सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

कविता

 





मैं उजाला बाँटता हूँ

त्रिलोक सिंह ठकुरेला

 

मैं उजाला बाँटता हूँ, तिमिर में डूबे घरों में ।

 

मैं जिधर जाता, उधर अरुणाभ आभा जाग जाती,

मोद से भर जिन्दगी फिर फिर खुशी के गीत गाती,

शक्ति भर देता नयी मैं, नीड़ में सोये परों में ।

मैं उजाला बाँटता हूँ, तिमिर में डूबे घरों में ।।

 

बाँझ धरती में उगाता पुष्प, श्रम-सीकर लुटाकर,

झूमने लगती धरा सहसा मेरा स्पर्श पाकर,

जादुई ताकत लिए हूँ मैं, मेरे दोनों करों में ।

मैं उजाला बाँटता हूँ, तिमिर में डूबे घरों में ।।

 

मेघ घिर आते खुशी के जब कभी भी चाह होती,

मेघ-मालाएँ लुटातीं विहंस कर अनगिनत मोती,

इन्द्रधनुषों के नये सपने जगाता जलधरों में ।

मैं उजाला बाँटता हूँ, तिमिर में डूबे घरों में ।।

 

दग्ध मन की हर परत में ऊर्जा के रंग भरता,

मैं असंभव को सदा ही संभवों के नाम करता,

और सहसा जा चमकता सुख लुटाते दिनकरों में ।

मै उजाला बाँटता हूँ, तिमिर में डूबे घरों में ।।

 



त्रिलोक सिंह ठकुरेला

आबूरोड

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