शनिवार, 31 दिसंबर 2022

अनुवाद

 


दगा

राघव जी माधड़

अनुवाद – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

सोमा का भ्रम, पानी में जैसे ढेला गलता है, वैसे ही गल गया। नग्न वास्तविकता उसे तीक्ष्ण नख की तरह नोंचने लगी। वह अपने आपको ‘कार्यकर्ता’ समझने लगा था।

उसके पास एक ही जोड़ी खादी का कुर्ता-पायजामा था; फिर भी उसे वह एकदम लकालक रखता था। रात को धुलवाकर सुबह में पहन लेता था।

बस स्टैंड जाने के लिए जब वह भरे बाजार से निकलता, तब थोड़ा टूटा हुआ पोर्टफोलियो हवा में टेढ़ा पकड़कर सभी को राम-राम ... राम-राम ठोंकते हुए निकला - एकदम अनोखी अदा से। ऐसा करने में वह एक तरह का गर्व अनुभव करता और मन ही मन मानता कि इससे भरे बाजार में उसकी धाक पड़ती है।

सोमा गाँव के आखिरी छोर पर रहने वाला मजदूर था। वह कुआँ खोदने का स्पेशलिस्ट था। हाथ में तसला, फावड़ा या घन लेकर एकदम सुबह कुआँ खोदने के काम पर निकल जाता और शाम को अँधेरा होने पर वापस आता। इस मजदूरी से किसी तरह से उसके परिवार का गुजारा चलता।

दो-चार कक्षा तक पढ़ा भी था। इसलिए कभी-कभी चौकीदार या चपरासी का इंटरव्यू भी दे आता था। परंतु एक बार चौकीदार के इंटरव्यू में साहब ने पूछा : ‘मानो कि तुम ड्यूटी पर हो और उसी समय कोई चोर आकर तुम्हें मार डाले, तो तुम क्या करोगे?’

सोमा उलझन में पड़ गया। कोई उत्तर दिए बिना ऑफिस से बाहर आ गया। और तभी पीछे से अट्टहास सुनाई पड़ी, जो कई दिनों तक उसके कानों में गूँजती रही।

बस, तब से उसने सपना देखना छोड़ दिया।

रात को भोजन के बाद, कभी-कभी चाय-चीनी की पुड़िया वाले पस्ती के अखबार को दीये की रोशनी में पढ़ा करता। उसमें छपे विज्ञापनों से वह खुशी की तरंग में आता और सेवार की तरह विचारों की शृंखला बनाने लगता। उसमें वह गोमती को हिरोइन के साँचे में ढालता; नंग-धड़ंग बच्चों को, विटामिन के विज्ञापन में आने वाले तंदुरुस्त बच्चों के साथ मिलाने लगता। कल्पना मात्र से वह खिल उठता और किसी धनवान की तरह बड़प्पन का अनुभव करने लगता।

फिर देखता तो, ओरियानी से टपकती हुई छप्पर, लोटते हुए गंदे-फंदे बच्चे, कम उम्र में ही अत्यंत सुंदर होते हुए भी फटी साड़ी में अपने अंगों को ढँकने की कोशिश करती कुम्हलाए चेहरे वाली गोमती!

मन कचोटने लगता, छाती में गरम सलाख चुभती हो ऐसी वेदना से आँखों में तीखे मीर्च की जलन होने लगती ... असलियत को देखकर।

सोमा को लगता कि चीख-चीखकर कहे : ‘लो! हमारी संस्कृति का चित्रण करो ... अपने इतिहास के पन्नों को उज्ज्वल करने के लिए।’

परंतु सोमा मन मसोसकर रह जाता। समझदार होने के अभिशाप से वह दुखी होता ... कभी-कभी रुआँसा होकर हँस पड़ता।

काल गढ़ता रहा सोमा को कुम्हार की तरह थापी मार-मारकर। ... और वह दिन-प्रतिदिन मूढ़ बनता गया।

एक बार की बात है -

सोमा के पाँव में चोट आ गई। घन की चोट सीधे पाँव पर ... और सोमा सीधे खाट पर। राजकुमारी की भाँति बढ़ती मँहगाई और ऐसे में सोमा का खाट में पड़े रहना। घर में चूल्हा बुझने की नौबत आ गई। कहीं हाथ फैलाया नहीं जा सकता था।

परंतु ऐसे कठिन समय में गाँव के सरपंच रमुभाई ने साथ दिया। वे एक बार गाँव के दो-चार सवर्णों के साथ जीप में बैठकर उसके घर आए।

कहो सोमाभाई! अब तुम्हारा पाँव कैसा है?’

सोमा तो दंग रह गया। आँखें मलकर देखा। यह हकीकत थी। कोई अपना सगा समाचार सुनकर दौड़ा आए, ऐसे ही सरपंच आए थे। सोमा को क्षण भर में अपने घायल पाँव पर प्रेम उमड़ पड़ा। रमुभाई और उनके साथ आए लोग, आषाढ़ के पहले बादल की तरह, प्रेम की वर्षा करने सोमा पर टूट पड़े।

सोमा तो प्रेम की वर्षा से सराबोर हो गया। जाते-जाते ‘सोमाभाई! ... यह रखो! ... और आगे जरूरत पड़ने पर कहना ... हम बैठे हैं।’

पर ...’ सोमा इतना ही बोल सका और सौ-सौ के दो नोट अपनी बंडी की जेब में रख लिया।

सोमला! ... कुआँ खोदने वाला सोमला ... सोमाभाई कब बन गया ... और रमुभाई जैसा आदमी उसकी खोज-खबर ले! ... सोमा का मन गोल-गोल घूमने लगा। वह देर तक विचारता रहा। परंतु जेब में पड़े दो खजूर छाप नोट उसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचने नहीं देते थे। परंतु मन ही मन उसे निश्चय हो गया कि सोमला ... वास्तव में सोमाभाई ही है। घर तो खानदानी है; परंतु भूख से टूट गया है। शाम को मजदूरी से लौटी गोमती को उसने सारी बात बताई। गोमती बिचारी सीधी गाय! वह तो मुँह बाए बात सुनती रही। परंतु उसके मुँह पर छलकते धन्य भाव को सोमा ने दीये की मद्धिम रोशनी में अपनी आँखों से देखा।

सारी रात सोमा करवटें बदलता रहा। एक तरफ अपनी नग्न वास्तविकता और दूसरी तरफ गीले महल जैसे कोमल और ताजे विचार!

अच्छा सोचने का सोमा को कभी मौका ही नहीं मिला था। परंतु इस समय सोमा ने जी भरकर अच्छे-अच्छे विचारों का आनंद लिया।

दूसरे दिन लगभग दस बजे पुलिस की जीप गली में आकर खड़ी हुई थी। तब सोमा आतंकित हो उठा : पु ...लि...स!

मारे गए! अब तो पीठ फाड़ डालेंगे।

जिस पाँव पर कल प्रेम उमड़ रहा था, आज उसी पाँव पर सोमा को क्रोध उत्पन्न हुआ। ठीक होता तो कूदकर भाग जाता ।

सोमा की छाती धौंकनी की तरह चलने लगी। पर, रमुभाई को देखा तो जान में जान आई।

तुम्हीं हो सोमाभाई?’

हाँ-हाँ ... यही सोमाभाई, जिसे धक्का मारकर कुएँ में डाला। देखिए न पाँव में! ... बेचारा बच गया नहीं तो ...।’

कारण?’

कारण और क्या साहब! ... सोमाभाई की मजदूरी का पैसा निकलता है ... देना न पड़े ... इसलिए ...।’

इंस्पेक्टर थोड़ी देर तक सोचता रहा। फिर रमुभाई की तरफ देखा।

साहब! ये मजदूर लोग डर के मारे कुछ भी बोल नहीं सकते।’

सोमा के हाथ की बीड़ी बुझकर कब ठूँठी हो गई, उसे पता भी न चला।

सब चले गए। परंतु रह गए रमुभाई के शब्द ‘सोमाभाई! परेशान मत होना इस रमुभाई के राज में।’

क्या घटित हो गया? बीड़ी के ठूँठ को फिर से सुलगाने के लिए जलाई गई माचिस की तीली अँगूठे के पोर पर लगाकर देखा। जला; परंतु हकीकत समझ में आ गई।

कानाभाई का कुआँ खोद रहा था। इसलिए केस उसी के विरुद्ध! फिर बाद में ख्याल आया कि कानाभाई ने सरपंच के चुनाव में रमुभाई से पंजा लड़ाया है।

जो होना था हो गया। परंतु सोमा ने मजदूरी पर जाना बंद कर दिया।

अब सोमा का हाथ दबा हुआ नहीं रहता रमुभाई के राज में। बाकी की बात गई झख मारने।

लकालक कुर्ता-पायजामा और कंधे पर सफेदी मढ़ा चौकोर नेपकिन! और हाथ में तीस नंबर की बीड़ी। पार्टी के कार्यालय में जाता है। मोटर में घूमता है। अगल-बगल के गाँवों के जातिबंधुओं को समझाता है। जरूरत पड़ने पर सिखाया हुआ भाषण भी ललकार देता है।

घर में जहाँ बरतन दौड़ लगाया करते थे; चूल्हा बुझा रहता था; शरीर को नए कपड़ों से मानो जन्मजात वैर था, वहाँ चारों बच्चों के शरीर पर एकदम नए कपड़े चढ़ गए और सरपंच के घर से जो पुराने कपड़े आए, वे तो घेलुवा में। सोमा ने गोमती को पहली बार नई साड़ी में देखा; और फिर देखता ही रह गया। बच्चों के इधर-उधर होने पर सोमा ने गोमती के गाल पर चपत लगाई।

जा-जा! ... अब इस उम्र में ... ’

अभी ही तो सही उम्र आई है गोमती!’

कितने ही वर्षों के बाद दोनों खुलकर हँसे थे।

चुनाव प्रचार जोरों पर था। सोमा दिन तो दिन रात में घर भी नहीं आता था। पर हाँ, घर खर्च के लिए रुपया किसी के हाथों भिजवा देता और कहता कि गोमती से कहना : इस समय मेरे पास मरने का भी समय नहीं है - समझे!

रमुभाई के कहे अनुसार : पार्टी जीत जाएगी तो अपनी भी कुछ व्यवस्था हो जाएगी; फिर सारी जिंदगी मजा ही मजा!

कुछ’ का मतलब क्या? सोमा की समझ में नहीं आता था। परंतु उसने मन को मना लिया था - हमें तो फल खाने से मतलब या पेड़ गिनने से!

सब कुछ सकुशल बीत गया। परंतु कार्यकर्ताओं की भीड़ में सोमा का कुछ भी सकुशल नहीं हुआ। अथवा तो गोजर के पाँवों की तरफ किसी ने देखा नहीं।

कोई बात नहीं! रमुभाई मिल जाएँ तो सब ठीक हो जाएगा।’

परंतु रमुभाई मिलते ही न थे।

होता है ... बड़े आदमी हैं ... समय कहाँ से मिले?’

बस स्टेशन पर खड़े-खड़े रमुभाई को मोटर में देखा। भाव-विभोर होकर सोमा मोटर के आगे पहुँच गया। सोमा कुछ कहे, उसके पहले ही रमुभाई बोल पड़े : ‘सोमा जगह नहीं है, नहीं तो तुम्हें ले लेता।’

पर ...’ सोमा के बोलने के पहले ही मोटर घर्रऽऽ ... करते हुए निकल गई। धूल उड़ाती मोटर को सोमा कितनी ही देर तक देखता रहा।

रमुभाई ही थे। ... सोमा विचारने लगा; और ‘हाँ-ना’ के करघे पर कल और आज का ताना-बाना बुनने लगा।

जेब में पैसा नहीं ... घर में दाना नहीं।

सोमा तिराहे पर खड़ा है।

एक रास्ता घर की तरफ जाता है, जहाँ चूल्हा जलने की राह देखता है। दूसरा रास्ता शहर की तरफ जाता हैं, परंतु वहाँ ‘जगह नहीं है।’

और तीसरा रास्ता सिवान की ओर जाता है, जहाँ वह कुआँ खोदता था। अब वह किधर जाए? मानो सभी दिशाओं में ऊँचे-ऊँचे दरवाजे भिड़ गए हों और उन पर अर्गला चढ़ गई हो। वह खुद कैद हो गया है। अब धीरे-धीरे सभी दरवाजे एक हो जाएँगे और वह उनके बीच दब जाएगा।

नहींऽऽ ...!’

करते सोमा माथा पकड़कर बैठ जाता है।

स्थान और समय का भान नहीं रहा। आँखें खोलता है, तो चारों तरफ अंधकार! अंधकार को टटोलता है। अँधेरी रात में एक नया ही मार्ग मिलता है। सब कुछ झाड़कर जंगली पशु की तरह हँसता सोमा अंधकार में विलीन हो जाता है ... चोर की तरह!


1 टिप्पणी:

  1. राजनीति की स्वार्थपरता को दर्शाती मार्मिक कहानी। सुदर्शन रत्नाकर

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