ तो हो गया है, किन्तु पूर्ण नहीं हुआ है, पूर्ण होने की प्रक्रिया में है। व्यापार की विभिन्न
दशाओं जैसे - कार्य प्रारंभ की स्थिति में है, जारी है, बार-बार होनेवाला है का बोध इसके माध्यम से होता है।
हिन्दी में अपूर्ण पक्ष सूचक प्रत्यय ‘त’ है, जो मुख्य क्रिया के मूल धातु में संलग्न होता है।
जैसे "रोहन पढ़ता है।" इस वाक्य में 'पढ़ता' क्रिया में पढ़ने के क्रिया व्यापार के आरंभ का भाव
है, किन्तु इसे पूर्ण करने का भाव नहीं है। अतः यह 'अपूर्ण है।
(३) काल :
वाक्यगत
अन्वय से प्रकट व्याकरणिक कोटियों में 'काल' एक तत्व है, जिसकी सूचना क्रिया से प्राप्त होती
है। क्रिया से भिन्न संज्ञा या विशेषण से काल की सूचना नहीं मिलती। हिन्दी में 'काल' से तात्पर्य व्यापार के घटित होने का
क्षण है। क्रिया के उस रूपांतरण को काल कहते हैं, जिससे क्रिया व्यापार का समय और उसकी पूर्णता या अपूर्णता का बोध होता है।
काल भी एक व्याकरणिक कोटि है, जो भौतिक जगत के 'समय' के अविरल, अविच्छिन धाराप्रवाह को निश्चित खंड़ों में विभाजित करने की एक विशेष
दृष्टि प्रदान करता है। रचना की दृष्टि से काल के प्रमुखतः दो भेद हैं- (१) मूलकाल
(२) संयुक्तकाल। दीमशित्स ने संयुक्तकाल को 'जटिल काल' कहा है।8 इसके अलावा इसे 'यौगिक काल' भी कहा गया है। काल के संदर्भ में जे.
जे. त्रिवेदी का कहना है कि "जिस समय के दौरान क्रिया कार्य करती है, उसे उस विभाग में रखा जाता है वर्तमान, भूत और भविष्य।"9 इस आधार पर हिन्दी
में काल के तीन प्रकार हैं। सामान्यतया वक्ता जिस समय बोल रहा है उस समय की दृष्टि
से समकालिकता 'वर्तमानकाल' है, उस समय की दृष्टि से पूर्वकालिकता 'भूतकाल' है तथा उस समय की दृष्टि से आगामिकालिकता 'भविष्यकाल' है। अर्थात् हिन्दी में काल के प्रधानतः
तीन प्रकार होते हैं- (१) भूतकाल (२) वर्तमानकाल और (३) भविष्यकाल।
(४) वाच्य :
वाच्य
को एक व्याकरणिक कोटि माना जाता है। वाच्य मूलतः एक वाक्यात्मक व्यवस्था है। यह
भाषा विशिष्ट ही नहीं एक सर्वभाषा व्यवस्था भी है, जिसका अनिवार्य आधार अर्थतत्व है। यह वाक्य में आये विभिन्न घटकों में से
वक्ता किसे महत्व देता है, इस बात का प्रकाशन करता है।
वाच्य
और प्रयोग में अंतर :
'वाच्य' के लिए कहीं-कहीं 'प्रयोग' शब्द भी प्रयुक्त होता है तथा एक तरह से इन दोनों को एक-दूसरे के
पर्यायवाची के रूप में स्वीकार किया जाता है। किन्तु यहाँ यह बात स्पष्ट करना
आवश्यक है कि वाच्य और प्रयोग ये दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्याय न होकर भिन्न है, दोनों के अर्थ में अंतर है। वाच्य का संबंध कर्ता, कर्म अथवा भाव से है तथा प्रयोग का संबंध क्रिया के
कर्ता अथवा कर्म के अनुरूप होने अथवा तटस्थ रहने से है। “प्रयोग अन्विति या
कॉनकोर्ड है, अनुवर्तन है, वाच्य वॉइस है।"10 वाच्य वाक्य का अर्थस्तरीय पहलू है, जबकि प्रयोग संरचनात्मक । वाच्य में प्रधानतः घटकों
की मुख्यता और गौणता का विवेचन किया जाता है तथा इनमें वक्ता की दृष्टि से कौन-सा
घटक मुख्य है, इस आधार पर वाच्य का नामकरण किया जाता है जबकि प्रयोग
में घटकों के परस्पर संबंध एवं एक के प्रभाववश दूसरे की स्थिति या रूपावली में
परिवर्तन ही मुख्य रूप से विचारणीय पहलू है।
वाच्य के अंतर्गत यह देखा जाता है कि
वाक्य प्रयोक्ता की द्रष्टि में वाक्य प्रयोग के समय कौन-सा तत्व अधिक महत्वपूर्ण
है- करनेवाला अर्थात् कर्ता या फल को भोगनेवाला अर्थात् कर्म अथवा स्वयं कार्य
अर्थात् क्रिया। इस प्रकार हिन्दी में कर्ता, कर्म एवं क्रिया के आधार पर वाच्य के तीन भेद किये जाते हैं -कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य। कर्तृवाच्य में क्रिया
कर्तानुसारी, कर्मवाच्य में क्रिया कर्मानुसारी तथा भाववाच्य में
क्रिया कर्ता और कर्म के अनुसार न होकर स्वतंत्र होती है।
निष्कर्षत: ये व्याकरणिक
कोटियाँ वाक्य में प्रयुक्त व्याकरण का एक अनुशासनात्मक आधार है, जिनसे वाक्यान्तर्गत पदों के पारस्परिक संबंधों की अभिव्यक्ति होती है। यह भाषाई संरचना
को नियंत्रित करती है। यह भाषा में सूक्ष्म अभिव्यंजना और निश्चयात्मकता लाने का
कार्य करती है। इसलिए इसे हम भाषा का हृदय या भाषा का प्राण भी कह सकते हैं।
संदर्भ
१. हिन्दी नामिकों
का वर्णनात्मक व्याकरण, कुसुमलता
वर्मा,
पृष्ठ-2
२. हिन्दी और गुजराती व्याकरण
का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. कुसुम गुप्ता,
पृष्ठ- 53
३. हिन्दी भाषा का सरल व्याकरण, डॉ.
भोलानाथ तिवारी,
पृष्ठ-41
४. भाषाविज्ञान और हिन्दी भाषा
का स्वरूप, डॉ.
देवेन्द्रप्रसाद सिंह, पृष्ठ- 179
५. हिन्दी व्याकरण, कामताप्रसाद गुरु, पृष्ठ- 125
६. वही, पृष्ठ- 132
७. भाषा संरचना, भोलानाथ, पृष्ठ-294
८. हिन्दी व्याकरण, डॉ. जाल्मन दीमशित्स, अनु. योगेन्द्र नागपाल, पृष्ठ- 275
९. हिन्दी और गुजराती व्याकरण एक तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. जे. जे. त्रिवेदी, पृष्ठ-375
१०. हिन्दी-गुजराती क्रियापदबंधों का व्यतिरेकी विश्लेषण, डॉ. मायाप्रकाश पाण्डेय, पृष्ठ-145
डॉ. भावना ठक्कर
आणंद (गुजरात)
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