शनिवार, 31 दिसंबर 2022

कहानी

 

रेत का घर

सुदर्शन रत्नाकर 

             ज़मीन पर खींची रेखाएँ उसने शीघ्रता से मिटा दीं। बरामदें में कदमों की आहट सुनाई दी थी। उसने सोचा बहू देखेगी तो क्या कहेगी। कहेगी नहीं तो दिल में सोचेगी ज़रूर, अजय से कह दिया तो। प्राय: ऐसी ही शंकाएँ उठती रहती हैं और वह मन में उभरती भावनाओं को मिट्टी पर खींची रेखाओं की तरह मिटा देती है।

            बचपन में पाँव के ऊपर गीली रेत का घरौंदा बनाया करती थी। बस, घर बन गया। पेड़ की पत्तियाँ इधर-उधर बिखरा कर सजा देती थी। लेकिन रेत के सूखते ही घरौंदा ढह जाता। इसी तरह घर बनते रहे, रेत सूखती रही, घर ढहते रहे। बचपन किसी बिछुड़े साथी-सा बन गया जो एक बार मिला था। फिर न जाने किस राह पर चला गया।

            शादी हुई तो कितनी प्रसन्न थी वह। उसका अपना घर होगा जिसमें वह विनय के साथ रहेगी। लेकिन शादी के बरसों बाद तक ऐसा नहीं हो सका। उसे कई बार लगता उसका यह जीवन उसका अपना नहीं है। जीने का नाटक करती रही। विनय महीनों बाहर रहते। भरे-पूरे परिवार में वह अकेलापन महसूस करती। विनय जब लौटते तो उसे वे कुछ क्षण अपने लगते। वह जीवन उसका अपना हो जाता।

          ऐसा कब तक चलता रहेगा,” उसने विनय से पूछा था।

          बहुत जल्द सब ठीक हो जाएगा, हमारा अपना घर होगा जिसमें हम बच्चों के साथ रहेंगे। सांत्वना के ये शब्द कहते वह फिर चले जाते। वह सूनी आँखों से विनय को जाते देखती रहती। फिर लौट आती सूनी-सी जिंदगी जीने के लिए। बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए।।

             विनय की पोस्टिंग कभी कहीं होती, तो कभी कहीं। आज यहाँ तो कल वहाँ, ट्यूरिंग जॉब। हर शहर में मकान की समस्या के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा में पड़ने वाली अड़चनों ने उसे विनय से दूर रहने पर विवश कर दिया।

             कब उसने यौवनावस्था की दहलीज को पार कर लिया, पता ही नहीं चला। उसे इस बात का अहसास तब हुआ जब नीला यौवन के द्वार पर आ खड़ी हुई। बरसों से जो बचाया था वह नीला की शादी पर लग गया। जब अजय की शादी हुई तो उसने कहा था कि अब तो  सब का घर भी बस गया है। हम भी एक छोटा-सा घर ले लें जिससे जीवन की शेष बची हुई साँसें एक छत के नीचे ले लें।

       वे किराए के मकान में कुछ दिन एक साथ रहे थे, पर भला कितने दिन। बचा तो कुछ भी नहीं था। जो पेंशन मिलती थी उससे निर्वाह नहीं हो पाता था। अमित ने कहा था, “पापा हमारे पास क्यों नहीं रह लेते। इक्ठ्ठे रहने से तो कम में भी गुज़ारा हो जाएगा। अलग से निकालना मुश्किल हो जाता है।”। लगा था कोई बड़ा-सा गोला माथे से आ टकराया था।

               आशाओं से बना घर रेत के महल की तरह ढह गया। वे दोनों अमित के पास आ गए। ढलते सूर्य के कुछ क्षणों की तरह यह समय भी बीत गया। गर्मी की लम्बी दोपहरें और सर्दी की ठिठुरती रातें एक साथ बीत गईं। अपना न सही बेटे का घर तो था न लेकिन कब तक। कुछ महीने बाद ही अजय का पत्र आ गया था।  “माँ को भेज दो, निशा की तबीयत ठीक नहीं रहती। माँ अकेले न आ सके तो वह स्वयं आकर ले जाएगा।” बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए अजय तीसरे ही दिन उसे लेने आ गया था।

          चलते समय उसने कहा था,” बेटे अपने पापा को भी साथ ले चलते। बूढ़ा शरीर है, फिर तुम दोनों तो बाहर रहोगे।---मैं---”वह बात पूरी भी न कर पाई थी कि अजय बोला, “ अभी नहीं मम्मी, मैं बाद में आकर पापा को ले जाऊँगा।” बात उसके मन में कहीं चुभ गई थी । किन्तु यहाँ आकर वह स्वयं ही समझ गई थी कि अजय ने ऐसा क्यों कहा था।

         गौतम के रोने की आवाज़ आ रही थी। निशा रसोईघर में थी। जल्दी से आकर उसने उसे उठा लिया लेकिन वह चुप नहीं हुआ। शायद भूख लगी थी उसे। वह निशा से बोली, बहू तुम यहाँ आ जाओ, मैं रसोईघर में आ जाती हूँ।”

       दाल को छोंक लगाते हुए वह फिर न जाने कहाँ खो गई। पिछली सर्दियों में अमित को मुम्बई में काम था। वह एक सप्ताह के लिए आया था। सारा दिन वह काम में लगा रहता और देर  से घर लौटता। प्रतीक्षा करते-करते वह सो जाती, अमित भी थका होता। अजय के कमरे में थोडी-सी बची जगह पर उसके सोने का प्रबंध कर दिया था, वह आते ही सो जाता। सुबह सबको काम पर जाने की जल्दी होती। किसी के पास भी बात करने का समय नहीं था। जिस दिन अमित आया था बस उसी दिन उसने सबके बारे में एक साथ बता दिया था। लेकिन वह और भी बहुत कुछ जानना चाहती थी। कैसे हैं उसके पापा, क्या करते हैं सारा दिन?

           जिस दिन अमित को वापिस जाना था उसके एक दिन पहले वह शाम को ही घर लौट आया था। खाना खाते समय उसने बताया था सर्दी के कारण पापा के घुटनों में दर्द  रहने लग गया है। दवा तो लेते हैं पर आराम नहीं आ रहा।

       खाना खाने के बाद सब सो गए थे लेकिन वह खुली आँखों से अंधेरे में विनय को देखती रही थी। उसे लगा था विनय पानी लेने के लिए उठें हैं। पाँव लड़खड़ा गए हैं और वह गिर पड़े हैं। शिमला की सर्द बर्फ से घिरी रात और असहाय विनय उसे आवाज़ दे रहें हैं। उससे आगे नहीं देखा गया। सोने की कोशिश की लेकिन सो नहीं पाई। कभी वह देखती कि विनय अपने कमज़ोर हाथों से घुटनों की मालिश कर रहे हैं। ऊँगलियाँ चटक-चटक जाती हैं उनकी। फिर सुनती रही वह रात भर विनय की खाँसी की आवाज़। सुबह जब वह चारपाई से उठी तो उसका बदन टूट रहा था। अमित जब जाने लगा तो उसने कहा,” निशा अब ठीक है अमित, मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी” अजय बीच में ही बोल उठा, “ वह तो ठीक है माँ लेकिन तुम चली गई तो गौतम को कौन देखेगा ?”

         यह तो वह भूल ही गई थी कि अजय और निशा के चले जाने के बाद वह ही तो गौतम की देखभाल करती है।

         कुछ दिन और रुक जाओ माँ, गौतम के लिए कोई प्रबंध हो गया तो फिर चली जाना।” कह कर अमित लौट गया था।

       लेकिन कई दिन की दौड़ -धूप के बाद भी गौतम के लिए कोई अच्छा प्रबंध नहीं हो सका। कुछ दिन बाद अमित का फ़ोन आया था कि पापा को कई दिन से बुखार आ रहा है। खाँसी अभी भी पीछा नहीं छोड़ रही। माँ नहीं आ सकती तो पापा को वहाँ भेज दे। यहाँ बहुत सर्दी है। थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा और गौतम को भी देख लेंगे।

            थोड़े दिन के ठहराव के बाद फिर एक समस्या आ खड़ी हुई थी। एक कमरे का घर--बरामदे को ढककर बनाए गए रसोईघर में वह सोती है, जहाँ केवल एक बिछौने का स्थान है।” पापा आ गए तो कहाँ सोएँगे” अजय बोला

   उसने कहा, “ आने पर सब ठीक हो जाएगा। वह ज़मीन पर ही सोने का स्थान बना लेगी”

लेकिन अजय ने कहा,” ऐसा अच्छा नहीं लगता। मैं दो कमरों का मकान ढूँढ रहा हूँ।न भी मिला कोई एक बडा कमरा मिल जाएगा। पार्टीशन करके दो कर लेंगे।”

        अमित को उत्तर दे दिया गया।लेकिन उन्हें दो कमरे या बड़े कमरे का मकान नहीं मिला या शायद आय के सीमित साधनों के कारण अजय के लिए यह कठिन हो गया हो।

           और फिर अमित एक दिन दोपहर को ही घर लौट आया था। उदास खोया-सा।

अमित का फ़ोन आया था, पापा ठीक नहीं। डाक्टर ने जवाब दे दिया है।

               मुम्बई से शिमला तक का लम्बा रास्ता। जब तक वे पहुँचे , सब कुछ समाप्त हो चुका था। यहाँ तक कि अंतिम समय तक भी नहीं पहुँच पाए थे वे। अजय भाई के गले लग कर पापा-पापा कह कर रोता -बिलखता रहा, लेकिन वह सूनी आँखों से विनय की चीज़ों को देखती रही। उनके पलंग को, टेबल को, कपड़ों को जैसे उनमें कहीं विनय को ढूँढ रही हो। कह रही हो,” देखो मैं तो आ गई विनय, तुम क्यों चले गए हो। मेरी प्रतीक्षा भी नहीं की तुमने। तुम तो कहते थे, एक साथ रहेंगे अपने घर में -अब-अब।” और वह फूट फूट कर रो पड़ी।

सभी को नौकरी पर जाना था इसलिए सभी रस्में जल्दी ख़त्म कर दी गईं। फिर दोनों भाइयों में उसको लेकर लम्बी मंत्रणा हुई और वह अजय के साथ मुम्बई लौट आई।

            काम समाप्त हो गया तो वह खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई। ऐसा वह रोज करती है। दूर कहीं समुद्र में डूबते सूर्य की लालिमा आकाश में फैल जाती है तो पक्षियों के दल अपने-अपने घोंसलों में लौटने लगते हैं। वह उन्हें दूर-दूर तक जाते देखती रहती है। उसका रेत का घर बिखरने लगता है।

 



सुदर्शन रत्नाकर

फ़रीदाबाद - 121001

 

 

 

4 टिप्‍पणियां:

  1. प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद अनिता जी सुदर्शन रत्नाकर

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  2. मेरी कहानी प्रकाशित करने के लिए हार्दिक आभार पूर्वा जी। सुदर्शन रत्नाकर

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