1
प्रेम
गाथा
कुलदीप
कुमार ‘आशकिरण’
हर
बार मैं
गलत
साबित होता रहा
सबकुछ
गवाँ कर
अपना
वजूद खोता रहा
लगता
कि हर सच्चाई से
रूबरू
हूँ मैं
पर
सच जानकर न जाने कब तक
कफ़स
में घुटता रहा।
मैं
भी आज ब्रह्मराक्षस की तरह
उसी
अंधेरी बावड़ी में
गोते
लगाता रहा
पर
धूमिल की तरह
बेबाक
होकर
कहने
की हिम्मत न जुटा सका।
इक
हैंडराइटिंग में लिखे
चार
पन्नों के उस प्रेमपत्र की
कुछ
पंक्तियाँ अंडर लाइन की
और
उन्हें बार-बार पढ़ता रहा
‘कि
जितने आँसू मैंने
तुम्हारे
लिए गिराए
कि
उतना शायद
किसी
के लिए नहीं।’
क्या
ये आँसू निरर्थक थे
या
फिर ये शब्द….
‘काहू
कलपाय है सु
कैसे
कलपाय है।’
सच
उन चार पन्नों में
कितनी
तड़प थी
पर
वो तड़प मेरा आज
मज़ाक
उड़ाती है,
उस
समय दिनकर की उर्वशी
काश
पढ़ लिया होता
थोड़ा
प्रेमतत्व तो
जान
गया होता।
उर्वशी
का प्रेम!
समर्पण
भाव !
और
जीवनपर्यंत पुरुरवा के
प्रेम
में डूबे रहना
देवताओं
का बहिष्कार
तारीफे
काबिल।
पर
आज भी उन
चार
पन्नों में लिखी
कुछ
तड़प बाकी तो होगी
खुद
का विश्लेषण करता हूँ तो
खुद
में प्रसाद का
मनु
पाता हूँ
जो
इड़ा के लिए श्रद्धा को
छोड़कर
चला गया था,
मनु
के बहक जाने पर
श्रद्धा
ने इंतज़ार किया
पर
न आज मनु है
न
श्रद्धा
प्रेम
आज छलावा बन गया है
और
सच्चा प्रेम हमेशा
ब्रह्मराक्षस
की अंधेरी बावड़ी में
घुट-घुट
कर मर जाता है ।।
2
वो
दिन
वो
सुरमई शाम
आकाश
में टिमटिमाते तारे
जब
भी कभी मैं
अपनी
कच्ची अटरिया से
इनकी
गिनतियाँ लगाता था
दादी
की वो टूटी हुई चारपाई में लेटे
चंदा
मामा के गीत गाता था
और
फिर न जाने कब
नींद
आ जाती।
सुबह
की ठंठी हवा
और
चिड़ियों की चहचहाहट से जगना।
सच!
वो
तो अपना हर इक पल सुहाना था
गाँव,
खेत
बाग-बगीचे
सब
कुछ अपना।
पर
ख्वाबों का पिटारा लेकर
जब
से हम
इस
शहरी परिवेश में तब्दील हुए
इस
भीड़ भरी दुनिया से
हर
दिन उलझने लगे
और
इसी भीड़ में
न
जाने कहाँ खो गए।
आज
भी देखता हूँ
वही
तारे
जिनकी
टिमटिमाहट
इस
शहरी चमक में ओझल सी हो गयी
सच-!
इस
शहरी परिवेश में
हमसे
वो प्यारी दुनिया ही खो गई
सब
अतीत बन कर रह गए
और
अपने अरमानों की गठरी लिए
मैं
आज दरबदर भटकता हूँ
कुछ
ख्याली सपनों के लिए
इन
किताबी पन्नों से
मैं
हर दिन उलझता हूँ।
कुलदीप
कुमार ‘आशकिरण’
प्रेमगाथा-अच्छी कविता, बधाई
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