सोमवार, 24 अक्टूबर 2022

कविता

 




 वो शख़्स

प्रीति अग्रवाल

पहेली नहीं हूँ, सहेली हूँ मैं

ज़िन्दगी हूँ

हर पल नवेली हूँ मैं,

मुझे सूझते, बूझते जो रहे

तो पानी ढलकती

हथेली हूँ मैं,

इक बार मिलूँगी, दोबारा नहीं

ज़ाया मुझे

यूँहीं करना नहीं,

ज़िंदगी हूँ, बड़ी अनमोल हूँ मैं

न मुझसा कोई

बेजोड़ हूँ मैं।

 

कल का मुझे भी, नहीं है पता

न सोच में उसकी

तू खुद को सता,

कल किसने देखा, वो इक ख़्वाब है

जो है आज है

बाकी बेकार है,

जो मन में तेरे है, तू वो कर गुज़र

चंद घड़ियाँ यही

तू यूँ कर बसर

कि हैरान हों और सभी ये कहें-

क्या खूब था वो शख़्स

कितना ज़िंदा था वो

जिससे माँगती थी खुद

ज़िन्दगी, ज़िन्दगी....

 

जिससे माँगती थी खुद ज़िन्दगी

ज़िन्दगी!



 

प्रीति अग्रवाल

कैनेडा

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर कविता। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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  2. मेरी कविता को पत्रिका में स्थान देने के लिए, आदरणीया पूर्वा जी का हार्दिक धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं

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