विचार स्तवक
साधारणतया साहित्य के दो पहलू रहे हैं। एक तो वह जिससे मनोरंजन हो और दूसरा वह
जिससे हम अधिक मानवीय होते चलें। पहला केवल मनोरंजन ही मनोरंजन है,
उसके आगे कुछ नहीं और दूसरा किसी आदर्श को लेकर चलता है।
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संवेदनशील मनुष्य को जीने के लिए, दो बातें विशेष रूप से आवश्यक हैं,
एक तो यह कि सांसारिक क्षेत्र में उसके सर्वांगीण
सामंजस्यपूर्ण उन्नति होती चली जाए; दूसरे उसके सम्मुख कोई ऐसा आदर्श हो जिसके लिए वह जी सके या
मर सके।
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भारतीय मन की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं । वह साहित्य को अपने आत्मीय परमप्रिय
मित्र की भाँति देखना चाहता है, जो रास्ते चलते उससे बात कर सके,
सलाह दे सके, काट-छाँट कर सके, प्रेरित कर सके, पीठ सहला सके, और मार्ग-दर्शन कर सके ।
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वह काव्य या कला जो हमें भावोत्तेजित तो करती है;
किन्तु हमारे वास्तविक जीवनपथ में मूल्यवान होकर सहायक नहीं
बनती,
निश्चय ही वह कला श्रेष्ठ होते हुए भी श्रेष्ठतम नहीं है।
गजानन माधव मुक्तिबोध
(‘नये साहित्य का सौन्दर्य-शास्त्र’ से साभार)
सही विचारधारा है ।
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