भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
हिंदी-गद्य-साहित्य का सूत्रपात करनेवाले चार महानुभाव कहे जाते हैं – मुंशी
सदासुखलाल, इंशाअल्ला खाँ, लल्लूलाल और सदल मिश्र। ये चारों संवत् १८६० के आस-पास
वर्तमान थे। सच पूछिए तो ये गद्य के नमूने दिखानेवाले ही रहे;
अपनी परंपरा प्रतिष्ठित करने का गौरव इनमें से किसी को भी
प्राप्त न हुआ। हिंदी-गद्य-साहित्य की अखंड परंपरा का प्रवर्तन इन चारों लेखको के
७०-७२ वर्ष पीछे हुआ। विक्रम की बीसवीं शताब्दी का प्रथम चरण समाप्त हो जाने पर जब
भारतेन्दु ने हिन्दी-गद्य की भाषा को सुव्यवस्थित और परिमार्जित करके उसका स्वरूप
स्थिर कर दिया तब से गद्य-साहित्य की परंपरा लगातार चली। इसी दृष्टि से भारतेन्दु
जी जिस प्रकार वर्तमान गद्य-भाषा के स्वरूप के प्रतिष्ठापक थे,
उसी प्रकार वर्तमान साहित्य-परंपरा के प्रवर्तक।
राजा शिवप्रसाद के उर्दू की ओर एकबारगी झुक पड़ने के पहले
ही राजा लक्ष्मण सिंह अपने ‘शकुंतला नाटक’ द्वारा संवत् १९१९ में थोड़ी संस्कृत
मिली ठेठ और विशुद्ध हिंदी सामने रख चुके थे, जिसमें अरबी-फ़ारसी के शब्द नहीं थे। उसका कुछ अंश राजा शिवप्रसाद
ने अपने ‘गुटका’ में दाखिल किया था। पीछे जब वे उर्दू की ओर झुके तब राजा लक्ष्मण
सिंह ने अपने ‘रघुवंश’ के अनुवाद के प्राक्कथन में भाषा के संबंध में अपना मत इस
प्रकार प्रकट किया –
“हमारे मत में हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यायी-न्यारी हैं। हिंदी इस देश के हिंदू बोलते
हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और फ़ारसी पढ़े हुए हिंदुओं की बोलचाल है। हिंदी
में संस्कृत के पद बहुत आते हैं; उर्दू में अरबी-फ़ारसी के। परन्तु कुछ आवश्यक नहीं है अरबी-फ़ारसी
के शब्दों के बिना हिंदी न बोली जाय और न हम उस भाषा को हिंदी कहते हैं जिसमें
अरबी-फ़ारसी के शब्द भरे हों।”
ऊपर के वातावरण से स्पष्ट है कि जिस समय राजा लक्ष्मण सिंह
और राजा शिवप्रसाद मैदान में आए थे, उस समय खींचतान बनी थी; भाषा के स्वरूप को स्थिरता नहीं प्राप्त हुई थी। वह भाषा का
प्रस्तावकाल था। प्रवर्तक-काल का आरंभ भारतेंदु की कुछ रचनाओं के निकल जाने के
उपरांत संवत् 1930 के लगभग हुआ। यद्यपि इसके पहले ‘विद्यासुंदर’ (संवत् 1925)
तथा और कई नाटक भारतेंदु जी लिख चुके थे,
पर वर्तमान हिंदी गद्य के उदय का समय उन्होंने ‘हरिश्चंद
मैगजीन’ के निकलने पर, अर्थात् संवत् 1930 से माना है।
भारतेंदु की भाषा में ऐसी क्या विशेषता पाई गई कि उसका इतना
चलन उन्हीं के सामने हो गया, इसका थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। संवत् 1860 में खड़ी बोली के गद्य का सूत्रपात करने वालों में मुशी
सदासुखलाल और सदल मिश्र ने ही व्यवहार-योग्य चलती भाषा का नमूना तैयार किया था। पर
इन दोनों की रचनाओं में सफाई नहीं थी। बहुत कूड़ा-करकट भरा था। मुंशी सदासुख भगवद्
भक्त पुरूष थे और पंडितों और साधु-संतों के सत्संग में रहा करते थे। इससे उनके
‘सुखसागर’ की भाषा में बहुत कुछ पंडिताऊपन है। उनकी खड़ी बोली उस ढंग की है जिस
ढंग की संस्कृत के विद्वान् पंडित काशी, प्रयाग आदि पूरब के नगरों में बोलते थे और अब भी बोलते हैं।
यद्यपि मुंशी जी खास दिल्ली के रहने वाले थे और उर्दू के अच्छे कवि और लेखक थे;
पर हिंदी-गद्य के लिए उन्होंने पंडितों की बोली ही ग्रहण की।
“स्वभाव करके वे दैत्य कहलाए”, “उसे दुःख हो गया” “बहकानेवाले बहुत हैं”। इस प्रकार के
प्रयोग उन्होंने बहुत किए हैं। रहे सदल मिश्र; उनकी भाषा में पूरबीपन बहुत अधिक है। ‘जो’ के स्थान पर
‘जौन’,
‘माँ’ के स्थान पर ‘मतारी’
‘यहाँ’ के स्थान पर ‘इहाँ’, ‘देखूँगी’ के स्थान पर देखौंगी’ ऐसे शब्द बराबर मिलते हैं।
इसके अतिरिक्त ब्रजभाषा या काव्य-भाषा के ऐसे-ऐसे प्रयोग जैसे ‘फूलन्ह के’,
“चहुँदिशि”,
‘सुनि’ भी लगे रह गए हैं।
इन दोनों के पीछे राजा शिवप्रसाद और लक्ष्मणसिंह का समय आता
है।
राजा शिवप्रसाद के गद्य में अधिक खटकनेवाली बात थी उर्दूपन,
जो दिन-दिन बढ़ती गई। इसी प्रकार राजा लक्ष्मणसिंह के गद्य
में खटकनेवाली बात थी आगरे के बोलचाल का पुट। दूसरी बात यह थी कि विशुद्धता का जो
आदर्श लेकर राजा लक्ष्मण सिंह चले थे, वह एक चलती व्यावहारिक भाषा के उपयुक्त था। फ़ारसी-अरबी के
जो शब्द लोगों की ज़बान पर नाचा करते थे उन्हें एकदम छोड़ देना भाषा की संचित शक्ति
को घटाना था। हँसी-मजाक के लिए कुछ अरबी-फ़ारसी के चलते शब्द कभी-कभी कितना अच्छा काम देते हैं।
यह हम लोग बराबर देखते हैं।
ऊपर लिखी त्रुटियों को ध्यान में रखते हुए जब हम भारतेंदु
की भाषा पर विचार करने बैठते हैं, तब इस बात का समझना कुछ सुगम हो जाता है कि उन्होंने हिंदी
गद्य का क्या संस्कार किया। उनकी भाषा में न तो लल्लूलाल का ब्रजभाषापन आने पाया,
न मुंशी सदामुख का पंडिताऊपन, न सदल मिश्र का पूरबीपन, न
राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन और न राजा लक्ष्मणसिंह का खालिसपन और आगरापन। इतने
‘पनों’ से एक साथ पीछा छुड़ाना भाषा के संबंध में बहुत ही परिष्कृत रुचि का परिचय
देता है। संस्कृत-शब्दों के रहने पर भी भाषा का सुबोध बना रहना,
फ़ारसी -अरबी के शब्द आने पर भी साथ-साथ उर्दूपन न आना,
हिंदी के स्वतंत्र सत्ता का प्रमाण था। उनका भाषा संस्कार शब्दों
की काट-छाँट तक ही नहीं रहा। वाक्य-विन्यास में भी वे सफ़ाई लाए। उनकी लिखावट में
एक साथ न जुड़ सकनेवाले वाक्य एक में गुँथे हुए प्रायः नहीं पाए जाते। तात्पर्य
कि उपर्युक्त संयोजक अव्ययों का व्यवहार जैसा उन्होंने चलाया,
वैसा उनके पहले न था। विराम की परख भी उन्हें राजा लक्ष्मण
सिंह और राजा शिवप्रसाद से कहीं अच्छी थी।
चली आती हुई काव्यभाषा के स्वरूप पर भी उनकी दृष्टि गई।
उन्होंने देखा कि बहुत से ऐसे शब्द, जिन्हें बोलचाल से उठे कई सौ वर्ष हो गए थे,
कविताओं में बराबर लाए जाते हैं जिसमें वे सर्वसाधारण के लगाव
से कुछ दूर पड़ती जाती है ‘चक्कवै’, ‘ठायो’, ‘करसायल’, ‘ईठ’, ‘दीह’, ‘ऊनो’, ‘लोय’ आदि के कारण बहुत से लोग हिंदी कविता की अपने से कुछ
दूर की चीज समझने लगे थे। दूसरा दोष जो बढ़ते-बढ़ते बुरी हद तक पहुँच गया था,
वह शब्दों का तोड़-मरोड़ था। जैसे कवियों का स्वभाव ‘रूख
तोड़ना’ तुलसीदास जी ने बताया है, वैसे ही कवियों का स्वभाव शब्द तोड़ना-मरोड़ना हो गया था।
भाषा की सफाई पर बहुत कम ध्यान रहता है। बाबू हरिश्चंद्र द्वारा इन बातों का भी
बहुत कुछ सुधार – चाहे जान में या अनजान में – हुआ। इस प्रकार काव्य की ब्रजभाषा के लिए भी
उन्होंने बहुत अच्छा रास्ता दिखाया। अपने रसीले कवित्तों और सवैयों में उन्होंने
चलती भाषा का व्यवहार किया है जैसे –
आजु लौं जौ न
मिले तो कहा, हम तो तुम्हरे सब भाँति कहावैं
मेरे उराहनों है
कुछ नाहिं, सबै फल आपने भाग को पावैं।।
जो हरिचंद भई सो
भई,
अब प्रान चले चहै तासों सुनावैं।
प्यारे जू! है
जग की यह रीति, विदा के समय सब कुंठ लगावैं।।
इसी कारण उनकी कविता का प्रचार भी देखते-देखते हो गया।
लोगों के मुँह से उनके सवैए भी चारों ओर सुनाई देने लगे,
उनके बनाए गीत स्त्रियाँ तक घर-घर में गाने लगीं। उनकी रचना
लोकप्रिय हुई। उनके समय में जो संग्रह-ग्रंथ बने, जब सबमें उनकी कविताएँ विशेषतः सवैये भी रखे गए। लीक
पीटनेवालों की पुरानी पड़ी हुई शब्दावली हटा देने से उनकी काव्य-भाषा में भी बड़ी
सफाई दिखाई पड़ी।
यह तो हुई भाषा की रूप-प्रतिष्ठा की बात। इससे भी बढ़कर काम
उन्होंने हिंदी-साहित्य को एक नए मार्ग पर खड़ा करके किया। वे साहित्य के नये युग
के प्रवर्तक हुए। यद्यपि देश में नए-नए विचारों और भावनाओं का संचार हो गया था,
पर हिंदी उनसे दूर थी। लोगों की अभिरूचि बदल चली थी,
पर हमारे साहित्य पर उसका कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता था।
शिक्षित लोगों के विचारों और व्यापारों ने तो दूसरा मार्ग पकड़ लिया था,
पर उनका साहित्य उसी पुराने मार्ग पर था। वे लोग समय के साथ
आप तो कुछ आगे बढ़ आए थे, पर जल्दी में अपने साहित्य को साथ न ले सके थे। उसका साथ
छूट गया था। और वह उनके विचार-क्षेत्र दोनों से अलग पड़ गया था। प्रायः सभी
जातियों का साहित्य उनके विचारों और व्यापारों से लगा हुआ चलता है। यह नहीं कि
उनकी चिंताओं कार्यों का प्रवाह एक ओर जा रहा हो और उनके साहित्य का प्रवाह दूसरी
ओर।
फिर यह विचित्र घटना यहाँ कैसे हुई? बात यह भी कि जिन लोगों
के मन में नई शिक्षा के प्रभाव से नए विचार उत्पन्न हो रहे थे,
जो अपनी आँखों काल की गति देख रहे थे और देश की आवश्यकताओं
को समझ रहे थे, उनमें अधिकांश तो ऐसे थे जिनका कई कारणों से – विशेषतः उर्दू के बीच में पड़
जाने से – हिंदी-साहित्य से लगाव छूट-सा गया था और शेष जिनमें नवीन भावों की कुछ
प्रेरणा और विचारों की कुछ स्फूर्ति थी – ऐसे थे जिन्हें हिंदी-साहित्य का क्षेत्र
इतना परिमित दिखाई देता था कि नए-नए विचारों को सन्निविष्ट करने के लिए स्थान ही
नहीं सूझता था। उस समय एक ऐसे सामंजस्य पटु-साहसी और प्रतिभा-संपन्न पुरूष की
आवश्यकता थी जो कौशल ने उन बढ़ते हुए विचारों का मेल देश के परंपरागत साहित्य से
करा देता। ऐसे ही पुरूष के रूप में बाबू हरिश्चंद्र साहित्य-क्षेत्र में उतरे।
उन्होंने हमारे जीवन के साथ हमारे साहित्य को फिर से लगा दिया। बड़े भारी विच्छेद
से उन्होंने हमें बचाया।
वे सिद्ध-वाणी के अत्यंत सरस हृदय कवि थे। इससे एक ओर तो
उनकी लेखनी से श्रृंगाररस के ऐसे रसपूर्ण और मर्मस्पर्शी कवित्त-सवैए निकलते थे,
जो उनके जीवनकाल में ही इधर-उधर लोगों के मुँह से सुनाई
पड़ने लगे थे और दूसरी ओर स्वदेश प्रेम में भरे हुए उनके लेख और कविताएँ चारों ओर
देश के मंगल का मंत्र-सा फूँकती थीं। अपनी सर्वत्तोमुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो
वे पद्माकर और द्विजदेव की परंपर में दिखाई पड़ते थे,
दूसरी ओर बंगदेश के मधुसूदनदत्त और हेमचंद्र की श्रेणी में,
एक ओर तो राधा-कृष्ण की भक्ति में झूमते हुए ‘नई भक्तमाल’
गूँथते दिखाई देते थे, दूसरी ओर टीकाधारी बगला भगतों की हँसी उड़ाते तथा
स्त्री-शिक्षा, समाज-सुधार आदि पर व्याख्यान देते पाए जाते थे। प्राचीन और नवीन का यही सुंदर
सामंजस्य भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य हैं। साहित्य के एक नवीन युग के आदि
में प्रवर्तक के रूप में खड़े होकर उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि नए-नए या
बाहरी भावों को पचाकर इस ढंग से मिलाना चाहिए कि वे अपने ही साहित्य के विकसित अंग
से लगें। प्राचीन और नवीन के उस संधिकाल में जैसी शीतल और मृदृल कला का संचार
उपेक्षित था, वैसी ही शीतल और मृदृल कला के साथ भारतेंदु का उदय हुआ;
इसमें संदेह नहीं।
कविता की नवीन धारा के बीच भारतेंदु की वाणी का सबसे ऊँचा
स्वर देशभक्ति का था। नीलदेवी, भारतदुर्दशा आदि नाटकों के भीतर आई हुई कविताओं में देशदशा
की जो मार्मिक व्यंजना है, वह तो है ही; बहुत-सी स्वतंत्र कविताएँ भी उन्होंने लिखीं जिनमें कहीं
देश के अतीत गौरव गाथा का गर्व, कहीं वर्तमान अधोगति की क्षोभ भरी वेदना,
कहीं भविष्य की भावना से जगी हुई चिंता इत्यादि अनेक पुनीत
भावों का संचार पाया जाता है। ‘विजयिनी विजय वैजयंती’ में जो मिस्र में,
भारतीय सेना की विजय-प्राप्ति पर लिखी गई थी,
देश-प्रेम-व्यंजक कैसे भिन्न-भिन्न संचारी भावों में उद्गार
हैं। कहीं गर्व, कहीं भोक्ष, कहीं विषाद ! “सहसन-बरसन सों सुन्यों जो सपने नहिं कान,
सो जय-आरज शब्द” को सुन और ‘फरकि उठी उसकी भुजा,
खुरकि उठी तलवार। क्यों आपुहि ऊँचे भये आर्य मोंछ के बार”
का कारण जान प्राचीन आर्य गौरव का गर्व कुछ आ ही रहा था कि वर्तमान अधोगति का
दृश्य ध्यान में आया और फिर भी वही हाय-भारत!’ की धुन-
हाय वहै भारत
भुव भारी। सबही विधि सों भई दुखारी।।
हाय पंचनद ! हा
पानीपात ! अजहूँ रहे तुम धरनि विराजत।।
हा चित्तोर !
निलज तू भारी। अजहु खरो भारतहि मंझारी।।
तुझमें जल नहिं
जामुन गंगा। बढ़ंहु बेगि किन प्रबल तरंगा।।
बोरहु किन झट
मथुरा कासी। धोवहु वह ललंक की रासी।।
‘चित्तौर, ‘पानीपत’ इन नामों में ही इतिहासविज्ञ हिंदू-हृदय के लिए
कितने भावों की व्यंजना भरी है। उनके लिए ये नाम ही काव्य हैं। यदि कोई कवि केवल
इन दो-चार नामों को एक साथ ले ले तो वह अपना बहुत कुछ काम कर चुका। ये आप ही
कल्पना के कपाट खोल ऐसे-ऐसे दृश्य सामने ला देंगे जिनसे क्षुब्ध होकर हृदय अनेक
गंभीर भावनाओं में मग्न हो जाएगा।
“भारत दुर्दशा’ में आलस्य आदि को लाकर इस कवि ने देशदशा को
इस ढंग से झलकाया कि नए और पुराने ढाँचों के लोगों का मन लगे। इस कलाकार में बड़ा
भारी गुण यह था कि इसने नए और पुराने विचारों को अपनी रचनाओं में इस सफाई से
मिलाया कि कहीं से जोड़ मालूम न हुआ। पुराने भावों और आदर्शों को लेकर इन्होंने नए
आदर्श खड़े किए। देखिए, “नीलदेवी’ ने एक देवता के मुँह से भारतवर्ष का कैसा मर्मभेदी
भविष्य कहलाया-
सब भाँति दैव
प्रतिकूल होय एहि नासा।
अब तजहु वीर वर
भारत की सब आसा।।
अब सुख-सूरज को
उदय नहीं इत है है।
मंगलमय भारत-भुव
मसान है जै है।।
राजा सूरजदेव के मारे जाने पर रानी नीलदेवी ने जिस रीति से
भगवान को पुकारा है वह कोई नई बात नहीं। वह रीति है जिससे द्रौपदी ने भगवान् को
पुकारा था। भेद इतना ही है कि द्रौपदी ने अपनी लज्जा रखने के लिए,
अपना संकट हटाने के लिए, पुकार मचाई थी; नीलदेवी ने देश की लज्जा रखने के लिए,
देश का संकट दूर करने के लिए पुकारा है –
कहाँ करूनानिधि
केशव सोए?
जागत नाहिं,
अनेक जतन कर भारतवासी रोए।।
बड़ा भारी काम भारतेंदु ने यह किया कि स्वेदशाभिमान,
स्वजाति-प्रेम, समाज-सुधार आदि की आधुनिक भावनाओं के प्रवाह के लिए हिंदी
को चुना तथा इतिहास, विज्ञान, उपन्यास पुरावृत्त इत्यादि अनेक समयानुकुल विषयों की ओर
हिंदी को दौड़ा दिया। अब यह देखना है कि यदि वे कवि थे तो किस ढंग के थे?
विषय-क्षेत्र के विचार से देखते हैं तो प्रायः तीन ढंग के
कवि पाए जाते हैं, कुछ तो नर-प्रकृति के वर्णन में ही अधिकतर लीन रहते हैं,
कुछ ब्राह्य प्रकृति के वर्णन में और कुछ दोनों में समान रूचि
रखते हैं। पिछले वर्ग में वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति इत्यादि संस्कृत के प्राचीन कवि ही आते हैं।
बाबू हरिश्चंद्र अधिकांश भाषा-कवियों के समान प्रथम प्रकार
के कवियों में थे। यद्यपि इन्होंने अपनी कविता द्वारा-नये संस्कार,
उत्पन्न किए; पर उसके स्वरूप को परंपरानुसार ही रखा। मानवी वृत्तियों ही
के मर्मस्पर्शी अंशों को छाँटकर उन्होंने मनोविकारों को तीव्र और परिष्कृत करने का
प्रयत्न किया, दूसरी प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की मर्मस्पर्शिनी शक्ति पर बहुत कम
ध्यान दिया। इन्होंने मनुष्य को सारी सृष्टि के बीच रखकर नहीं देखा,
उसे उसी के उठाए हुए घेरे में रखकर देखा। मनुष्य की दृष्टि
को उसके फैलाए हुए प्रपंचावरण से बाहर प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र की ओर ले जाने
का प्रयास इन्होंने नहीं किया। बात यह है कि हिंदी-साहित्य का उत्थान ही ऐसे समय
में हुआ जब लोगों की दृष्टि बहुत कुछ संकुचित हो चुकी थी। वाल्मीकि,
कालिदास और भवभूति के आदर्श लोगों के सामने से हट चुके थे।
हमारे आदिकवि वाल्मीकि के हृदय में जो भावुकता थी,
वह कुछ काल पीछे मंद पड़ने लगी। जिस तन्मयता के साथ
उन्होंने प्रकृति का निरीक्षण किया है, उसकी परंपरा कालिदास, भवभूति तक पाई जाती है। वाल्मीकि के हेमंत-वर्णन में कैसा
सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण है। उनके वर्षा-वर्णन में भी यही बात है-
क्वचित्प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं,
नभः
प्रकीर्णाम्बुधनं विभाति।
क्वचित् क्वचित्पर्वत-सन्निरूद्धं
रूपं यथा
शांतमहार्वस्य ॥
व्यामिश्रितं सर्जकदंब-पुष्पै-
र्नवं जल
पर्वत-धातु-ताम्रम्।
मयूरकेकाभिरनुप्रयातं
शैवापगाः
शीघ्रतरं वहंति।
उपर्युक्त वर्णन में किसी सूक्ष्मता के साथ कविकुल-गुरू ने
ऐसे प्राकृतिक व्यापारों का निरीक्षण किया है जिनको बिना किसी अनूठी उक्ति के
गिना देना ही कल्पना को परिष्कार और भाव को संचार करने के लिए बहुत है। कालिदास के
कुमारसंभव का हिमालय-वर्णन रघुवंश में उस वन का वर्णन जहाँ नंदिनी को लेकर दिलीप
गए हैं,
तथा मेघदूत में यक्ष के बताए हुए मार्ग का वर्णन बार-बार पढ़ने
योग्य है। भवभूति का तो कहना ही क्या है। देखिए-
एते त एव गिरयो विरूवन्मयूरा-
स्तान्येव
मत्तहंरिणानि वनस्थलानि।
आमज्ज-वज्जुल-लतानि व तान्यमूनि,
नीरंध्र-नील-निचुलानि
सरित्तटानि।।
इन महाकवियों ने कथा-प्रसंग के अतिरिक्त जहाँ वर्णन की
रोचकता के लिए मनुष्य-व्यापार दिखाए हैं, वहाँ इन्होंने ऐसे ही स्थलों के व्यापारों को दिखलाया है
जहाँ मनुष्य के प्रकृति की सन्निकटता है – जैसे ग्रामों के आस-पास किसानों का खेत
जोतना या काटना, ग्वालों का गाय चराना इत्यादि-इत्यादि। जैसे मेघदूत में यक्ष मेघ से कहता है-
क ) त्यय्यायतं
कृषिफलमिति भ्रूविकारानभिज्ञैः
प्रीतिस्निधैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः।
सद्यस्सीरोत्कर्षण-सुरभि क्षेत्रमारूह्म मालं
किञ्चित्पश्चाद
ब्रज लघुगतिः किञ्चिदेवोत्तरेण।
ख ) कृषी निरावहिं
चतुर किसाना।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।।
सच्चे कवि ऋतु आदि के वर्णन में ऐसे ही व्यापारों को सामने
लाए हैं। ऐसे कवि ग्रीष्म में छाया के नीचे बैठकर हाँफते हुए कुत्तों और पानी में
बैठी हुई भैसों का उल्लेख चाहे भले ही कर जाएँ, पर पसीने से तर रोकड़ मिलाते हुए मुनीम जी की ओर ध्यान न
देंगे।
मनुष्य के व्यापार परिमित और संकुचित हैं। अतः बाह्म
प्रकृति के अनंत और असीम व्यापारों के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अंशों को सामने करके
भावना या कल्पना को शुद्ध और विस्तृत करना भी कवि का धर्म है,
धीरे-धीरे लोग इस बात को भूल चले। इधर उच्च श्रेणी के भी जो
कवि हुए,
उन्होंने अधिकतर मनुष्य की चित्त-वृत्तियों के विविध रूपों
को कौशल और मार्मिकता के साथ दिखाया, पर बाह्म प्रकृति की स्वछंद क्रीड़ा की ओर कम ध्यान दिया।
पीछे से तो राजाश्रयलोलुप मँगते कवियों के कारण कविता केवल वाक्पटुता या शब्दों
का शतरंज बन गईः विषयी लोगों के काम की चीज हो गई। भर्तृहरि के समय ही से यह
दुरवस्था आरंभ हो गई थी जिस पर उन्होंने दुःख के साथ कहा था –
पुरा
विद्वत्तासीदुपशमवतां क्लेशहतये
गता कालेनासौ
विषयसुख-सिद्ध्यै विषयिणाम्।
वन, नदी, पर्वत आदि इन याचक कवियों को क्या दे देते जो वे उनका वर्णन
करने जाते। सूर और तुलसी आदि स्वच्छंद कवियों ने हिंदी कविता को उठाकर खड़ा ही
किया था कि रीतिकाल से शृंगारी कवियों ने उसके पैर छानकर उसे गंदी गलियों में
भटकने के लिए छोड़ दिया। फिर क्या था, नायिकाओं के पैरों में मखमल से सुर्ख बिछौने गड़ने लगे। यदि
कोई षड्ऋतु की लीक पीटने खड़े हुए तो कहीं शरद् की चाँदनी से किसी विरहिणी का
शरीर जलाया, कहीं कोयल की कूक से कलेजों के टूक किए, कहीं किसी का प्रमोद से प्रमत्त किया। उन्हें तो इन ऋतुओं
को उद्दीपन मात्र मान संयोग या वियोग की दशा का वर्णन करना रहता था। उनकी दृष्टि
के इन व्यापारों पर तो जमती नहीं थी, नायक या नायिका ही पर दौड़-दौड़कर जाती थी अतः उनके नायक या
नायिका की अवस्था-विशेष का प्रकृति की दो-चार इनी-गिनी वस्तुओं से जो संबंध होता
था,
उसी को दिखाकर वे किनारे हो जाते थे।
बाबू हरिश्चंद्र ने यद्यपि समयानुकूल प्रसंग छेड़ नए-नए
संस्कार उत्पन्न किए पर उन्होंने भी प्रकृति पर प्रेम न दिखाया। उनका जीवन-वृतांत
पढ़ने से भी पता लगता है कि वे प्रकृति के उपासक न थे। उन्हें जंगल,
पहाड़, नदी आदि को देखने का उतना शौक न था। वे अपने भाव “दस तरह के
आदमियों के साथ उठ-बैठकर” प्राप्त करते थे। इसी से मनुष्यों की भीतरी-बाहरी
वृत्तियाँ अंकित करने में ही वे तत्पर रहे हैं और नाटकों की ओर उन्होंने विशेष रूचि
दिखाई है। भारत-दुर्दशा, नीलदेवी, वैदिकी हिंसा-हिंसा न भवति, विषस्य विषमौषधम् आदि देखने से यह बात अच्छी तरह मन में
बैठ जाएगी।
ऐसा भी कहा जाता है कि एक दिन उसके यहाँ बैठकर एक वेश्या गा
रही थी। उसे देखकर उन्होंने कविता बनाई और पास के लोगों से कहा- ‘देखो यदि हम इनका
सत्संग न रखें तो ये भाव कहाँ से सूझे?” वे उर्दू कविता के भी प्रेमी थे जिसमें बाह्म प्रकृति के
सूक्ष्म निरीक्षण की चाल ही नहीं और जिसमें कल्पना के सामने आनेवाले चित्रों(ImaGery) के वीभत्स और घिनौने होने कुछ परवा न कर भावों
के उत्कर्ष की ही ओर ध्यान रखा जाता है। यदि ऐसा न होता तो “मरे हूँ पै आँखें ये
खुली ही रहि जाएँगी” ऐसे पद्य वे न लिखते। भावों का उत्कर्ष उन्होंने अच्छा
दिखलाया है। वन, नदी, पर्वत आदि के चित्रों द्वारा मनुष्य की कल्पना को स्वच्छ और
स्वस्थ करने का भार उन्होंने अपने ऊपर नहीं लिया था।
उनकी रचनाओं में विशुद्ध प्राकृतिक वर्णनों का अभाव बराबर
पाया जाता है। वस्तु-वर्णन में उन्होंने मनुष्यों की कृति ही की ओर अधिक रूचि
दिखाई। जैसे ‘सत्यहरिश्चंद्र’ के गंगा के इस वर्णन में-
नव उज्जल जलधार
हार हीरक सी सोहति।
बिज-बिज छहरत
बूँद मध्य मुक्ता मनु पोहति।।
लोल लहर लहि पवन
एक पै इक इमि आवत।
जिमि नरगन मन
विविध मनोरथ करत मिटावत।।
कासी कहँ प्रिय
जानि ललकि भेंट्यों उठि धाई।
सपनेहू नहिं तजी
रही अंकम लपटाई।।
कहूँ बँधे नवघाट
उच्च गिरिवर सम सोहत।
कहूँ छतरी,
कहूँ मढ़ी-बढ़ी मन मोहत जोहत।।
धवल धाम चहुँ ओर
फरहरत धुजा पताका।
घहरित घंटा धुनि,
धमकत धौंसा करि साका।।
मधुरी नौबत बजति,
कहूँ नारी नर गावत।
वेद पढ़त कहुँ
द्विज,
कहुँ जोगी ध्यान लगावत।।
काशी के लोगों के विलक्षण स्वभाव तथा ऊँची-ऊँची हवेलियों और
तंग गलियों का वर्णन करने ही के लिए “काशी छायाचित्र लिखा गया। “चंद्रावली नाटिका’
में एक जगह यमुना के तट पर वर्णन आया है। पर वह भी परंपरा (conventional)
ही हैं। उसमें उपमानों और उत्प्रेक्षाओं आदि की भरमार इस
बात को सूचित करती है कि कवि का मन प्रस्तुत प्राकृतिक वस्तुओं पर रमता नहीं था,
हट-हट जाता था। कुछ अंश देखिए –
१.
तरनि-तनूजा-तट-तमाल-तरूवरं
बहु छार।
झुके कूल सों जल
परसन हित मनहुँ सुहाए।
किधौं मुकुर मैं
लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कैं प्रनवत जल
जानि परम पावन फल लोभा।।
मनु आतप-वारन
तीर को सिमिटि सबै छाए रहत।
कैं हरि-सेवा
हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत।।
२.
कहूँ तीर पर कमल
अमल सोभित बहु भाँतिन।
कहुँ सैवालन
मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन।।
मनु दृग धारि
अनेक जमुन निरखति ब्रज सोभा।
कै उमगे
पिय-प्रिया-प्रेम के अनगनित गोभा।।
कै करिकै कर बहु,
पीय को टेरत निज ढिग सोहई।
कै पूजन को
उपचार लै चलति मिलन मन मोहई।।
३.
कै पिय-पद उपमान
जानि यहि निज उर धारत।
कै मुखि कर बहु
भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत।।
कै ब्रज
तियगन-बदन कमल की झलकति झाँई।
कै ब्रज
हरिपद-परस हेतु कमला बहु आई।।
कै सात्त्विक
अरू अनुराग दौ ब्रजमंडल बगरे फिरत।
कै जानि लच्छमी-भौन
यहि करि सतधा निज बल धरत।।
(‘चिन्तामणि’ से साभार, पृ. 187-199)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
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