सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

लघुकथा

 


सदा सुहागिन

श्यामसुंदर अग्रवाल

डॉक्टर के मना करने के बावजूद चंदा करवाचौथ का व्रत करने पर अडिग रही। उमेश भी ज्यादा विरोध नहीं कर पाया। उसने सुबह अँधेरे ही चंदा को चाय पिला दी थी। उठने-बैठने में अक्षम व गंभीर बीमारी से जूझ रही चंदा को उसने व्हील चेयर पर बैठाकर नहला दिया था।

शाम हुई तो वह बोली, “अड़ोस-पड़ोस से कोई आ न जाए, मुझे साड़ी पहना दो”, फिर शरारती नजरों से देखती हुई बोली, “बहू-बेटा गए हुए हैं, आज तो लाल बार्डर वाली साड़ी पहनूँगी।”

“चंदा, आज तुम हर बात के लिए जिद कर रही हो, मनाही के बावजूद तुमने केला खाया, चाय के साथ बर्फी ली। पर अब तुम्हारी मर्जी नहीं चलेगी”, उमेश ने झूठे गुस्से का इजहार करते हुए कहा, “साड़ी तो तुम्हें मेरी पसंद की पहननी पड़ेगी।” कहकर उमेश ने अलमारी का रुख किया।

आपने तो कभी मेरी पहनी साड़ी को देखा तक नहीं, आज अपनी पसंद...”  चंदा के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान थी।

गत्ते के बॉक्स से उमेश ने नई साड़ी निकाली तो चंदा भौचक्की रह गई।

“यह साड़ी कहाँ से आई? इसे तो मैं सालभर पहले दुकान पर छोड़ आई थी, महँगी बहुत थी।”

तुमने घर आकर इसका जिक्र किया था तो मैं इसे खरीद लाया था, तुम्हें गिफ्ट देने के लिए।”

चंदा के चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित खुशी थी।  उमेश ने जैसे-जैसे चंदा के बदन पर साड़ी लपेट दी।

वह थोड़ी देर उसे टकटकी लगाकर देखती रही, फिर मुस्कराने की कोशिश करते हुए बोली, आज तो मेरे माथे पर बिंदी लगाकर अपने हाथों से मेरी माँग भर दो।”

उसने फिर फरमाइश रखी, “आज थोड़ा हलवा भी बना देना।”

“चंदा! “डॉक्टर ने तुम्हें रूखा फुलका खाने को कहा है और तुम हलवे की बात कर रही हो?”

करवाचौथ को सुहागन हलवा जरूर खाती है।”

पता नहीं क्या सोच उमेश चुप कर गया। यह रसोई में गया तथा खाना बनाने में जुट गया। 

चाँद निकलने में अभी समय था। चंदा ने उसे बिस्तर पर बैठने को कहा और अपना सिर उसकी गोद में टिका दिया। बोली, “आज मैं बहुत खुश हूँ।”

“हाँ, आज तुम वास्तव में ही ‘चंदा’ लग रही हो।

थोड़ी देर बाद वह बोली, “आपको पता है, औरतें करवाचौथ का व्रत क्यों रखती है?

“पति की लंबी उम्र के लिए, तभी तो वे पति पर एहसान जताती हैं।”

“पति पर यूँ ही पर एहसान जताती हैं, वास्तव में....”

“वास्तव में क्या?’ उमेश ने बीच में टोकते हुए पूछा।”

“अपने लिए रखती है व्रत... कोई भी औरत विधवा नहीं होना चाहती.... वह सुहागन मरना चाहती है।”

अच्छा!” उमेश ने हैरानी प्रकटाई, फिर कहा, “अब सिर तकिये पर टिकाओ मेरी जान, मैं चाँद देखकर आता हूँ।”

नहीं अभी नहीं, आपकी गोद में लेटना अच्छा लग रहा है। चाँद निकलेगा तो गली में शोर मच जाएगा।” आनंदविभोर चंदा ने अपनी आँखें मूंद लीं। उसके चेहरे से मन की खुशी झलक रही थी। उमेश उसे निहारता रहा।

“चाँद निकल आया, चाँद निकल आया ।” का शोर मचा तो उमेश ने चंदा को सिर तकिये पर रखने को कहा, लेकिन उसने आँखें नहीं खोली। उसने उसे थोड़ा-सा हिलाया तो भी आँखें नहीं खुली। तब उसने ध्यान से देखा – उसकी गोद का ‘चाँद’ तो कबका वहाँ से उड़कर आकाश में चमकने जा चुका था।

(‘क्षितिज’ से साभार, सं. सतीश राठी, पृ.10-11, अंक-9, वर्ष 2018)


 

श्यामसुंदर अग्रवाल

 

 

1 टिप्पणी:

  1. भावपूर्ण उत्कृष्ट रचना। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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