प्रवासी हिंदी साहित्य का वैश्विक
परिदृश्य
शिव दत्त
आज
हिंदी साहित्य लेखन सिर्फ हिंदी क्षेत्र अथवा भारत तक ही सीमित नहीं है, अपितु
हिंदीत्तर क्षेत्रों व विदेशों में भी हिंदी व उसके साहित्य का प्रभाव बढ़ा है।
इसके कारण के रूप में हम बाजारवाद से उपजे वैश्वीकरण व उसके प्रभाव को देख सकते
हैं। हम जानते हैं कि किसी भी राष्ट्र में भाषा का साहित्येतिहास उस राष्ट्र के
इतिहास से सीधा संबंध रखता है। इस दृष्टि से यदि प्रवासी हिंदी साहित्य के इतिहास
का आकलन किया जाए तो हम प्रवासी हिंदी साहित्य के मूल में हिंदी भाषा व उसके
साहित्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देख व समझ सकते हैं।
विदित है कि आधुनिक युग, औद्योगिक
क्रांति से उपजे बाजारवाद व वैश्वीकरण का दौर है। विश्व में वैश्वीकरण ने जहाँ
भौगोलिक सीमाओं का ह्रास किया वहीं भारत में वैश्वीकरण का प्रभाव उदारीकरण के रूप
में फलीभूत हुआ। परिणामतः वैश्वीकरण का प्रभाव विश्व के आर्थिक, सामाजिक व
राजनीतिक क्षेत्रों के साथ-साथ साहित्यिक क्षेत्र पर भी पड़ा। इस संदर्भ में वेट्टे
क्लेर रोस्सर का मानना है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया अचानक ही बीसवीं सदी में उत्पन्न
नहीं हुई अपितु दो हजार वर्ष पूर्व भी भारत ने उस समय विश्व के व्यापार क्षेत्र
में अपना सिक्का जमाया था जब वह अपने जायकेदार मसालों, खुशबूदार इत्रों एवं रंग-बिरंगे कपड़ों के लिए जाना जाता था। ऐसे समय
भारत का व्यापार इतना व्यापक था कि रोम की संसद ने एक विधेयक के माध्यम से अपने
लोगों के लिए भारतीय कपड़े का प्रयोग निषिद्ध करार दिया ताकि वहाँ के सोने के
सिक्कों को भारत ले जाने से रोका जा सके। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के ध्येय वाक्य के साथ
सबसे पहले भारत ने ही विश्व को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया था, इस दृष्टि
से वैश्वीकरण की अवधारणा का सूत्रपात भी भारत द्वारा माना जा सकता है। किन्तु इस
वैश्वीकरण ने प्रचलित बाजार की अवधारणा को और अपेक्षाकृत अधिक सशक्त व मजबूत किया
है। वैश्वीकरण ने जहाँ बाजार की अवधारणा को सशक्त
व मजबूत किया वहीं उससे जुड़ी भाषा पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा है। बाजार से जुड़े
होने के कारण अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में जहाँ पहले अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश,
चीनी, रूसी व अरबी भाषा को स्थान प्राप्त था वहीं आज धीरे-धीरे हिंदी भी विश्वस्तर
पर अपना प्रभाव बना रही है। जाहिर है बाजारवाद के इस युग में बाजार से जुड़ी भाषाओं
का ही अस्तित्व शेष है और कहा जा सकता है कि हिंदी भी इस दिशा में अग्रसर है।
विश्व स्तर पर हिंदी भाषा व उसके
साहित्य का विकास उपनिवेशवादी दौर में हुआ। जब अंग्रेजी हुकूमत द्वारा आर्थिक
उद्देश्य से विश्वभर के मजदूरों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की
प्रक्रिया आरंभ हुई। भारत के मजदूरों के साथ भी यह घटना घटित हुई जिसके तहत उन्हें
बंधुआ के रूप में भारत से मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिडाड,
टोबेको आदि द्वीपों पर आर्थिक उद्देश्यों ले जाया जाता और उनसे
मजदूरी का कार्य लिया जाता। भारतीय मजदूरों से कार्य लेने के बाद अनुबंध खत्म होने
की स्थिति में उन्हें वहीं दयनीय स्थिति में छोड़ दिया जाता था। चूंकि उनके पास
वापस भारत आने के पैसे नहीं होते थे इसलिए मजबूरन इन भारतीय मजदूरों को वहीं
जीवनयापन के अन्य स्त्रोतों की खोज करनी पड़ी। अनुबंध के अनुसार भारत से बाहर जाने
वाले यही मजदूर गिरमिटिया कहलाए जिन्होंने आगे चलकर स्वयं को उन देशों में अनेक
संघर्षों के बाद स्थापित किया तथा अपनी संस्कृति व साहित्य को भी जीवित रखा, जिसका
अनुसरण उनके बाद की पीढ़ियों ने किया व अपनी साहित्य रचना में अपनी संस्कृति व अपनी
भाषा को महत्त्व दिया।
कहा जा सकता है कि प्रवासी हिंदी
साहित्य की अवधारणा का विकास इन्हीं गिरमिटियाओं द्वारा हुआ जिसने आगे चलकर अपने
स्वरूप का उतरोत्तर विस्तार किया। वर्तमान में प्रवासी हिंदी साहित्य का विकास तीन
स्तरों पर देखने को मिलता है। पहला मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गायना, त्रिनाद आदि
देशों में गिरमिटियाओं द्वारा हिंदी में की जा रही साहित्य रचना, दूसरा भारत के
निकटवर्ती देश नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान आदि में हिंदी में हो
रही साहित्य रचना व तीसरा अमेरिकी महाद्वीप, यूरोपीय महाद्वीप व खाड़ी देशों में
हिंदी में हो रही साहित्य रचना। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि मॉरिशस, फिजी,
सूरीनाम जैसे देशों में भारतीयों का प्रवास गिरमिटियाओं के रूप में हुआ, जबकि भारत
के निकटवर्ती देशों में व अमेरिका, यूरोप व खाड़ी देशों में भारतीयों द्वारा जो
प्रवास हुआ उसका मुख्य उद्देश्य आर्थिक व शैक्षिक था। इस दृष्टि से तीनों स्तर पर
हिंदी साहित्य रचना के लिए भारतीय प्रवासियों की अहम् भूमिका है जिस कारण वैश्विक
स्तर पर हिंदी भाषा व उसके साहित्य का महत्त्व बढ़ा है।
आज प्रवासी हिंदी साहित्य
भारत को विश्व से व विश्व को भारत को जोड़ने का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है।
जाहिर से इससे भारतीय संस्कृति के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी वैश्वीकरण हुआ है। इस
सन्दर्भ में स्वयं विजय शर्मा रेखांकित करती हैं “बात सिर्फ प्रवासी साहित्य की
नहीं है, हिंदी के वैश्विक साहित्य की है। हिंदी में लंदन की सड़क, दुबई की बारिश,
न्यूयॉर्क की बर्फ और वेनिस की नहरें सिर्फ प्रवासी साहित्यकार ही ला सकते हैं।
प्रवासियों की रचनाएँ इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वे हिंदी को अंतरराष्ट्रीय
साहित्य का स्तर देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है।”1 हिंदी के साहित्य को भारत की सीमा से बाहर प्रतिष्ठित करने में प्रवासी
साहित्यकारों ने अपनी अहम् भूमिका निभाई है इसमें किसी को संदेह नहीं है, साथ ही
इस कड़ी में वैश्विक बाजार में भारत की सशक्त स्थिति ने भी हिंदी को वैश्विक बाजार
से जोड़ने का कार्य किया है।
प्रवासी हिंदी साहित्य की वैचारिकी में
भारतीयता का तत्त्व गहरे निहित है जो अपनी मातृभूमि से आत्मीय जुड़ाव के कारण देखने
को मिलता है। मातृभाषा से बिछोह की मानसिक स्थिति का चित्रण भारतीय प्रवासियों
द्वारा लगातार होता रहा है, संभवतः इसलिए ही आलोचकों द्वारा प्रवासी साहित्य पर नास्टेल्जिया
का आरोप लगाया गया किन्तु आलोचकों द्वारा समग्र प्रवासी साहित्य का विश्लेषण सिर्फ
नास्टेल्जिया के आधार पर करना उचित अथवा न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। चूंकि किसी
भी देश का साहित्य अपनी विषय वस्तु उस समाज से ही ग्रहण करता है इसलिए प्रवासी साहित्य
के अंतर्गत नास्टेल्जिया के अतिरिक्त पराए मुल्क में पराएपन की अनुभूति,
अपरिचित परिवेश में स्वयं को ढालना, सफलता-असफलता
का भाव, पराए मुल्क में सुख व दुःख की अनुभूति, दोनों देशों
की संस्कृति की तुलना आदि भाव भी दिखाई पड़ता है। संभवतः इन्हीं लक्षणों को देखकर
राजेन्द्र यदाव ने प्रवासी साहित्य को ‘संस्कृतियों के संगम
की खुबसूरत कथाएँ’ कहा है। प्रवासी हिंदी साहित्य की वर्तमान
स्थिति को इंगित करते हुए गयाना के प्रसिद्ध रचनाकार रामलाल बताते हैं कि प्रवासी
साहित्य में नास्टेल्जिया या पराएपन की अनुभूति रचनात्मक यात्रा का पहला चरण है।
दूसरे चरण में इस मन:स्थिति से संघर्ष शुरू होता है और तीसरे चरण में अपनी नई
पहचान को स्थापित करने की जद्दोजहद दिखाई पड़ती है। वर्तमान प्रवासी हिंदी साहित्य नास्टेल्जिया
से आगे बढ़कर विदेशों में भारतीय प्रवासियों के संघर्ष व वहाँ की लोक संस्कृति के
मूल्यांकन तक पहुँच चुका है। वर्तमान में प्रवासी साहित्यकार प्रवासी भारतीयों से
संबंधित विविध पक्षों को अपने लेखन में समाहित कर रहे हैं। इस प्रकार वे हिंदी को
साहित्य लेखन के माध्यम से वैश्विक संवेदना की भाषा के रूप में विकसित कर रहे हैं।
जैसा
कि कहा जा चुका है कि वैश्वीकरण ने सिर्फ वैश्विक बाजार पर ही असर नहीं डाला अपितु
वैश्विक संस्कृति को भी प्रभावित किया है। इस दृष्टि से वैश्वीकरण ने जहाँ समग्र
विश्व को बाजार में तब्दील कर दिया वहीं बाजारवाद ने ‘अर्थ’ के महत्त्व व उसकी
गुणवत्ता में अपेक्षा से अधिक वृद्धि की। इस कारण इक्कीसवीं सदी में प्रवासी
भारतीयों द्वारा खाड़ी देशों व अमेरिका, यूरोप आदि देशों की तरफ प्रवास का बड़ा कारण
‘अर्थ’ व विदेशों का आकर्षण ही अधिक दिखाई देता है। आधुनिक प्रवासियों रचनाकारों
ने इस मजबूरी व मानसिकता दोनों को अपने लेखन में स्थान दिया है। ‘अर्थ’ को लेकर
भारतीयों के मनोविज्ञान व मन:स्थिति की समीक्षा करते हुए तेजेंद्र अपनी कहानी ‘देह
की कीमत’ में लिखते हैं कि “फरीदाबाद का वैध नागरिक खाते-पीते घर का ‘काका’ जापान
में अवैध काम करने को अभिशप्त था...वहाँ वो कुली भी बन जाता था तो कभी रेस्टोरेंट
में बर्तन भी मांज लेता था...हर वो काम जो हरदीप अपने देश में किसी कीमत पर नहीं
करता जापान में सहर्ष ही कर लेता। कारण? झूठी शान के अतिरिक्त क्या हो सकता
है...कि लड़का जापान में काम करता है।”3 आधुनिक भारतीय प्रवासियों की
इसी मानसिकता को सुषम बेदी भी अपने उपन्यास ‘हवन’ में दर्शाती हैं जहाँ भारतीयों
द्वारा प्रवास का मुख्य व मूल उद्देश्य अर्थोपार्जन ही पाया जाता है। “हर
हिन्दुस्तानी यहाँ एक व्यापारी है, अमेरिका के एक बड़े बाजार में हिन्दुस्तानी अपनी
प्रतिभा, ज्ञान, कौशल और अनुभव को लेकर आता है और चढ़ा देता है खुद को नीलामी पर।
अच्छा दाम लग जाए तो क्या, खूब बढ़िया-सी नौकरी, सुंदर सर घर, नमकीन-सी बीवी और
बलार्ड गर्लफ्रेंड सबका सौदा हो जाता है। न बढ़िया दाम लगे तो भी बैर या दुकानदार
की नौकरी ही सही। ले-देकर किसी को यह सब घाटे का सौदा नहीं लगता।”4
सुषम बेदी के उपन्यास की तर्ज पर ही गौतम सचदेवा की कहानी ‘आपका स्टेशन आ गया’ की
नायिका निशा भी अर्थ पिपासा की ग्रस्त नजर आती है।
वर्तमान
प्रवासी साहित्य में नास्टेल्जिया के साथ-साथ भूमंडलीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावादी संस्कृति
एवं सांस्कृतिक मूल्यहीनता का चरम देखने को भी मिलता है।वैश्वीकरण ने विश्व में
जिस उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया उसका चित्रण आज प्रवासी हिंदी साहित्य में
भी हो रहा है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने स्वाभाविक रूप से ‘अर्थ’ के महत्त्व को
आवश्यकता से अधिक बाधा दिया जिस कारण मानवीय मूल्यों का ह्रास भी देखने को मिलता
है। ‘अर्थ’ की महत्ता ने जहाँ एक तरफ देश की संस्कृतियों का ह्रास किया वहीं दूसरी
तरफ भारत के श्रम का विभाजन कर उसे आर्थिक रूप से कमजोर करने का भी कार्य किया है।
शायद इसी कारण बड़ी संख्या में इंजीनियर, डॉक्टर, साइंसटिस्ट व मजदूर तबकों का
पलायन भारत से विदेशों की तरफ हो रहा है। इसके कारण की तह में वैश्विक बाजार में
भारतीय मुद्रा का मूल्य अमेरिका, यूरोप जैसे देशों की मुद्रा के मूल्य की तुलना
में काफी कमतर होना भी माना जा सकता है। आज का प्रवासी हिंदी साहित्य भारतीय
प्रवासियों के इसी मन:स्थिति व द्वंद्व को अपने लेखन में पूरी संवेदना के साथ
चित्रित करता है।
देखा
जाए तो भारतीय प्रवासी जिन-जिन देशों में पहुंचें वहाँ की संस्कृति, लोक-संस्कार
अपनाने के बाद भी उन्हें स्वीकार नहीं किया गया। इसके लिए उन्हें कठोर संघर्ष करना
पड़ा। इस मन:स्थिति व संघर्ष का बयां वे साहित्य के माध्यम से करते हैं। इस दृष्टि
से इन प्रवासी साहित्यकारों ने हिंदी के वैश्वीकरण में अपनी महत्ती भूमिका अदा की
है। स्वयं तेजेंद्र अपनी कविता के माध्यम के माध्यम से प्रवासी भारतीयों की इस पीड़ा
को बयां करते हैं। “जो तुम न मानो मुझे अपना, हक़ तुम्हारा है/ यहाँ जो आ गया एक
बार, बस हमारा है/ कहाँ-कहाँ के परिंदे बसे हैं आके यहाँ/ सभी का दर्द मेरा दर्द,
बस खुदारा है/ अब मूल निवासी उन्हें न अपनाए तो क्या?”5 प्रवासी
भारतीयों के इस संघर्ष व पीड़ा को आत्मसात करते हुए मॉरिशस के वरिष्ठ साहित्यकार
राज हीरामन बताते हैं कि “हिंदी जैसे भारतीयों को मिली है, वैसे हम मॉरिशसवासियों
को नहीं मिली। बड़े संघर्ष की बाद हमें हिंदी प्राप्त हुई। जैसे आपकी मातृभाषा
हिंदी है। हमारे लिए हिंदी संस्कार की भाषा है। मॉरिशस ने हिंदी में सृजन करना सीख
लिया है। वह प्रवासी हिंदी ही हमारी हिंदी है। वह दर्द की भाषा है। सम्मान की भाषा
है। इज्जत की भाषा है।”6 जाहिर है प्रवासी भारतीयों के लिए हिंदी उनके
जीवन व संघर्ष की भाषा रही। इस दृष्टि से विश्व में हिंदी के प्रचार और प्रसार में
विदेशी, प्रवासी विद्वानों और साहित्यकारों के योगदान को भारतीय साहित्यकारों और
हिंदी प्रेमियों से कम नहीं आँका जा सकता है।
आज
प्रवासी हिंदी साहित्य में सृजन की दृष्टि से कविता, कहानी, गजल, उपन्यास आदि अनेक विधाओं
में निरंतर लेखन हो रहा है। इन प्रवासी हिंदी साहित्यकारों में अचला शर्मा,
तेजेंद्र शर्मा, दिव्या माथुर, मोहना राणा, सत्येंद्र श्रीवास्तव, पुष्पा भार्गव (ब्रिटेन), अनिल जनविजय (रूस), उमेश शर्मा, कृष्ण बिहारी ‘नूर’, रामकृष्ण द्विवेदी मधुकर, विद्याभूषण धर (खाड़ी देश), हरिशंकर आदेश, डॉ. शैलजा सक्सेना (कनाडा), अंजना संधीर, सुरेन्द्रनाथ तिवारी, प्रतिभा सक्सेना, अखिलेश सिन्हा, राकेश खंडेवाल (अमेरिका), कैलाश भट्टनागर, अनिल वर्मा, प्रेम माथुर, हरिहर
झा (आस्ट्रेलिया), अशोक गुप्ता, राजेश
कुमार सिंह (इंडोनेशिया), अमिताभ मित्रा (दक्षिण अफ्रीका),
प्रभात कुमार,माया भारती, रंजना सोनी (नार्वे), आलोक शर्मा, जैनन प्रसाद (फिजी), पुष्पिता अवस्थी (सूरीनाम),
प्रवीण अग्रवाल (हांगकांग), आशा मोर, संतोष कुमार खरे (त्रिनिडाड) आदि रचनाकार विश्व के अलग-अलग देशों से
प्रवासी हिंदी साहित्य में लेखनरत हैं।
हिंदी
को ग्लोबल स्तर पर स्थापित करने में जितनी अहम् भूमिका प्रवासी हिंदी साहित्यकारों
की रही उतनी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका विश्व स्तर पर होने वाले हिंदी के
प्रचार-प्रसार में लिप्त संस्थाओं व सम्मेलनों की भी है। विश्व स्तर पर हिंदी को
स्थापित करने व उसे बढ़ावा देने के लिए विश्व हिंदी परिषद्, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
हिंदी को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं में अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति (संयुक्त राज्य
अमीरात),
मॉरीशस हिंदी संस्थान, विश्व हिंदी सचिवालय,
हिंदी संगठन (मॉरीशस,) हिंदी सोसाइटी
(सिंगापुर), हिंदी परिषद् (नीदरलैंड) आदि सभी संस्थान इस
दृष्टि से अहम् भूमिका व स्थान रखते हैं। इन संस्थाओं के माध्यम से न सिर्फ
प्रवासी हिंदी साहित्यकारों को प्रश्रय मिला अपितु विश्व स्तर पर हिंदी को स्थापित
करने के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में मसलन आर्थिक व राजनैतिक क्षेत्रों में भी
निरंतर प्रयास जारी है।
हिंदी के प्रवासी साहित्य का अपना वैशिष्ट्य है,
जो उसकी संवेदना, जीवन दृष्टि, सरोकार तथा परिवेश में परिलक्षित होती है। प्रवासी
हिंदी साहित्य सिर्फ प्रवासी जीवन की समस्याओं व उसके संघर्ष को ही अभिव्यक्त नहीं
करती अपितु उस देश व समाज की जमीनी हकीकत व उससे जुड़ी मरीचिका को भी चित्रित करती
है। देखा जाए तो वैश्वीकरण ने जहाँ विश्व साहित्य की परिकल्पना को सार्थक किया
वहीं वैश्विक साहित्य को समेटकर पाठक वर्ग के लिए सहज व सुगम बना दिया। कहने की
आवश्यकता नहीं कि वैश्विक साहित्य से प्रेरित प्रवासी हिंदी साहित्य अपनी मूल
संवेदनाओं के साथ न सिर्फ भारत अपितु विश्व भर के पाठकों में एक नई दृष्टि का
संचार कर रहा है।
सन्दर्भ:
1. विजय
शर्मा, सात समुंदर पार से, यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटरर्स, दिल्ली, पृष्ठ-
137
2. देह
की कीमत, तेजेंद्र शर्मा, पृष्ठ-15
3. हवन,
सुषम बेदी, पृष्ठ- 129
4. हक़
तुम्हारा है, तेजेंद्र शर्मा, कविता कोश
5. हमारे
लिए हिंदी संस्कार की भाषा है, राज हीरामन से बातचीत, पृष्ठ- 24
शिव दत्त
अतिथि प्रवक्ता, हिंदी
केंद्रीय हिंदी संस्थान,
मैसूर
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