भारत की आज़ादी के आंदोलन में हिंदी की भूमिका
(अमृत महोत्सव के परिप्रेक्ष्य में)
गौतम
कुमार सागर
“हम भारत के लोग....” भारतीय संविधान की प्रस्तावना में हिंदी
में अंकित इस पुरोवाक् तक देश को और हिंदी को पहुँचाने के लिए कितने ही वीर सपूतों
ने स्वतन्त्रता-यज्ञ में प्राणों की आहुतियाँ दी हैं। मध्य प्रांत में जहाँ
बिस्मिल और अशफाक़ के हिन्दुस्तानी भाषा के नगमे गूँज रहे थे, तो पंजाब में ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ की अग्नि प्रज्ज्वलित थी।
महाराष्ट्र में तिलक “स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” का
उद्धघोष कर रहे थे तो चंपारण से लेकर साबरमती तक गाँधी के करो या मरो का शंखघोष
सुनाई दे रहा था। उधर नेता जी ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ कहकर देश
के युवाओं के रक्त को आलोड़ित कर रहे थे तो चंद्रशेखर आज़ाद अपनी मूँछों पर ताव देकर
ठेठ हिन्दी में अंग्रेजों को चुनौती दे रहे थे कि “दुश्मन की
गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे”।
1857 की मेरठ क्रांति से 1947 तक के इस नब्बे वर्ष के घोरतम स्वतन्त्रता
संग्राम में हिन्दी ने आज़ादी के दीवानों
के देशप्रेम को मुखर किया, साथ ही करोड़ों जनों को यह भी लगा कि राष्ट्रीय गौरव के
बिना, स्वराज के बिना जीवन व्यर्थ है।
इसी राष्ट्रीय जागरण की भावना ने हिन्दू , मुस्लिम, सिख और ईसाई को अपने क्षुद्र और परंपरागत धार्मिक मतभेदों को भुलाकर
राष्ट्र नायकों के भाव और भाषा दोनों का अनुकरण कर अटल एकता का परिचय दिया।
आज़ादी के आंदोलन में हिन्दी -अस्मिता
किसी भी आज़ादी के आंदोलन या क्रांति की सफल
परिणति तब तक संभव नहीं है जब तक कि लोक मानस या जन चेतना का अभूतपूर्व जागरण न हो; और यह जागरण तब तक संभव नहीं है जब तक कि कोई
एक व्यापक भाषा विचारों की संवाहक न बने।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शताब्दियों से दबी-कुचली
अस्मिता को स्वर देने का कार्य प्रबल रूप से हिन्दी या कहें हिन्दुस्तानी भाषा ने
किया।
1924 में बेलगाँव के अधिवेशन में जब कुछ वक्ता भारत की स्वतन्त्रता और
अंग्रेजों से मुक़ाबले की रणनीति पर चर्चा अंग्रेजी भाषा में कर रहे थे तब गाँधी जी
ने क्षुब्ध होकर भरी सभा में कहा, “यह कितने दुख की बात है
कि हम स्वराज की बात भी अंग्रेजी में करते हैं।”
हिन्दी जिसे उस समय हिन्दुस्तानी भाषा भी कहा
जाता था, जिसमें कि न तो संस्कृत के क्लिष्ट शब्द थे न ही फ़ारसी/ उर्दू के न समझ
में आनेवाले लफ़्ज़। बल्कि दोनों भाषाओं के उन शब्दों का समावेश हुआ हो जनसाधारण की
जुबान पर पहले से था। इसके साथ ही इस हिन्दुस्तानी भाषा में प्रांत-प्रांत के अपने
विशेष शब्द शामिल होते गए और हिन्दी भाषा का सागर विस्तृत होता गया। अंग्रेजी के कई
शब्द जैसे कोर्ट, रेल, टेलीग्राम, पुलिस आदि भी
हिंदी में रच-बस गए।
आज़ादी
की लड़ाई और हिन्दी का भारतेन्दु युग
भारतेन्दु के बृहत् हिंदी साहित्यिक योगदान के
कारण ही 1857 से 1900 तक के काल को
भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है।
भारतेन्दु के समय में राजकाज और संभ्रांत वर्ग की
भाषा फारसी थी। वहीं, अंग्रेजी का वर्चस्व भी बढ़ता जा रहा था। केवल भाषा ही नहीं, साहित्य में उन्होंने नवीन आधुनिक चेतना का समावेश किया और साहित्य को 'जन' से जोड़ा।
1882 में शिक्षा आयोग (हन्टर कमीशन) के समक्ष अपनी गवाही में हिन्दी को न्यायालयों की भाषा बनाने की महत्ता पर उन्होंने कहा था- “सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग किया जाता है। यही (भारत) ऐसा देश है जहाँ अदालती भाषा न तो शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की। यदि आप दो सार्वजनिक नोटिस, एक उर्दू में, तथा एक हिंदी में, लिखकर भेज दें तो आपको आसानी से मालूम हो जाएगा कि प्रत्येक नोटिस को समझने वाले लोगों का अनुपात क्या है।”
आज़ादी की लड़ाई, गाँधी-युग और हिंदी
गाँधी जी की मातृभाषा गुजराती थी, उनके पेशे ( वकालत) की भाषा अँग्रेजी थी।
लेकिन जब वे पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन में कूदे तो सम्पूर्ण भारत वर्ष के भ्रमण
के दौरान उन्हें आभास हुआ कि हिन्दी अधिसंख्य जनता द्वारा बोली जाती है तथा इसकी
संप्रेषणीयता अपार है। जब तक नेतागण इस भाषा का संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग
नहीं करेंगे। आम भारतीय कभी सीधे –सीधे स्वतंत्रता आंदोलन से नहीं जुड़ पाएगा। फलत:
गाँधी जी ने हिंदी में भी दो अखबार निकाले-नवजीवन और हरिजन सेवक। अपने ज्यादातर पत्रों का जवाब भी गाँधी जी हिंदी
में ही देना पसंद करते थे।
भारत लौटने के कुछ ही वक्त बाद 1918 में महात्मा गाँधी
ने इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन में कहा था, “जैसे ब्रिटिश अंग्रेजी में बोलते हैं और
सारे कामों में अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं। वैसे ही मैं सभी से प्रार्थना
करता हूँ कि हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का सम्मान अदा करें। इसे राष्ट्रीय भाषा
बनाकर हमें अपने कर्तव्य को निभाना चाहिए।”
वे मानते
थे कि भारतीयता, राष्ट्रीयता, स्थानीयता के गौरव के बोध के लिए अपनी भाषा में शिक्षा आवश्यक
है। एक बारगी तो अंग्रेजी से खिन्न होकर उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि “यदि मेरे
पास शासन की एकमुखी शक्ति ( तानाशाही)
होती, तो आज के आज, अपने छात्र
छात्राओं की परदेशी माध्यम द्वारा होती शिक्षा, रुकवा देता।”
तत्कालीन भारतीय राजनेताओं में गाँधी जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने
दक्षिण भारत में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए हिंदी को विधिवत सिखाया
जाना आवश्यक समझा और उसके लिए उन्होंने ठोस योजना प्रस्तुत की, जिसके अंतर्गत पुरुषोत्तम दास टंडन, वेंकटेश नारायण
तिवारी, शिव प्रसाद गुप्ता सरीखे हिंदी–सेवियों को लेकर दक्षिण भारत हिन्द प्रचार सभा का गठन किया.
आज़ादी की लड़ाई और हिन्दी
पत्रकारिता
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो :- अकबर इलाहाबादी
हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता-
आन्दोलन के समय जागरण और क्रांति की उज्ज्वल मशाल लेकर चला करती थी। 1857 में
ही निकले पयामे
आजादी ने आजादी की पहली जंग को नई धार दी।
स्वतन्त्रता आन्दोलन को तीव्र करने में कानपुर के प्रताप कार्यालय का
योगदान अतुलनीय है, गणेश शंकर विद्यार्थी मात्र स्वतन्त्रता संग्राम
सेनानी ही नहीं अपितु एक महान पत्रकार भी थे| वह नवयुवकों को
आश्रय देकर, प्रशिक्षण देकर उन्हें राष्ट्रहित में सर्वस्व गवाँ
देने के निमित्त जोश भरते थे।
कर्मवीर, स्वदेश, प्रताप एवं सैनिक जैसी पत्रिकाओं ने मिलकर अंग्रेजों
के नाक में दम कर रखा था।, जिसके
सूत्रधार विद्यार्थी जी ही थे| इसी समय मदन मोहन मालवीय ने 1907
में ‘अभ्युदय’ का प्रकाशन कर उत्तर प्रदेश में जन जागृति का बिगुल
बजा दिया|
‘कर्मवीर’ पत्र ने स्वतंत्रता के समय ओज एवं जोशपूर्ण शीर्षक
‘राष्ट्रीय ज्वाला जगाइये’ के साथ देश के युवाओं के हृदय में देश भक्ति का भाव भर
दिया स्वतंत्रता संग्राम में 12 बार जेल की
यात्रा करने वाले और 63 बार तलाशियाँ देने वाले माखन लाल
चतुर्वेदी जी ने हिंदी पत्रकारिता को जुझारू व्यक्तित्व प्रदान किया |
इन हिन्दी अखबारों से जुड़े पत्रकार प्रतिबंधित काल में भूमिगत होकर, हस्तलिखित या साइक्लोस्टाइल पत्र प्रकाशित कर क्रांति के दीपक को प्रज्वलित रखते थे। हिन्दी इस दीपक
में शब्द धृत बनकर अपना योगदान करती रही।
आज़ादी की लड़ाई और हिन्दी पद्य
साहित्य
स्वतंत्रता, सुराज, समानता का जो सपना हमारे लेखकों, कवियों के मन में था उसे पं. नरेंद्र शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, नेपाली, माधव शुक्ल, गयाप्रसाद शुक्ल सनेही, सियारामशरण गुप्त व सोहनलाल द्विवेदी अपनी रचनाओं में रूपायित कर रहे थे। नवीन की रचनाएँ ओज के प्रवाह को गति देने वाली थीं तो सुभद्राकुमारी चौहान की विख्यात कविता 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी' सैनिकों में जोश भरने वाली थी। झाँसी की रानी के शौर्य का चित्रण ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा ने भी अपने उपन्यास में किया है। जयशंकर प्रसाद के नाटक चंद्रगुप्त व स्कंदगुप्त में देशप्रेम की अनुगूंजें हैं तो उनके काव्य में गुलामी की कारा को तोड़ने का आह्वान मिलता है। वे अमर्त्य वीर पुत्रों को दृढ़ प्रतिज्ञ होकर आगे बढ़ने का आह्वान कर रहे थे।
पं. माखन लाल चतुर्वेदी की “पुष्प की अभिलाषा” कविता हो या महाकवि
जयशंकर प्रसाद द्वारा प्रस्तुत प्रयाण गीत (हिमाद्रि तुंगश्रृंग से,
प्रबुद्ध शुद्ध भारती / स्वयंप्रभा समुंज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती)।
जगदम्बा
“हितैषी” की— शहीदों के मजारों पे लगेइगे हर वर्ष मेले / वतन पे मरने वालों का यही
बाकी निशाँ होगा- हो या श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का झंडा गीत ...विजयी विश्व
तिरंगा प्यारा / झंडा ऊँचा रहे हमारा... – ये सभी हिन्दी पद्य-रचनाएँ देशभक्ति का
बिगुल फूँक रही थीं।
आज़ादी की लड़ाई और हिन्दी गद्य साहित्य
महावीर
प्रसाद द्विवेदी ,प्रेमचंद , अज्ञेय , जैनेन्द्र
, मोहन राकेश आदि हिन्दी लेखकों ने निबंध, कहानी, उपन्यास के द्वारा बुद्धिजीवी वर्ग के साथ
–साथ समाज के हर तबके को स्वतन्त्रता के बारे में कभी खुलकर तो कभी संकेतों में
बताया।
रूस
की 1917 की बोल्शेविक क्रांति ने दुनिया के लेखकों में एक नई तरह की प्रगतिशीलता
का जज्बा पैदा किया था। प्रेमचंद इसी चेतना का प्रतिनिधित्व करते थे। उन्होंने
कहानियों और उपन्यासों के माध्यम में जहाँ भारत के सामंतवाद और ब्रिटिश नौकरशाही
की आलोचना की वहीं गुलामी व ब्रिटिश शोषण के अनेक रूपों को उजागर किया।
उपेंद्रनाथ
‘अश्क’, यशपाल व भगवती चरण वर्मा के कथा साहित्य में
भी स्वाधीनता की आँच दिखती है। धनपत राय का लिखा ‘सोज़ेवतन’ तो अंग्रेजी शासन में
जब्त हुआ। चाँद का फाँसी अंक भी जब्ती का शिकार हुआ। उन जैसे लेखकों पर अंग्रेजों
की निगाह रहती थी। इसलिए इस खुफियागिरी से
आजिज आकर धनपत राय ने प्रेमचंद नाम से लिखना आरंभ किया तथा बाद में इसी नाम से
प्रसिद्ध हुए।
अंग्रेज़ जब तक इन बगावती कहानियों या उपन्यासों पर प्रतिबंध लगाते तब तक लाखों लोग इसे छुप –छुपाकर पढ़ चुके होते थे और हिन्दी भाषा इस तरह पंजाब से लेकर महाराष्ट्र (तत्कालीन बंबई ) एवं राजकोट से लेकर बिहार तक मनोरंजक साहित्य के जरिये की चेतना को जगाने के कार्य में अहर्निश लगी हुई थी।
आज़ादी
की लड़ाई और हिन्दी के नारे
कहा जाता है कि हर क्रांति के एक या एक से अधिक
सूत्र-वाक्य होते हैं। ये सूत्र-वाक्य ( स्लोगंस) वेद ऋचाओं की तरह अभिमंत्रित होते हैं जो जन
जागरण का पाँच जन्य फूँकने में सहायता करते हैं।
गाँधी जी ने जहाँ ‘अंग्रेजों
भारत छोड़ो’ के सुविख्यात नारे दिये तो वहीं सुभाष ने आज़ाद
हिन्दी फौज में जय हिन्द को अभिवादन वाक्य बना दिया। लाला लाजपत राय ने युसुफ मेहर अली का सुझाया नारा ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ कहकर फिरंगियों को ललकारा
तो भगत सिंह ने ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे से क्रांति को अमर करने का सूत्रवाक्य दिया।
इस प्रकार से देखते हैं कि हिन्दी भाषा के नारों ( वंदे मातरम , स्वराज हमारा..., आराम हराम है आदि ) ने एक ओर ब्रिटिश की ताबूत में कील ठोंकने का काम किया वहीं दूसरी ओर पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ कर रखा। ये मंत्र धार्मिक और मजहबी मंत्रों से अधिक लोकप्रिय हुए एवं लोगों की अटूट आस्था के शब्द –ध्रुव तारे बनकर उभरे।
निष्कर्ष
हिन्दी भाषा ने समग्र
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संघर्ष में अपना अभूतपूर्व प्रभाव छोड़ा। उस समय संचार के
साधन अत्यंत सीमित थे लेकिन भावों का भाषा के द्वारा विनिमय ने अंग्रेजों के तार
और टेलीफोन को भी पीछे कर दिया। अगर उस समय हिन्दी उठ खड़ी नहीं होती , प्रबल रूप से जनचेतना का माध्यम न बनती तो हो सकता था भारत वर्ष के आज़ाद
होने में कुछ और दशक लग जाते।
हिन्दी को कोई राज्य-प्रश्रय भी नहीं मिला था किन्तु जनता की गोद में पलकर यह सही अर्थों में देश के गौरव के साथ जनता-जनार्दन की आवाज बनकर उभरी।
गौतम
कुमार सागर
मुख्य
प्रबंधक एवं संकाय (बैंक ऑफ़ बड़ौदा)
वड़ोदरा
( 390005)
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