शनिवार, 26 नवंबर 2022

विशेष

 


हरखी : एक देवपूजा

विमल चौधरी

जनजातीय समुदाय प्रकृतिपूजक है। अपने आसपास के परिवेश जैसे जंगल,पहाड़, पेड़-पौधे, मिट्टी, झरना, नदियाँ,कणी-धान,खेत,बेल,फल-फूल,औषधियाँ, खाद्य, जीवजंतु और जलचर, वन्य एवं पालतू प्राणी आदि प्राकृतिक तत्वों  के बीच रहता है। विशेष बात यह है कि प्रकृति ही उनका समग्र अस्तित्व है। ऋतुचक्र एवं जीवनचक्र के साथ प्रकृति का परिवेश-चक्र  बदलता रहता है और उन्हीं बदलते परिवेश में समुदाय के लोगों की जीवनशैली भी बदलती है । समुदाय में परंपरा से देवपूजा का विशेष महत्व रहा है ,समय समय पर अलग-अलग रीति-रिवाज एवं विधि से देवपूजा होती है। दक्षिण गुजरात के जनजातिय क्षेत्र में कणी-कनसरी, हिमार्यो देव, वाघदेव, खुह्मायमाडी, देवलीमाडी, आहिंदोदेव, गोवळदेव,  देवमोगरा, भूतमामा,  गीम्बदेव, लीलीचारी देव, बरामदेव, ब्राह्मण्योभूत, हातभूत,जोहेंट जोगणी,कालोकाकर, पाल्योदेव  आदि  विविध देवी-देवताओं के स्थानक है और जनजाति समूह असीम श्रध्दा से  वर्षभर उनकी पूजा-विधि  करते हैं। सभी देवी-देवता और स्थानकों की अपनी एक विशेष कथा एवं मान्यता है। परंपरा से चली आ रही पूजाविधि में आज भी कोई बदलाव आया नहीं है , लोग उन्हीं भाव एवं आदर के साथ उनकी पूजा करते हैं।


हरखी” दक्षिण गुजरात की चौधरी जनजाति की एक पूजाविधि है। नये वर्ष में देव-दीपावली के बाद नया धान घर में आता है तब “ हरखी” की  पूजाविधि करने के लिये अपने आराध्य देव के पास लोग जाते हैं। मान्यता के अनुसार जनजाति के लोग खेत-खलिहान में बरकत हो, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, वनचर, जलचर जीव-जानवर सुरक्षित रहें तथा प्रकृति नित उनकी रक्षा करें, जीवनकार्य में कोई आपत्ति न हो, सभी कार्य सफल हो सके ऐसे विविध सामूहिक-व्यक्तिगत मनोभावना के साथ सर्व जगत के कल्याण हेतु पूजा-अर्चना होती है। दूसरी एक मान्यता यह भी है कि प्रकृति ने जो दिया है वो प्रकृति को वापस देने के लिये वर्षभर व्यक्तिगतरूप से अपनी यथाशक्ति से पूजा करके देवी-देवताओं के आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। दक्षिण गुजरात की चौधरी जनजाति की  मुख्य पूजाविधि है “हरखी”। “हरखी” से तात्पर्य है – आनंद, हर्ष । खेत में से जो नया धान घर में आया है उनका एक अलग आनंद होता है, जिन कारणों से अपने प्राकृतिक देवी-देवता को आदर-भक्तिभाव से सर्वप्रथम अर्पण किया जाता है। नया धान आया है जो देव ने ही दिया है, उनकी कृपादृष्टि से ही उत्पन्न होता है। जो  हमें प्राप्त हुआ है  वो  वापस देव को अर्पण करके देव-प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने की अदम्य इच्छा भी इस देवपूजा में सम्मिलित होती है। “हरखी” देवपूजा के केंद्र में गाँव का ओझा (भगत ) मुख्य होता है । लोकवाद्य की धुन और देवगीतों की ललकार के साथ पारंपरिक अनुष्ठान और नियमावली के साथ विधवत पूजा-अर्चना होती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पवित्र देवकार्य में सहभागी होने के लिए विशेष नियमों का पालन करना आवश्यक होता है जिनकी पूर्व तैयारी तथा आयोजन  तय किये हुए दिन से ढाई-दो माह से होता रहता है। “हरखी” देवपूजा में समूह का विशेष महत्व है। एक गाँव में एक से अधिक “हरखी” भी होती है। जिस दिन जाने का निश्चय किया गया है उसकी अगली रात को गाँव के लोग एक जगह पर एकत्रित होते हैं, वहाँ पर पूजा करते हैं। गाँव में “हरखी” पूजा का स्थान घरों से दूर एकांत जगह पर रहता है ताकि उन जगह की पवित्रता बरक़रार रहे। सुबह से ही सभी लोग अपने अपने हिस्से में जो काम आया है उसकी तैयारी में जुट जाते हैं, जैसे कि सामग्री का एकत्रीकरण हो, खाने-पीने की व्यवस्था, देवस्थानक अवागमन के लिये बैलगाड़ी की व्यवस्था हो, बाजार की सामग्री का संकलन आदि जरूरी कामकाज दिनभर चलता है। रात को विशेष देवपूजा होती हैं, जिसमें मुख्य ओझा, सहायक ओझा, देव के लोग, लोकवाद्यकार, गाँव के श्रद्धालु लोग सभी एक निश्चित पवित्र जगह पर बैठकर देवकार्य करते हैं। नाचगान के साथ विशेष पारंपरिक मंत्रों के उच्चारण से जगह को पवित्र किया जाता है और पुरखों से चली आ रही विधि के अनुसार पूजा होती है। अलग-अलग पेळ (प्रकरण) के अनुसार मुख्य ओझा विधि करता है और यह पूजा रातभर चलती है। सुबह में जो देवस्थान है वहाँ चलने की तैयारी होती है और देवगीत, देव लोकवाद्य के साथ नाचते- गाते नियम के अनुसार “हरखी” चलती है । देवस्थानक के सौ मीटर के आसपास की दूरी पर “हरखी” पहुँचती है, वहाँ पर रात्रि का पड़ाव डालती है जिसे चौधरी जनजाति में उतारा कहते हैं क्योंकि रात में भी पूजाविधि अवश्य होती है । पड़ाव की जगह को पहले साफ-सुथरा किया जाता है, ओझा अपनी मंत्रविद्या से पवित्र करके सुरक्षित कर देता है फिर वहाँ पर सभी सामग्री और लोग ठहरते हैं। रातभर विधि के अनुसार ही समय समय विविध  देवों की पूजा-अर्चना होती है। रात्रिपूजा भी परंपरा के अनुसार करनी होती है, बीच बीच में  बोधगम्य रामुज भी रखा जाता है क्योंकि वह भी पूजा का एक हिस्सा होता है। पूरी रात सहभागिता करनेवाले लोग नाचते-गाते हैं, देव की स्तुति करते हैं ।अगली सुबह पास की नदी में पवित्र होकर देवस्थान पर जाते हैं, जाते समय रस्ते में आनेवाले सभी देवो को नमन करके पूजा करते हैं। मुख्य देव के पास पहुँचकर ओझा अपनी मंत्रविद्या से पूजा करते हैं और सृष्टि की मंगल कामना करके जो धान देव को अर्पण करने के लिये लेकर गये हैं वो देव को चढ़ाते हैं। उस समय का समग्र वातावरण देवमय होता है, एक तरफ लोकवाद्य की धुन,देवगीत के साथ मुख्य ओझा श्रद्धाभाव से देव को कहता है कि- हे ! देव, मेरा नमन स्वीकार करें, हम लोग आपके दरबार में आये हैं,भूखे-प्यासे चले आये है, हँसते-गाते, दौड़कर-गिरकर आपके पास आये है, हे ! आराध्य  देव, हम जो भी लेकर आये हैं, तुम स्वीकार करो। जो तुमने दिया है वो सर्वप्रथम तुमको ही अर्पण है, मेरे घर-परिवार, गाँव में किसी तरह की कोई आपत्ति न हो, खेत में बरकत होती रहे, पशु-पक्षी,जीव जानवर को हानि न हो, जाने-अनजाने में कोई गलती हो गई हो तो हमें माफ़ करना! ऐसे लोकमंगल कथनों के साथ देव की पुंज रखी जाती है और सभी का जीवन सुखरूप हो ऐसे विनम्र भाव से नया धान देव को अर्पण करते हैं। सभी लोग अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुरूप देवविधि करके उनकी पूजा करते हैं। अंत में हरखी देवविधि पूर्ण करके वापस श्रद्धालु अपने घर की तरफ लौटते हैं और रास्ते में देव की महिमा का गुणगान करते हुए उनकी स्तुति करते हैं ।

वस्तुत: देवकार्य को अलौकिक भक्तिभाव से संपन्न करने का एक पवित्र भाव सहभागी लोगों में होता है और यही भाव देव के प्रति अपनी श्रद्धा को अधिक मजबूती देता है।

 

 


विमल चौधरी

शोधछात्र हिंदी विभाग,

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभविद्यानगर

 

 

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