शनिवार, 26 नवंबर 2022

आलेख

 



अवाचिक संप्रेषण

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

मानव संप्रेषण व्यवस्था’ भाषा एवं भाषेतर (भाषा से भिन्न) साधनों का जटिल और विशिष्ट मिश्रण है, जो सभी इंद्रियों के द्वारा संदेशों एवं सूचनाओं का आदान-प्रादन करती है। माध्यम-भेद से मानव-संप्रेषण व्यवस्था के दो मुख्य भेद किए जा सकते हैं - वाचिक (वर्बल) संप्रेषण तथा अवाचिक (नॉन-वर्बल) संप्रेषण। वाचिक संप्रेषण के भी दो भेद कर सकते हैं - भाषिक (लिंग्विस्टिक) संप्रेषण तथा अभाषिक (नॉन-लिंग्विस्टिक) संप्रेषण। भाषिक संप्रेषण यानी भाषा; जो वागेन्द्रियों द्वारा उच्चरित ध्वनि-प्रतीकों की व्यवस्था के रूप में काम करती है तथा अभाषिक यानी वागेन्द्रियों द्वारा उत्पन्न होने वाली वे ध्वनियाँ, जो अर्थवान् तो होती हैं, परंतु वे भाषा-व्यवस्था का अंग नहीं होतीं; अर्थात् भाषिक प्रतीक का काम नहीं करतीं - जैसे - खाँसी, सीटी, सीत्कार आदि ध्वनियाँ। ये अतिसीमित दायरे में संप्रेषण का काम करती हैं। इस तरह भाषिक ध्वनियों से होने वाला संप्रेषण भाषिक संप्रेषण तथा भाषेतर ध्वनियों से होने वाला संप्रेषण अभाषिक संप्रेषण कहलाता है। इसी तरह शरीर के अन्य अंगों के संचालन, हाव-भाव, मुख-मुद्रा आदि के द्वारा होने वाले संप्रेषण को अवाचिक (नॉन-वर्बल) संप्रेषण कहा जाता है। भाषिक-अभाषिक ध्वनियों तथा अंग-संचालन, हाव-भाव, मुख-मुद्रा जैसी अवाचिक चेष्टाओं के समेकित रूप से मानव संप्रेषण-व्यवस्था अपनी परिपूर्णता को प्राप्त होती है।

भाषा एक ऐसा विशिष्ट संदेशवाहक साधन है, जिसका उपयोग विश्व की समस्त संस्कृतियों के लोग करते हैं; किंतु भावात्मक (इमोशनल) और अभिवृत्यात्मक (एटिट्यूशनल) अभिव्यक्तियों में अवाचिक साधनों का विशेष महत्त्व है। यहाँ तक कि कुछ स्थितियों में वे भाषा का पूर्ण विकल्प बन सकते हैं। ‘प्रेम’ का भाव व्यक्त करने के लिए बोले गए शब्दों के साथ-साथ अन्य अवाचिक संकेतों, चेहरे के हाव-भाव, कथन-भंगिमा (टोन ऑफ वाइस) आदि अत्यंत सशक्त माध्यम हैं। किंतु, इसके विपरीत ‘घृणा’ का भाव वाचिक रूप में अर्थात् वाणी के द्वारा शायद ही व्यक्त किया जा सकता है। ‘मैं तुमसे घृणा करता हूँ’ यह कहने से घृणा व्यक्त नहीं हो सकती। अलग-अलग संस्कृतियों में घृणा का भाव अवाचिक संकेतों द्वारा अधिक प्रभावशाली ढंग से व्यक्त होता है। किसी की ओर पीठ करके या उसके प्रति उदासीनता व्यक्त करते हुए या किसी को तीखी नजर से घूरते हुए अथवा बातचीत करने से इंकार करके या उसकी तरफ अंगुली दिखाकर घृणा का भाव व्यक्त किया जाता है।

भाषाविज्ञान के रूप में भाषिक ध्वनियों (लिंग्विस्टिक साउंड्स) का अध्ययन सदियों से हो रहा है; किंतु अभाषिक ध्वनियों (नॉन-लिंग्विस्टिक साउंड्स) का अध्ययन परा-भाषाविज्ञान (पारा-लिंग्विस्टिक्स) के नाम से सन् 1950 के आसपास शुरू हुआ। अभाषिक ध्वनियों के अंतर्गत सिसकारी, शऽऽकार, सीटी बजाना तथा अनुकरणात्मक ध्वनियाँ आती हैं। इसके अतिरिक्त उच्चारण संबंधी विविधताएँ - जैसे - ऊँची-नीची आवाज में बोलना, शोकपूर्ण रुदन, रिरियाना, चिचियाना, सिसकना, खी-खी, ही-ही करना अथवा हिचक, संकोच या मौन व्यक्त करना आदि विविधताएँ आती हैं। लगभग इसी समय स्नायुगत या अवयवगत चेष्टाओं से होने वाले संप्रेषण को पहचानने तथा उसके अध्ययन-विशेषण के लिए ‘अंगचेष्टाविज्ञान’ (काइनेसिक्स) नाम सामने आया। संप्रेषणविज्ञान (साइंस ऑफ कम्यूनिकेशन) की इस शाखा के अध्ययन क्षेत्र के अंतर्गत सभी प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ, स्वचालित चिंतन, भाव-मुद्राएँ, अंगविक्षेप (पोस्चर), चेहरे के हाव-भाव (फेसियल एक्स्प्रेशन), संकेत (गेस्चर) और अन्य प्रकार की आंगिक चेष्टाएँ आती हैं। संप्रेषण-व्यापार चाहे दो व्यक्तियों के बीच हो या अधिक व्यक्तियों के बीच या कोई अकेला व्यक्ति खुद से बातचीत कर रहा हो, उसमें शारीरिक चेष्टाएँ अथवा अवाचिक क्रियाएँ (काइनेसिक एक्ट) निश्चित रूप से होती हैं। अर्थात् भाषिक या अभाषिक क्रियाएँ हो या न हों; किंतु अवाचिक क्रियाएँ तो होंगी ही।

संप्रेषण-व्यापार में अवाचिक क्रियाओं की भूमिका बहुत व्यापक एवं महत्त्वपूर्ण है। किन्हीं संदर्भों में वे भाषा की सहयोगी बनकर उसमें विशिष्टता पैदा करती हैं; उसको अधिक समृद्ध और समर्थ बनाती हैं; तो किन्हीं स्थितियों में भाषा का विकल्प भी बन जाती हैं। बातचीत के दौरान हमारी आँखें, सिर, हाथ तथा विविध भाव-मुद्राएँ कितनी सहायक होती हैं, इससे हम सभी परिचित हैं। भावावेश में या भाव-गोपन के समय वाणी जब असमर्थ हो जाती है, तब हम मौन से या आँखें ऊँची-नीची करके या सिर अथवा हाथ हिलाकर संप्रेषण का कार्य करते हैं; और इस तरह ‘अवाचिक’ क्रियाएँ भाषा का विकल्प बन जाती हैं। किंतु, ऐसा भी होता है कि अवाचिक क्रियाएँ कभी-कभी भाषा की विरोधी भी बन जाती हैं। जैसे - कोई किसी से कहे कि ‘आप धन्य हैं’; किंतु बोलने का ढंग तथा बोलने वाले के हाव-भाव अशिष्टतापूर्ण हों, तो बोले गए वाक्य का उल्टा अर्थ व्यंजित होगा। अर्थात् इस तरह भाषा के माध्यम से व्यक्त वक्ता के वास्तविक आशय को अवाचिक क्रियाएँ नष्ट कर देती हैं। वर्षों पहले सरदार पटेल विश्वविद्यालय में मंचित एक करुण नाटक एक कलाकार की भूल (भाव-मुद्रा एवं कथन-भंगिमा में परिवर्तन) के कारण हास्य नाटक में परिवर्तित हो गया था।

मनुष्य का अनुचित अवाचिक व्यवहार उसकी उद्दंडता का एक बड़ा प्रमाण होता है। लोग इस बात को लेकर कोर्ट तक पहुँच जाते हैं कि किसी ने किसी बात को गलत ढंग से कहा। किसी का अभिवादन न करना या अंगुलियों अथवा हाथ के इशारे से अश्लील हरकतें करना व्यक्ति की उद्दंडता अथवा अशिष्टता का परिचायक है।

आंगिक मुद्राओं, चेहरे के हाव-भाव, स्वर के उतार-चढ़ाव (कथन की भंगिमा) आदि के महत्त्व को प्राचीन काल में ही समझ लिया गया था, जबकि ग्रीक और रोमन विद्वानों ने इन तत्त्वों को वक्तृत्व-कला से जोड़ा था। भारत में ईसवी पूर्व लगभग चौथी से पहली शताब्दी के बीच हाथ की मुद्राओं और दूसरी नृत्य मुद्राओं को संस्कृत भाषा में चित्र द्वारा अंकित किया गया था।

अवाचिक व्यवहार का महत्त्व तब समझा गया, जब जोनाथन स्विफ्ट जैसे लेखकों ने संभाषण-विधि का अध्ययन किया। किंतु इस विषय में वैज्ञानिक निरीक्षण-परीक्षण का आरंभ 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ, जब वक्तृत्व एवं नृत्य के दौरान किए जाने वाले हस्त-संचालन, मुख-मुद्रा तथा पद-संचालन के परीक्षण के लिए तथा चार्ट, ग्राफ, फार्मूला और स्केचों के द्वारा इनके दस्तावेजीकरण (रिगोरस डाकुमेंटेशन) के लिए वैज्ञानिक पद्धतियाँ काम में लाई जाने लगीं।

चलचित्र तथा ध्वनि-मुद्रण (व्वाइस रेकॉडिंग) ने अवाचिक व्यवहार के दस्तावेजीकरण को सूक्ष्म एवं सुनिश्चित स्तर पर ला दिया है। फिर भी, उच्चारण और आंगिक चेष्टाओं के सामंजस्य (या अर्थ-निर्णय) के क्षेत्र में इतनी प्रगति नहीं हुई है। कैमरा भौंहों के ऊपर उठने की गति का तथा उसकी विविध ऊँचाइयों का सूक्ष्म अंकन तो कर सकता है; किंतु भौंहों की ऊँचाई और गति के अंतर से अर्थ या अभिप्राय में या भाव में क्या अंतर आता है, कैमरे के अंकन से उसका पता नहीं चल सकता। विभिन्न संस्कृतियों और सामाजिक स्थितियों में इसका अर्थ स्वागत, निमंत्रण, चेतावनी, संशय, घृणा, चिंता आदि हो सकता है। इसलिए भौंहों के उत्थान-पतन का ठीक-ठीक अर्थ या अभिप्राय विशिष्ट सांस्कृतिक, सामाजिक या भाषाई संदर्भ में ही समझा जा सकता है। संप्रेषण-व्यापार किनके बीच घटित हो रहा है, किन परिस्थितियों में घटित हो रहा है - ये सब बातें अवाचिक क्रियाओं के अभिप्राय को प्रभावित एवं नियंत्रित करती हैं। यही नहीं, इन क्रियाओं में संलग्न लोगों के वास्तविक मनोभाव (इंटेशन) का भी महत्त्व इन क्रियाओं के अर्थ या अभिप्राय को समझने में होता है। यह मानव व्यवहार का ऐसा पक्ष है, जो इसके सूक्ष्म वैज्ञानिक विश्लेषण में बड़ा अवरोधक है।

फिर भी, बहुत-सी अवाचिक क्रियाओं का स्पष्ट निरीक्षण तथा उनकी संतोषजनक व्याख्याएँ की जा सकती हैं। प्रत्येक समाज में अवाचिक क्रियाओं का एक विशिष्ट शब्द-भंडार होता है। जैसे - होंठों पर अंगुली रखकर ‘शऽऽ...’ ध्वनि करने का अर्थ शांति होता है। लोक-व्यवहार में दायें-बायें सिर हिलाने का अर्थ इंकार होता है। ऊपर-नीचे सिर हिलाने का अर्थ स्वीकार होता है। लेकिन कहीं-कहीं दायें-बायें सिर हिलाने का अर्थ स्वीकार होता है। किसी के स्वागत में दोनों हाथ जोड़े जाते हैं; अथवा दाहिना हाथ ऊपर उठाकर हिलाया जाता है। अंगुलियों से इशारे करना, सिर या कमर झुकाना, पैर पर पैर चढ़ाकर बैठना, बाहें ऊँची करना आदि क्रियाओं की अलग-अलग संस्कृतियों एवं अलग-अलग समाजों में अलग-अलग व्याख्याएँ होती हैं। ‘भाषा शब्दकोशों’ के समान अब इन अवाचिक क्रियाओं का भी मुद्रण-प्रकाशन हो रहा है। कमरे में धीमी गति से चक्कर लगाना, तेज कदमों से चहलकदमी करना, भौंहें ऊँची करना, भौंहें नीची करना, किसी व्यक्ति या किसी चीज को एकटक देखना, नजरें नीची करना, नजरें ऊँची करना, कंधे उचकाना, आँखें सिकोड़ना, आँखें फाड़कर देखना, कान पकड़ना, कान पर हाथ रखना, हथेली पर ठुड्डी रखना आदि आंगिक क्रियाएँ अपना अर्थ रखती हैं। इन क्रियाओं से व्यक्त होने वाले मनोभाव भाषा के द्वारा नहीं व्यक्त किए जा सकते। (क्रमश:) योगेन्द्रनाथ मिश्र

अर्थविज्ञान और संज्ञानात्मक (कॉग्निटिव) प्रक्रियाओं को पराभाषाविज्ञान (पारालिंग्विस्टिक्स) तथा अंगचेष्टाविज्ञान (काइनेसिक्स) के साथ एक पूर्ण संप्रेषणात्मक घटना के रूप में ही ठीक-ठीक समझा जा सकता है। अर्थ (मीनिंग) को समझने के लिए यह आवश्यक है कि भाषिक संरचना के साथ इन अवाचिक क्रियाओं के जटिल संबंध का परीक्षण एवं उसकी व्याख्या की जाए। ध्वनिगत विशिष्टताओं (बलाघात, सुर आदि) के अभाव में कोई सरल वाक्य लिखित रूप में अस्पष्ट हो सकता है। जैसे - ‘कल वह यहाँ होगी’ आरोही सुर में बोला गया यह वाक्य संदर्भ-भेद से प्रश्नार्थक, संदेहार्थक या व्यंग्यार्थक हो सकता है। धीमे और क्षीण सुर में बोला गया यही वाक्य अनिश्चय, संभावना अथवा अन्यमनस्कता व्यक्त करता है। यही वाक्य अवरोही सुर में बोला जाए, तो निश्चय, धमकी या अशिष्टता सूचित होती है। सुर, बलाघात, मात्रा और उचित विराम से भाषा में एक लय पैदा होती है। वाणी के ये लयात्मक तत्त्व विविध शारीरिक क्रियाओं से व्यक्त होते हैं। जैसे - गति का विस्तार (रेंज ऑफ मूवमेंट), क्रिया की तीव्रता, गति या संकेत की आवृत्ति आदि। पारस्परिक क्रियाओं के अखंड्य अंश स्थान और काल से संबद्ध हैं और अलग-अलग संस्कृतियों में इनका अलग-अलग महत्त्व है। पारस्परिक व्यवहार में मनुष्य स्थान और काल का उपयोग कैसे करता है, उसका अध्ययन करने वाले विज्ञान को क्रमशः ‘प्रोक्सीमिक्स’ (proxemics) तथा ‘क्रोनिमिक्स’ (chronemics) कहा जाता है। जैसे - आप किसी से कोई सवाल करते हैं और उसका उत्तर यदि तुरंत मिल जाता है, तो उसका निहितार्थ कुछ और होता है; तथा यदि उत्तर देर से मिलता है, तो उसका निहितार्थ कुछ और होता है। विद्यार्थी जीवन का आपका कोई मित्र बहुत बड़े पद पर पहुँच गया हो, और आप उससे मिलने जाते हैं। मिलने पर यदि वह  पहले की ही तरह आपको अपने पास बैठाकर बातें करता है, तो उसका निहितार्थ अलग होता है; और यदि वह आपसे बहुत दूर बैठे-बैठे बातें करता है, तो उसका निहितार्थ अलग होता है।

भाषा और अवाचिक क्रियाओं का अभिन्न संबंध व्याकरणिक संरचनाओं में भी देखा जाता है। अवाचिक अभिव्यक्ति की दृष्टि से भी क्रियाओं का वर्गीकरण किया जा सकता है। जैसे - मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ ... मैं तुम्हें दान देता हूँ ... मैं तुम्हें चुनौती देता हूँ - जैसी निष्पादनमूलक (performative) क्रियाएँ बिना बोले अंग-चेष्टा तथा मुख-मुद्रा द्वारा व्यक्त की जा सकती हैं। यहाँ तक कि अवाचिक क्रियाएँ वाक्य-विन्यास में अर्थघटक का कार्य करती हैं। बातचीत के दौरान संकोच व्यक्त करने के लिए भावात्मक संवाद के बीच में खाँसना; हालाँकि इससे वाक्य का स्वाभाविक प्रवाह भंग हो सकता है। यही नहीं, बातचीत के दौरान थूँकने का भी अपना अर्थ होता है।

मौन - अर्थात् भाषिक, अभाषिक या अन्य किसी भी प्रकार की गतिविधि का अभाव - भी अभिप्राय को संप्रेषित कर सकता है। मानव व्यवहार में किसी विशेष संदर्भ में मौन तथा शांति के द्वारा विश्वास, सहयोग और स्वीकृति व्यक्त होती है। दूसरे संदर्भ में मौन या शांति से इसके विपरीत अर्थ निकल सकता है; जैसे - अस्वीकृति, भय या असहमति आदि।

मानव व्यवहार में तरह-तरह के स्पर्श सूचनाओं एवं संदशों के तीव्र वाहक होते हैं। यह सर्वविदित है कि स्नेहपूर्ण स्पर्श शिशु के विकास के लिए परम आवश्यक होता है, जबकि उसकी अन्य ज्ञानेंद्रियाँ अभी अविकसित अवस्था में होती हैं। स्पर्श उसके भाषा-अधिगम का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। एक भी ज्ञानेंद्रिय का अभाव या उसकी अविकसित अवस्था शिशु के संप्रेषणमूलक व्यवहार के पूर्ण विकास में बाधक होती है। स्पर्शजन्य व्यवहार समस्त संप्रेषण व्यवहार के एक अंग के रूप में जीवन पर्यंत चलता रहता है।

घ्राण-तंत्र भी संप्रेषण का एक प्रभावशाली माध्यम है। तरह-तरह के भावों एवं वृत्तियों को उत्तेजित करने वाले सेंट बाजार में मिलते हैं। सेंट उत्पादक कंपनियों का ऐसा निष्कर्ष है कि प्रेमी एक-दूसरे को प्रभावित करने के लिए सेंट का इस्तेमाल करते हैं। कुछ सेंट या सुगंधित पदार्थ मादक भावों को जगाने वाले होते हैं। कुछ सुगंधित पदार्थ ऐसे होते हैं, जो मन की उत्तेजना को कम करके मन को शांत करते हैं। धार्मिक अनुष्ठानों में सुगंधित द्रव्यों के हवन से पूरा वातावरण एक विशेष प्रकार के भाव से भर उठता है। इसके विपरीत दुर्गंधि हमारे मन में जुगुप्सा और घृणा का भाव पैदा करती है। कहते हैं कि सामान्य ऐंद्रिक बोध से वंचित अंधी एलेन केलर व्यक्तियों को उनके सेंट से पहचान लेती थी। यहाँ तक कि पुरुष और स्त्री का भी भेद वह उनके शरीर से उठने वाली गंध से कर लेती थी।

भाषा में जैसे बोलीगत भेद होते हैं, वैसे ही अवाचिक संप्रेषण व्यवस्था में भी स्थानिक, सामाजिक तथा प्रयुक्तिपरक भेद पाए जाते हैं। कोई व्यक्ति अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग प्रकार का अवाचिक व्यवहार करता पाया जाता है। लोग अपने घरों में, बाजार में या चाय-पान की दुकानों पर मुक्त भाव से अट्टहास कर सकते हैं, एक-दूसरे के गले मिल सकते हैं या किसी को बाँहों में भरकर नाच सकते हैं; किंतु वे ही व्यक्ति किसी सभा-संगोष्ठी में या अन्य किसी औपचारिक स्थिति में मात्र स्मित से काम चला लेते हैं। कई ऐसी चेष्टाएँ या हरकतें होती हैं, जो निम्नवर्ग के सहज व्यवहार में होती हैं; किंतु वे उच्चवर्ग में सहज स्वीकार्य नहीं होतीं। अवाचिक क्रियाएँ लिंग-भेद तथा व्यवसाय के आधार पर भी प्रतिबंधित होती हैं। कई समाजों में सीटी बजाना या बहुत जोर से हँसना सामान्यतः स्त्रियों के लिए वर्जित होता है। अपना दुख प्रकट करने के लिए रोना सामान्यतः स्त्रियों के लिए स्वाभाविक तथा पुरुषों के लिए दुर्बलता का लक्षण माना जाता है। सामान्य व्यवहार में अभद्र तथा अश्‍लील हरकतें करने वाला व्यक्ति भी अपने व्यवसाय या कार्य-क्षेत्र में अपने को संयमित तथा नियंत्रित रखता है।

एक-दूसरे की भाषा न जानने के कारण अथवा किन्हीं अन्य कारणों से जब वागेंद्रियाँ स्वाभाविक ढंग से कार्य नहीं करती हैं, तब ऐसी स्थिति में अवाचिक क्रियाएँ ही भाषा का स्थान ले लेती हैं। धार्मिक अनुष्ठानों में तथा रेडियो-टेलीविजन स्टूडियो में संकेत के द्वारा निर्देश दिए जाते हैं; क्योंकि शांति अपेक्षित होती है। ऐसे स्थान, जहाँ पर मशीनों के कारण बहुत अधिक शोर हो रहा हो (कारखानों में या एअरपोर्ट पर), वहाँ पर अवाचिक संकेत ही संप्रेषण के माध्यम बनते हैं। किंतु ये सभी व्यवस्थाएँ कुछ अंश तक ही मौखिक भाषा का स्थान ले सकती हैं। फिर भी, वधिरों की संकेत भाषा एक पूर्ण भाषा का प्रतिनिधित्व कर सकती है। चेहरे के हाव-भाव तथा अन्य आंगिक चेष्टाएँ वधिरों की संकेत भाषा-व्यवस्था के साथ मिलकर उनकी संप्रेषण-व्यवस्था को पूर्ण बनाती हैं।

सांस्कृतिक भिन्नता वाली तथा बोलीगत विविधिता वाली भाषा की ये सह-व्यवस्थाएँ (अवाचिक क्रियाएँ) विश्‍वभाषा (लैंग्वेज ऑफ यूनिवर्स) तथा मानव मात्र की समान संज्ञानात्मक प्रक्रिया के विषय में हमारे ज्ञान को बढ़ाती हैं। उनकी कुछ विशेषताएँ स्पष्ट हैं। जैसे - संकेत भाषाओं और अंग-चेष्टापरक व्यवस्थाओं में ‘ऊपर’ और ‘नीचे’ की ओर संकेत करने के ढंग समान होते हैं। सभी व्यवस्थाओं में ‘गोल’ अथवा ‘आगे-पीछे’ की गति को दर्शाने वाली क्रियाएँ समान रूप से पाई जाती हैं। इस प्रकार की समानताओं के पीछे छिपे कारणों की व्याख्या इस तथ्य के आधार पर की जा सकती है कि संपूर्ण मानव जाति के पास ‘समान’ मस्तिष्क है, जिससे भाषा, पराभाषा, अंग-चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं और नियंत्रित होती हैं। यह एक सीखा हुआ व्यवहार है, जिससे भाषा और अवाचिक व्यवहार में पाई जाने वाली सांस्कृतिक विविधताएँ प्रमाणित होती हैं।

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वैज्ञानिक निरीक्षण-परीक्षण को संभव बनाने वाले साधनों के विकास के साथ संप्रेषण के अवाचिक साधनों के अंतर्गत वैज्ञानिक अनुसंधान विकसित हुआ। इस तरह ‘मौखिक भाषा’ के साथ-साथ ‘आंगिक भाषा’ की संकल्पना मान्य हुई। आंगिक चेष्टाओं एवं काकूक्तियों (वक्रोक्तियों) के अर्थ-निर्धारण का काम कठिन है। फिर भी, इसके लिए स्वाभाविक एवं श्रेष्ठ मार्ग यह है कि मनुष्य जाति की विभिन्नताओं को व्यक्त करने वाली अवाचिक क्रियाओं का धैर्यपूर्वक निरीक्षण-परीक्षण तथा मूल्यांकन किया जाए।

 



डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315,

आणंद (गुजरात)

 

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