बुधवार, 18 जनवरी 2023

निबंध

 

गद्यकार दिनकर

डॉ. वीरेश कुमार

उर्वशी’, ‘कुरुक्षेत्रऔर ‘रश्मिरथीजैसी महान कव्य कृतिओं के रचियता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को दुनिया हिन्दी के एक श्रेष्ठ कवि के रूप में जानती है। लेकिन वे एक उच्च कोटि के गद्यकार भी थे।

इस छोटे से निबंध में हम दिनकर जी की भावयित्री प्रतिभा के इसी पक्ष पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। इनके द्वारा रचित ग्रंथों की कुल संख्या 60 बताई जाती है। जिसमें से लगभग आधा यानी 27 ग्रंथ गद्य विधा के हैं। कालक्रमानुसार इनकी सूची इस प्रकार हैमिट्टी की ओर, चित्तौड़ का साका, अर्धनारीश्वर, रेत के फ़ूल, हमारी सांस्कृतिक एकता, भारत की सांस्कृतिक कहानी, संस्कृति के चार अध्याय, उजली आग, देश- विदेश, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता; काव्य की भूमिका; पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण; वेणुवन; धर्म, नैतिकता और विज्ञान; वट -पीपल, लोकदेव नेहरू, शुद्व कविता की खोज, साहित्यमुखी, राष्ट्रभाषा आंदोलन और श्रद्धांजलियाँ, मेरी यात्राएँ, भारतीय एकता, दिनकर की डायरी, चेतना की शिखा, आधुअनिक बोध और विवाह की मुसीबतें।

          इसमें से पहली किताब का प्रकाशन सन 19460 में और अंतिम का प्रकाशन 1974. में हुआ था। इस प्रकार इन 27 ग्रंथों में दिनकर की प्रतिभा के लगभग इतने ही वर्षों की सक्रियता की झाँकी मिलती है।

          उनके काव्य लेखन की शुरूआत 15-16 वर्ष की अवस्था में ही हो चुकी थी, जव वे मिड्ल के छात्र थे। उनकी पहली कविता 1924 या 25 ई. में जबलपुर से प्रकाशित और पं. मातादीन शुक्ल द्वारा संपादित पत्रिका छात्र सहोदरमें छपी थी। उनकी पहली काव्य पुस्तक 1929 में छ्पी जिसका नाम प्रमाणथा।

          यह विवरण देने का उद्देश्य यह है कि कवि दिनकर ने कविता के क्षेत्र में लगभग दो दशकों यानी 20 वर्षों तक साधना करने के बाद गद्य लेखन में हाथ लगाया। दिनकर जी के गद्य ग्रथों की सूची के अवलोकन से पता चलता है कि इनमें साहित्य के अतिरिक्त इतिहास, संस्कृति, यात्रा, संस्मरण, डायरी लेखन तथा धर्म, नैतिकता और विज्ञान से संबंधित विषयों पर लिखी गई किताबें सम्मिलित हैं। विशेष उल्लेखनीय  बात यह है कि इनमें से करीब आधी, यानी 15 पुस्तकें साहित्यिक एवं अन्य विषयक निबंधों का संकलन है ।

अब हम इन किताबों का संक्षिप्त परिचय अपने पाठकों के लिए प्र्स्तुत करते हैं। जिससे उन्हें दिनकर जी के गद्यकार रूप की विविधता का कुछ अनुमान हो सकेगा जो कि उनके  प्रचलित कवि रूप से कुछ हटकर तो है लेकिन कमतर नहीं है।

मिट्टी की ओर (1946)

        इनमें साहित्य विषयक 14 निबंध संकलित है। जिनके शीर्षक इस प्रकार हैं- इतिहास के दृष्टिकोण से, दृश्य और अदृश्य का सेतु, कला में सोद्देश्यता का प्रश्न ,हिंदी कविता पर अशक्तता का दोष, वर्तमान कविता की प्रेरक शक्तियाँ, समकालीन सत्य से कविता का वियोग, हिंदी कविता और छंद, प्रगतिवाद: समकालीनता की व्याख्या, काव्य समीक्षा का दिशानिर्देश, साहित्य और राजनीति, खड़ी बोली के  प्रतिनिधि कवि, बलिशाला ही हो मधुशाला, कवि श्री सियारामशरण गुप्त, तुम घर कब आओगे कवि? आदि ।  

        इसकी भूमिका में दिनकर जी ने लिखा है कि इसमें केवल उन्हीं निबंधों का संग्रह है जो छायावाद की कुहेलिका से निकलकर प्रसन्न आलोक के देश की ओर बढ़नेवाली हिंदी कविता को लक्ष्य करके लिखे गये हैं।

अर्धनारीश्वर ( 1952)

          इस किताब के आमुख में दिनकर ने लिखा कि इस संग्रह में ऐसे भी निबंध हैं जो मन बहलाव में लिखे जाने के कारण कविता की चौहद्दी के पास पड़ते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिसमें बौद्धिक चिन्तन या विश्लेषण प्रधान हैं। इसमें 22 निबंध संकलित हैं। इनमें मन्दिर और राजभवन; हड्डी का चिराग, कविता का भविष्य , समाजवाद के अंदर साहित्य; कविता, राजनीति और विज्ञान; जार्ज रसल का साहित्य चितंन और महर्षि अरविन्द की साहित्य साधना आदि प्रमुख हैं।

रेती के फूल (1954)

यह दिनकर के 15 निबंधों का संग्रह है जिसमें कुछ विचारात्मक ,कुछ भावात्मक, कुछ साहित्यिक और मोनोविकार संबंधी लेख हैं।

हिम्मत और जिन्दगीसंकलन का प्रथम निबंध है, जिसमें दिनकर जी ने जीवन में धैर्य के मह्त्व का प्रतिपादन किया है। चालीस की उम्रमें इस वय और इसके बाद की अवस्था का महत्व बताया गया है। इस तरह ईष्या तू गई मेरे मन से’, ‘ह्रदय की राह, ‘कर्म और वाणी’, ‘कला, धर्म और विज्ञान’, ‘राष्ट्रीयता और अंतरर्राष्ट्रीयताजैसे अन्य निबंध भी हैं। इस पुस्तक के बारे में इसके समीक्षक सोमशेखर सोम ने लिखा है कि यह निबंध संग्रह हर भारतीय के लिए पठनीय है।

हमारी सांस्कृतिक एकता (1954)

यह पुस्तक नौ अध्याओं में विभक्त है और कोई निबंध संकलन न होकर एक समग्र  किताब है। इसके प्रथम अध्याय में लेखक ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए यह बताया है कि किसी भी जाति की संस्कृति में उसके सदियों से चले आ रहे रीत-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान, धर्म-कर्म और सोच-विचार के तरीकेये सब कुछ अंतर्निहित होते हैं। इसी प्रकार इसके अन्यान्य अध्यायों में भारतवर्ष की एकता, भारतीय समाज की रचना ,आर्यों के मूल स्थान आदि विषयों पर विचार किया गया है।

भारत की सांस्कृतिक कहानी (1955)

          इस रचना में दिनकर जी ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना की संक्षिप्त रूप-रेखा प्रस्तुत की है।  लेखक के अनुसार संस्कृतिक के स्वरूप के व्यापक अध्ययन के बाद भी संस्कृति की इस संक्षिप्त कहानी थी उपादेयता विद्यालय स्तरीय छात्रों तथा सामान्यजनों के सुखबोधकी दृष्टि से है।

राष्टृभाषा और राष्ट्रीय एकता ( 1958)

        यह पुस्तक दिनकर जी के कुछ भाषणों और लेखों का संग्रह है। जैसा कि इसके शीर्षक से ही स्पष्ट है, इसमें लेखक ने  राष्टृभाषा हिन्दी के संबंध में अपने विचारों को  अभिव्यक्ति दी है। इस पुस्तक के समीक्षक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का अभिमत है कि इन भाषणों और निबंधों में दिनकर जी ने  भारत की भाषा समस्या पर काफी गहराई से विचार करते हुये अपने निष्कर्षों को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है।उनके ये निष्कर्ष आग्रह मुक्त और राष्ट्रीय एकता के हित में है।

उजली आग (1956)

        दिनकर जी का 46 बोधकथाओं का यह संग्रह विचारों का वह गुलदस्ता है जिसमें भिन्नभिन्न भाव रूपी पुष्प संकलित हुये हैं। सुप्रसिद्ध तत्वज्ञानी खलील जिब्रान की भांति दिनकर ने भी इस विचार पूर्ण संग्रह में जीवन के अनुभवों का सार निचोड़ कर रख दिया हैं। इसकी प्रत्येक कथा  में  वे एकाध घटना या कहानी का जिक्र कर, अंत में अपने मौलिक-चिंतन का सार समेट कर रख देते हैं। यह संग्रह न केवल पठ्नीय है बल्कि जीवन में क्रियाशील होने की प्रेरणा भी देता है।

संस्कृतिक के चार अध्याय (1956)

        दिनकर की मूल चेतना राष्ट्र्वादी थी। स्वाभाविक था  कि इस चेतना ने उन्हें भारत की अखंडता को खोजने के लिए प्रेरित किया यह खोज इतिहास के संदर्भ में ही संभव थी। इन बातों की जिज्ञासा और राष्ट्रीयता को दृढ़ आधार प्रधान करने की आकांक्षा से ही दिनकर जी  ने संस्कृति के चार अध्यायकी रचना की और अपने कवि रूप से हटकर वे एक इतिहासकार और संस्कृति के व्याख्याता के रूप में नज़र आए। इस पुस्तक की बहुत बड़ी महत्ता यह है कि इसकी प्रस्तवना पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी है जो स्वयं इतिहास और संस्कृति के बहुत बड़े जानकार थे। संस्कृति के इन चार अध्यायों में पहला अध्याय दिनकर के मतानुसार वह है जब आर्य इस देश में आए और यहाँ के लोगों से उनका संपर्क और सामना हुआ। दूसरा अध्याय वह है जब महावीर और गौतम बुद्ध के नेतृत्व में सनातन धर्म के विरूद्ध विद्रोह किया गया। तीसरा अध्याय दिनकर मुसलमानी आक्रमण को मानते हैं और चौथा तथा अंतिम अध्याय वह है जब यूरोपीय शक्तिओं का भारत में आगमन हुआ।

देश- विदेश (1957)

        जैसा कि इसके शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह एक यात्रा-वृत्तान्त है जिसमें दिनकरजी  ने भारत के कुछ प्रातों तथा यूरोप के कुछ नगरों की अपनी यात्रा का वर्णन किया है। इस पुस्तक की भाषा-शैली सरल तथा रोचक है।

 काव्य की भूमिका ( 1958) 

    पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण (1958); शुद्ध कविता की खोज (1966); साहित्य मुखी (1968) ये सभी दिनकर द्वारा लिखे गये शुद्ध साहित्यिक  निबंधों के संग्रह हैं।  इनमें रीतिकाल से लेकर प्रयोगवादी युग तक की कविता का अपने ढंग से विवेचन और मूल्यांकन किया गया है। हिन्दी साहित्य के प्रत्येक विद्यार्थी के लिए ये निबंध पठनीय है।

    वेणुवन (1958); धर्म, नैतिकता और विज्ञान (1959); वट -पीपल (1961)- इन सभी संकलनों में कुल मिलाकर साहित्यसमीक्षा, सांस्कृतिक चिंतन और धर्म, नैतिकता तथा विज्ञान से संबंधित निबंधों का संग्रह किया गया है। इनसे दिनकरजी  के चिंतन की व्यापकता का पता चलता है जिसकी परिधि में साहित्य के अतिरिक्त अन्य विषयों का समावेश भी पाया जाता है।

लोकदेव नेहरू ( 1965), राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधी जी (1968), संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ (1969) -इन संकलनों में संकलित निबंधों का प्रधान स्वरूप संस्मरणात्मक है। लेकिन इनमें विचारों का भी सुन्दर समावेश पाया जाता है। हे राम (1969) -यह पुस्तक दिनकर जी के तीन रेडियो रूपकों का संग्रह है जो क्रमशः   स्वामी विवेकानन्द ; महर्षि रमण एवं महात्मा गांधी के जीवन से संबंधित है।

भारतीय एकता (1970)

       प्रस्तुत पुस्तक के शीर्षक से ही इसके प्रतिपाद्य विषय का पूरा अनुमान हो जाता है। इसमें भारतीय एकता के सवाल को दिनकरजी  ने उत्तर-दक्षिण की एकता और हिन्दू-मुस्लिम एकता- इन दो रूपों में देखने-समझने का काम किया है।

मेरी यात्राएँ (1970)

        इस पुस्तक में कवि दिनकर ने अपनी इंगलैंड, पोलैंड, जर्मनी, रूस, चीन और मॉरीशिस यात्राओं का वर्णन किया है। देश-विदेश से यह पुस्तक इस रूप में भिन्न है कि इसमें सिर्फ़ विदेश यात्रा का ही वर्णन किया गया है।

दिनकर की डायरी (1973)

        यह लेखक के जीवन के बारह वर्षों का ब्योरा है। इसमें दिनकरजी  के व्यक्तित्व के साथ-साथ उनकी साहित्यिक गतिविधियों और उनके विचारों का भी गुम्फ़न मिलता है। स्वय़ं लेखक ने इस कृति को डायरी और जर्नल का मिश्रण कहा है।

चेतना की शिखा (1973)

        यह किताब श्रीअरविंद, उनके काव्य तथा उनके दर्शन से संबंधित निबंधों का संकलन है।

आधुनिक बोध (1973)

यह भी वैचारिक निबंधों का संग्रह है, जिसमें आधुनिकता को समझने-समझाने की कोशिश की गई है।

विवाह की मुसीबतें (1978)

        यह दिनकर का अंतिम निबंध संकलन कहा जाता है। इसके शीर्षक से ध्वनित होने वाले हलके-फुलके भाव के बाबजूद इसमें संकलित निबंध अपनी प्रकृति में काफी गंभीर है और दिनकर जी के जीवंत चिंतन का परिणाम है।

चित्तौड़ का साका ( 1949)

        इस पुस्तक में दिनकर जी द्वारा लिखित सात बाल कथाएँ संकलित हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि दिनकर जी ने गद्यं कवीनां निकषम वदंतिकी उक्ति को पूर्णत: चरितार्थ किया है।

 



डॉ. वीरेश कुमार

राष्ट्रीय परीक्षण सेवा-भारत

भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर

ई-मेल : biresh.1962@gmail.com


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