बुधवार, 18 जनवरी 2023

आलेख

 


उद्योगों के विकास में भाषाओं की भूमिका

(हिन्दी के सन्दर्भ में)

डॉ. अशोक गिरि

प्रायः हर उस साधन को भाषा मान लिया जाता है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी बात दूसरे मनुष्यों तक पहुँचाता है। मुँह से बोलकर कहना, लिखकर समझाना, झण्डी या रोशनी दिखाना, दरवाजा खटखटाना, मुक्का दिखाना और सिर हिलाना आदि क्रियाओं को भाषा मान लिया जाता है। परन्तु यह धारणा गलत है।

भाषा शब्द भाषधातु से बना है। जिसका अर्थ है- बोलना। अतः जिन ध्वनियों को बोलकर मनुष्य अपनी बात कहते हैं, उन्हें भाषा कहा जाता हैं। ये ध्वनियाँ सार्थक होती हैं। समाज में उन ध्वनियों का एक निश्चित अर्थ रूढ़ होता हैं। उनमें कुछ निश्चित नियम, क्रम और व्यवस्था होती हैं। मुख्यतः भाषा में चार विशेषताएँ होती हैं-

भाषा का उद्देश्य है- विचारों का आदान-प्रदान ।

भाषा का आधार मौखिक ध्वनियाँ हैं।

• इन्हीं ध्वनियों से सार्थक शब्दों का निर्माण होता है।

भाषा के लिए शब्दों का व्यवस्थित क्रम में होना अनिवार्य है।

अनेक विद्वानों ने अपने मतानुसार भाषा को परिभाषित किया है –

वक्ता: वाचि वर्णा येषाँ ते इमेव्यक्तवाचः ।” अर्थात् जो वाणी वर्गो में व्यक्त होती है उसे भाषा कहते हैं।

      महर्षि पतंजलि

भाषा वह साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपने विचार दूसरों से भली-भाँति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप स्पष्टतया समझ सकता है।”

      कामता प्रसाद गुरु

मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति को आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि संकेतों का जो व्यवहार होता है उसे भाषा कहते है।”

      डॉ. श्यामसुन्दर दास

भाषा मनुष्य की चेष्टा या व्यवहार को कहते हैं, जिससे मनुष्य अपने उच्चारणोपयोगी शरीरावयवों से उच्चारण किए गए वर्णात्मक या व्यक्त शब्दों द्वारा अपने विचारों को प्रकट करते हैं।”

      डॉ. मंगलदेव शास्त्री

जिन ध्वनि चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।”

      डॉ. बाबूराम सक्सेना

भाषा मानव-उच्चारणावयवों से उच्चरित यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की वह संरचनात्मक व्यवस्था है, जिसके द्वारा समाज विशेष के लोग आपस में विचार-विनिमय करते हैं।”

      डॉ. भोलानाथ तिवारी

भाषा यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है, जिसके द्वारा सामाजिक प्राणी विचारों का आदान-प्रदान करता है।”

      डॉ. विचार दास

ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।”

      स्वीट

विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है, परन्तु जब वही ध्वन्यात्मक होकर होंठों पर प्रकट होती है, तो उसे भाषा कहते हैं।”

      प्लेटो

 

भाषा उस स्पष्ट, सीमित और संगठित ध्वनि को कहते हैं, जो अभिव्यंजना के लिए नियुक्त की जाती है।”

      क्रोचे

इन परिभाषाओं से निष्कर्ष निकलता है कि भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने भावों तथा विचारों को बोलकर या लिखकर दूसरे मनुष्यों तक पहुँचाता है।

मानव इसलिए मानव है कि उसके पास संस्कृति है। संस्कृति के अभाव में मानव को पशु से श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता है। संस्कृति ही मानव की श्रेष्ठतम धरोहर है, जिसकी सहायता से मानव पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ता है तथा प्रगति की ओर उन्मुख होता है। मानव में ही कुछ ऐसी शारीरिक और मानसिक क्षमताएँ पाई जाती हैं, जो पशुओं में नहीं पाई जाती हैं। सभी क्षमताओं और विशेषताओं के अतिरिक्त भाषा के आविष्कार ने मानव को वह शक्ति प्रदान की है, जिसकी सहायता से वह विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है तथा अपने चिन्तन के परिणामों को आगे आने वाली पीढ़ियों को हस्तान्तरित कर सकता है। वास्तव में भाषा और प्रतीकों के माध्यम से ही मानव ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति कर पाया है।

जो भाषा अपने क्षेत्र के समस्त कार्य-व्यापार, अध्ययन - चिन्तन तथा ज्ञान-विज्ञान के माध्यम के साथ, व्यापक परिवेश में राष्ट्र के सार्वभौम संचार माध्यम बन, धर्म-संस्कृति और व्यवसाय में समाहित हो, राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों के भिन्न-भिन्न भाषा-भाषियों के बीच सम्पर्क का माध्यम हो एवं अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर राष्ट्र के विचार व चिन्तन को वाणी दे, तो वह निश्चित ही सर्वमान्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी। तीन दिन के गहन विचार-विमर्श के पश्चात् 14 सितम्बर, 1949 को भारत की संविधान सभा ने संघ की राजभाषा के रूप में देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। इस निर्णय के अनुसार भारत के संविधान के भाग-17 में अनुच्छेद-343 (1) से लेकर अनुच्छेद-351 तक हिन्दी के बारे में अनुदेश दिए हैं।

आज हिन्दी को राजभाषा बने कई वर्ष हो चुके हैं, परन्तु हिन्दी आज भी वह स्थान नहीं प्राप्त कर पाई है, जिसकी हकदार है। अब राजभषा हिन्दी को लेकर राजनीतिक, भाषावैज्ञानिक तथा साहित्यिक स्तर पर विश्लेषणात्मक विचार-विमर्श हो रहा है। इस विचारमन्थन को समग्र रूप में बाँधकर उसके रचनात्मक निष्कर्षो तथा स्पष्ट रूप को रेखांकित करना आवश्यक हो गया है।

 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश की विविध आवश्यकताओं के दृष्टिगत औद्योगीकरण की आवश्यकता महसूस हुई। भारत सरकार ने इसके लिए कई देशों का सहयोग लिया। सहयोगी देशों की प्रौद्योगिकी के साथ-साथ उनकी भाषा का आना स्वाभाविक था। अतः परिणामस्वरूप उद्योगों की भाषा विदेशी (मुख्यतः अँग्रेजी) हो गई परन्तु भारतीय संविधान के अनुसार केन्द्रीय सरकार के अधीन मन्त्रालयों, विभागों, संस्थानों, उपक्रमों तथा निगमों में राजभाषा हिन्दी की अनिवार्यता और उद्योगों में एक सम्पर्क भाषा की आवश्यकता महसूस होने के कारण हिन्दी व्यापक रूप लेती जा रही है।

उद्योग के पर्याय शब्द हैं- उद्यम उपक्रम, धन्धा, काम, रोजगार, व्यवसाय, व्यापार, अध्यवसाय, कोशिश, परिश्रम, पुरुषार्थ, प्रयत्न, प्रयास, मेहनत, यत्न, मशक्कत तथा श्रम आदि। उद्योग को अंग्रेजी में Industry कहते हैं । आजकल उद्यम शब्द का प्रचलन अधिक है। उद्यम से उद्यमी व उद्यमिता शब्दों का निर्माण हुआ है।

उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।1

अर्थात् कार्य उद्यम से सिद्ध होते हैं, मनोरथों से नहीं सोते हुए सिंह के मुख में मृग कमी प्रवेश नहीं करते।

भारतीय औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा-2 (i) में उद्योग की परिभाषा इस प्रकार है –

उद्योग का आशय किसी ऐसे व्यवसाय, व्यापार उपक्रम निर्माण अथवा नियोजकों के बुलावे (Calling) से है; जिसके अन्तर्गत श्रमिकों द्वारा किसी सेवा, रोजगार शिल्प, अभियाचन, औद्योगिक धन्धे अथवा उप-व्यवसाय (Avocation) का समावेश हो।”

उद्योग ऐसे अनुक्रमों अथवा प्रक्रियाओं का समूह या सामूहिक रूप होता है, जिनके द्वारा कच्ची अर्थात् प्राकृतिक रूप से पैदा हुई सामग्रियों से आर्थिक (अर्थात् बिकने – खरीदने वाली) चीजें बनाई जाती हैं।”

 

एफ०जे० राइट

“जब हम किसी उद्योग की बात करते हैं, तो हमारा आशय उन फर्मों या व्यावसायिक संस्थाओं से होता है, जो किसी विशेष प्रकार का उत्पादन कार्य करती है, जिनके कार्य उन विशेष उत्पादित वस्तुओं और उनके बनाने में लगी सामाग्रियों पर निर्भर करते हैं।”

जॉन रॉबिन्सन

सामान्य अर्थ के अनुसार उद्योग से आशय निर्माण से है तथा कृषि, खनिज एवं अधिकांश सेवाएँ इसके अन्तर्गत आती हैं।”

सारजेन्ट फ्लोरेन्स

उद्योग के अन्तर्गत उन समस्त क्रियाओं को लिया जाता है, जिसके द्वारा पृथ्वी में से वांछनीय पदार्थ निकाले जाते हैं। मनुष्य जिनको गढ़ता है और सँवारता है, जिन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है, समय उपयोगिता के लिए जिन्हें भण्डार गृह में रखा जाता है तथा मूल्य चुकाने वाले व्यक्तियों के हाथों में सौंपा जाता है. लेकिन कभी-कभी यह सुविधाजनक होगा कि इस शब्द का प्रयोग कुछ और सीमित अर्थ में किया जाए। इन अवस्थाओं में अपने तर्क तथा विश्लेषण का विकास केवल दूसरी अवस्था के सन्दर्भ में किया जाता है, जो सामान्यतः निर्माण की अवस्था कहलाती है। क्योंकि इसी अवस्था में आधुनिक व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण प्रायः सबसे अधिक स्पष्ट रूप में उभरते हैं।”

सर डेनिस रॉबर्टसन

इस प्रकार स्पष्ट है कि उद्योग व्यावसायिक क्रिया का वह अंग है, जिसमें वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है वैसे उद्योगसे अब आशय आधुनिक उद्योग से ही लगाना चाहिए. ना कि परम्परागत उद्योगों से इस आधुनिक उद्योग में वैज्ञानिक व तकनीकी जानकारी का अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है। श्री एस०एन० मुन्शी के शब्दों में “इस सम्बन्ध में हमें यह याद रखना चाहिए कि जब हम आधुनिक उद्योग कहते हैं, तो इसमें आमतौर पर वे काम-धन्धे सम्मिलित नहीं होते हैं, जिनका सम्बन्ध कृषि अथवा ग्रामीण समाज से होता है और जिन्हें सामान्यतः घरेलू कुटीर (Cottage) ग्रामीण अथवा कृषि (Rural or Agriculture) उद्योग कहा जाता है। लेकिन जब यही उद्योग-धन्धे एक आधुनिक, सुव्यवस्थित और काफी विस्तृत रूप ले लेते हैं, उनमें मशीनों का प्रयोग भी होता हैं, उनमें काफी पूँजी लागाई जाती है और उनमें बनी वस्तुओं की खरीद-फरोख्त का क्षेत्र स्थायी एवं सीमित ना होकर काफी व्यापक होता है, तब उन्हें भी आधुनिक उद्योगों की श्रेणी में रखा जा सकता है।”

विश्व में औद्योगीकरण के साथ-साथ भाषाओं की विकास-यात्रा को भी एक नई गति मिली है। यदि किसी को दूसरे देश की प्रौद्योगिकी प्राप्त करनी है, तो उस देश की भाषा या वैश्विक भाषा अंग्रेजी का ज्ञान होना आवश्यक है। व्यक्ति उद्योगों में रोजगार के लिए श्रमिकों, अभियन्ताओं तथा ठेकेदारों आदि के रूप में दूसरे क्षेत्र में ही नहीं गया, वरन् विदेशों में भी गया। उसने वहाँ जाकर उस उद्योग व क्षेत्र की भाषा को सीखा तथा अपनी भाषा के अस्तित्व को बनाए रखा। उद्योग की भाषा से अभिप्राय उस उद्योग में विशेष रूप से प्रयुक्त शब्दावली से है। औद्योगीकरण से एक भाषा के शब्दों का दूसरी भाषा में चलन सहजता से हुआ है।

यदि किसी भाषा के पास किसी विशेष औद्योगिक प्रक्रिया के लिए उपयुक्त शब्द नहीं है, तो औद्योगीकरण से एक भाषा के शब्दों का दूसरी भाषा में चलन सहजता से हुआ है। यदि किसी भाषा के पास किसी विशेष औद्योगिक प्रक्रिया के लिए उपयुक्त शब्द नहीं है, तो दूसरी भाषा के शब्द को सहजता से स्वीकार किया गया है औद्योगीकरण में भाषाएँ तीन कारणों से सीखी जाती हैं। वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा कार्य की आवश्यकता के लिए, उस क्षेत्र की भाषा व्यावहारिकता के लिए तथा सम्पर्क भाषा अपने सहकर्मियों के साथ वार्तालाप करने के लिए सीखी जाती हैं।

प्राचीन काल में भी व्यापार, तीर्थाटन तथा आक्रमणों ने व्यक्तियों को दूसरे क्षेत्र अथवा दूसरे देश की भाषा सीखने के लिए बाध्य किया। इससे एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्दों के चलन के साथ-साथ कई नई भाषाओं का जन्म भी हुआ।

मानव सभ्यता का चाहे कितना ही औद्योगिक विकास क्यों ना हो जाए, परन्तु परिवर्तन और विकास के कारण भावों, विचारों और संकल्पनाओं के सम्प्रेषण तथा विचार-विनिमय का माध्यम भाषा ही बनी रहेगी। वास्तव में, मानव जीवन के विविध कार्यकलापों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण भाषा से सम्बन्धित प्रश्नों ने सदैव मनुष्य को अपनी ओर आकृष्ट किया है। यदि भाषा का विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग किया जाए तो यह ना केवल रूढ़ियों, कुसंस्कारों और आपसी मतभेदों को नष्ट करने में सक्षम है वरन् राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना पैदा करने का भी एक सशक्त माध्यम बन सकती है। आधुनिक युग में भाषा के इस सामाजिक स्वरूप को और अधिक समृद्ध एवं व्यापक बनाने में उद्योगों का सर्वाधिक और उल्लेखनीय योगदान हैं। आज ये एक दूसरे के पूरक बन गए हैं। एक के बिना दूसरा अपूर्ण और अपंग है।

सम्भवतः यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में उद्योग सम्बन्धी तकनीकी ज्ञान को जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत करने की माँग अधिकाधिक प्रखर और व्यापक होती जा रही है।

भाषा और उद्योग का एक अटूट सम्बन्ध रहा है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिस देश व जाति का औद्योगिक ज्ञान जितना अधिक उन्नत रहा है, उसकी भाषा उतनी समुन्नत रही है। आज यूरोपीय देश इस बात का ज्वलन्त उदाहरण हैं। इस बात की पुष्टि के लिए हम यह भी कह सकते हैं कि भारत पारम्परिक उद्योगों के क्षेत्र में विश्व में सर्वोपरि रहा है और भारत में भाषा अध्ययन की अत्यन्त प्राचीन और समृद्ध परम्परा रही है। क्लासिकी भाषाओं में लैटिन और ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत सर्वाधिक व्यवस्थित, समुन्नत और वैज्ञानिक भाषा रही है। किन्तु औद्योगिक क्षेत्र में जिस प्रकार भारत का योगदान कम हुआ, ठीक उसी प्रकार भारतीय भाषाओं का योगदान भी कम हुआ है।

वर्तमान में भारत की भाषाएँ एक जटिल समस्या से ग्रस्त हैं। इस समस्या के कारण सार्वदेशिक स्तर पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रचार-प्रसार भी ठीक से नहीं हो पा रहा है। प्रशासनिक कार्य की भाषा, लोक-सम्पर्क की भाषा और शिक्षण माध्यम की भाषा में व्याप्त व्यापक असमानता के कारण समेकित विकास भी बाधित है। सभी भारतीय भाषाओं में अपेक्षित सामंजस्य के अभाव के कारण आजादी के इतने वर्षों के बाद भी विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। औद्योगीकरण आधुनिक युग की अनिवार्य माँग ही नहीं, अर्पितु इस युग का मौलिक आधार है। यही कारण है कि हम आधुनिक युग को औद्योगिक युग कह सकते हैं। आज विश्व के सभी देश औद्योगीकरण की ओर अग्रसर हो रहे है; क्योंकि औद्योगीकरण किसी देश की प्रगति एवं सम्पन्नता का केवल आधार ही नहीं है, अपितु उसके आर्थिक विकास का मापदण्ड भी माना जाता है। विश्व के जितने भी विकसित देश हैं, वे सब औद्योगीकृत देशों की श्रेणी में आते हैं। इसके अतिरिक्त जो राष्ट्र अभी विकसित नहीं हुए है, वे औद्योगीकरण के द्वारा अपने आर्थिक विकास के लिए प्रयत्नशील हैं। वस्तुतः औद्योगीकरण आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं से ग्रसित अनेकों पिछड़े हुए राष्ट्रों के नव-निर्माण के लिए आशा की एक ऐसी किरण के समान है, जो उन्हें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि औद्योगीकरण आर्थिक विकास की एक ऐसी प्रक्रिया है, जो किसी परम्परागत अर्थ-व्यवस्था में व्याप्त अवरोध को समाप्त करके किसी देश की आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति को नई दिशाएँ प्रदान करती है।

इस विवेचना से यह निष्कर्ष निकलता है कि औद्योगीकरण से आर्थिक एवं सामाजिक विकास होता है।

समाज में धार्मिक मान्यताएँ परम्पराएँ, संस्थाएँ तथा भाषा व बोली अपनी गहरी जड़ें जमाए होती हैं, जिस समाज की व्यवस्थाएँ औद्योगीकरण के अनुरूप तेजी से नहीं बदलती हैं. तो उस समाज में औद्योगीकरण की गति मन्द हो जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि विकास उस समाज का होगा, जिसकी व्यवस्थाएँ सरल व सहज होंगी।

भाषा, समाज का अभिन्न अंग होती है। यदि समाज का विकास होगा, तो भाषा का विकास होना स्वाभाविक है हिन्दी एक सरल व सहज भाषा है। यह बात सर्वमान्य है कि हिन्दी भारत में सम्पर्क भाषा के रूप में सबसे अधिक प्रयोग होती है। विदेशी तथा अहिन्दी भाषी उद्योगपतियों को अपने उद्योगों का विकास करने के लिए हिन्दी की शरण में जाना पड़ा। वह चाहे अनुसन्धान हो, प्रशिक्षण हो या विपणन आदि का क्षेत्र हो।

आज हिन्दी मात्र भारतीय औद्योगिक विकास में ही नहीं, वरन् वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रही है।

 



डॉ. अशोक गिरि

बी-36. बी०ई०एल० कॉलोनी,

कोटद्वार - 246149 (उत्तराखण्ड)

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