वर्जना के पार आकर...
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
वर्जना के पार आकर
बहुत मैंने तो पुकारा
पर तुम्हारी खिड़कियों के
पट न खुल पाए दुबारा
बुर्जुआ जग ने तुम्हीं से
क्रांति का अधिकार छीना
और बदले में दिया क्या
एक घूँघट लाल झीना
आँसुओं में ढल गया वह
प्यार निश्छल सर्वहारा
पर तुम्हारी खिड़कियों के
पट न खुल पाए दुबारा
बाहुओं में जो फड़कती
जीवनी तुमने भरी थी
औ' अधर पर जो तड़पती
बिजलियाँ तुमने धरी थी
इस व्यवस्था को उलट दें
तुम करो तो बस इशारा
पर तुम्हारी खिड़कियों के
पट न खुल पाए दुबारा
क्या विवशता थी कि तुमने
हार यों स्वीकार कर ली
छोड़ कंटक पंथ, कुसुमित
सेज अंगीकार कर ली
ले चुका संन्यास अब तो
प्रेम विद्रोही कुँआरा
पर तुम्हारी खिड़कियों के
पट न खुल पाए दुबारा
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा
हैदराबाद
बहुत सुंदर भावपूर्ण गीत। सुदर्शन रत्नाकर
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