मंगलवार, 27 सितंबर 2022

कविता

 

मेरी भाषा के लोग

केदारनाथ सिंह

मेरी भाषा के लोग

मेरी सड़क के लोग हैं

सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग

पिछली रात मैंने एक सपना देखा

कि दुनिया के सारे लोग

एक बस में बैठे हैं

और हिन्दी बोल रहे हैं

फिर वह पीली-सी बस

हवा में गायब हो गई

और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिन्दी

जो अन्तिम सिक्के की तरह

हमेशा बच जाती है मेरे पास

हर मुश्किल में

कहती वह कुछ नहीं

पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ

कि उसकी खाल पर चोटों के

कितने निशान हैं

कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को

दुखते हैं अक्सर कई विशेषण

पर इन सबके बीच

असंख्य होठों पर

एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह !

तुम झाँक आओ सारे सरकारी कार्यालय

पूछ लो मेज़ से

दीवारों से पूछ लो

छान डालो फ़ाइलों के ऊँचे-ऊँचे

मनहूस पहाड़

कहीं मिलेगा ही नहीं

इसका एक भी अक्षर

और यह नहीं जानती इसके लिए

अगर ईश्वर को नहीं

तो फिर किसे धन्यवाद दे !

मेरा अनुरोध है —

भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —

कि राज नहीं — भाषा

भाषा — भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दो

मेरी भाषा को ।

इसमें भरा है

पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की

इतनी आवाजों का बूँद-बूँद अर्क

कि मैं जब भी इसे बोलता हूँ

तो कहीं गहरे

अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु

यहाँ तक कि एक पत्ती के

हिलने की आवाज़ भी

सब बोलता हूँ ज़रा-ज़रा

जब बोलता हूँ हिंदी

पर जब भी बोलता हूँ

यह लगता है —

पूरे व्याकरण में

एक कारक की बेचैनी हूँ

एक तद्भव का दुख

तत्सम के पड़ोस में।


केदारनाथ सिंह

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