स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दी साहित्यकारों की भूमिका
डॉ. जयंतिलाल बी. बारीस
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ
चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि ! डाला जाऊँ !
चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूँ,
भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक.....
देशभक्ति से
ओत-प्रोत यह एक ऐसी रचना है, जिसके जरिए कवि माखनलाल चतुर्वेदी ने आजादी की
बलि-वेदी पर शहीद हुए वीर सपूतों के प्रति अगाध श्रद्धा दिखाई है और बलिदान को
सर्वोपरि बताया है। एक फूल के माध्यम से उन्होंने अपनी बातों को जिस सशक्तता व
उत्कृष्टता के साथ कहा है, वह बेहद सराहनीय है। इसी तरह जंग-ए-आजादी में अपनी
रचनाओं के माध्यम से विशेष भूमिका निभाने वाले साहित्यकारों की एक लंबी फेहरिस्त
है।
प्रबुद्ध कवि मैथिलीशण
गुप्त ने अपनी रचनाओं में देशप्रेम और जनचेतना की ऐसी लौ जलाई, जिससे प्रेरित होकर
समाज के हर वर्ग से लोग स्वतंत्रता संग्राम में कूदने लगे। सोई हुई भारतीयता को
जगाते हुए उन्होंने लिखा -
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं, नरपशु निरा है और मृतक समान है....
भारतेन्दु
हरीश्चन्द्र ने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेजों द्वारा
निरीह भारतीय जनता पर जुल्मों सितम व लूट-खसोट का उन्होंने बढ़-चढ़कर विरोध किया।
उन्हें इस बात का क्षोभ था कि अंग्रेज यहाँ से सारी संपत्ति लूट कर विदेश ले जा
रहे थे। इस लूटपाट और भारत की बदहाली पर उन्होंने काफी कुछ लिखा। अंधेर नगरी चौपट
राजा नामक व्यंग्य के माध्यम से भारतेंदु ने तत्कालीन राजाओं की निरंकुशता,
अंधेरगर्दी और उनकी मूढ़ता का सटीक वर्णन किया है। अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए
उन्होंने लिखा है -
रोबहु सब मिली अबहु भारत भाई
हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई....
इसी प्रकार
राधाकृष्ण दास, बद्री नारायण चौधरी, प्रताप नारायण मिश्रा, पंडित अंबिका दत्त
व्यास, बाबू राम किशन वर्मा, ठाकुर जगमोहन सिंह, राम नरेश त्रिपाठी, सुभद्रा
कुमारी चौहान एवं बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' जैसे प्रबुद्ध रचनाकारों ने राष्ट्रीयता
एवं देश-प्रेम की ऐसी गंगा बहाई, जिसके तीव्र आवेग से जहाँ विदेशी हुक्मरानों की
नींव हिलने लगी, वहीं नौ जवानों के अंतस में अपनी पवित्र मातृभूमि के प्यार का
जज्बा गहराता चला गया। एक ओर बंकिमचन्द्र चटर्जी ने आनंद मठ व वन्दे मातरम् जैसी
कालजयी रचनाओं का सृजन किया, तो कविवर जयशंकर प्रसाद की कलम भी बोल उठी -
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती....
कथा सम्राट मुंशी
प्रेमचंद भी स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भागीदारी निभाने में पीछे नहीं रहे और
मृतप्राय भारतीय-जनमानस में भी उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए एक नई ताकत, एक नई
ऊर्जा का संचार किया। प्रेमचंद की कहानियों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक तीव्र
विरोध तो दिखा ही इसके अलावा दबी-कुचली शोषित व अफसरशाही के बोझ से दबी जनता के
मन में कर्तव्य-बोध का एक ऐसा बीज अंकुरित हुआ, जिसने सबको आंदोलित कर दिया।
प्रेमचंद ने जन जागरण का एक ऐसा अलख जगाया कि जनता हुंकार उठी। सरफरोशी का जज्बा
जगाती प्रेमचंद की बहुत सारी रचनाओं को अंग्रेजी शासन के रोष का शिकार होना पड़ा। न
जाने कितनी रचनाओं पर रोक लगा दी गई और उन्हें जब्त कर लिया गया। कई रचनाओं को जला
दिया गया। परंतु इन सब बातों की परवाह न करते हुए लिखते रहे...अनवरत।
उन पर कई तरह के
दबाव भी डाले गए और नवाब राय की स्वीकृति पर उन्हें डराया धमकाया भी गया। लेकिन इन
कोशिशों व दमनकारी नीतियों के आगे प्रेमचंद
ने कभी हथियार नहीं डाले। उनकी रचना 'सोजे वतन' पर अंग्रेज अफसरों ने कड़ी
आपति जताई और उन्हें अंग्रेजी खुफिया विभाग ने पूछताछ के लिए तलब किया। अंग्रेजी
शासन का खुफिया विभाग अंत तक उनके पीछे लगा रहा। परंतु प्रेमचंद की लेखनी रूकी
नहीं, बल्कि और प्रखर होकर स्वतंत्रता आंदोलन में विस्फोटक का काम करती रही।
उन्होंने लिखा-
मैं विद्रोही हूँ जग में विद्रोह कराने आया हूँ
क्रांति-क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूँ...
कविवर रामधारी सिंह दिनकर भी कहाँ खामोश रहने वाले थे।
मातृभूमि के लिए हँसते-हँसते प्राणोत्सर्ग करने वाले बहादुर वीरों व रणबांकुरों की
शान में उन्होंने कहा-
कलम आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिसने चिंगारी जो चढ़ गए पुण्य-वेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम आज उनकी जय बोल...
हिन्दी के अलावा
बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल व अन्य भाषाओं में भी माइकेल मधुसूदन, नर्मद,
चिपूलूंठाकर, भारती आदि कवियों व साहित्यकारों ने राष्ट्र-प्रेम की भावनाएँ जागृत
की और जनमानस को अंदोलित किया।
कवि गोपालदास
नीरज का राष्ट्र प्रेम भी उनकी रचनाओं में साफ परिलक्षित होता है। जुल्मों-सितम के
आगे घुटने न टेकने की प्रेरणा उनकी रचनाओं से प्राप्त होती रही। उन्होंने लोगों को
उत्साहित करते हुए लिखा है -
देखना है जुल्म की रफ्तार बढ़ती है कहाँ तक
देखना है बम की बौछार है कहाँ तक...
आजादी के बाद के हालातों को स्पष्ट करते हुए नीरज ने कई रचनाएँ
लिखी हैं। बतौर बानगी-
चंद मछेरों ने मिलकर सागर की संपदा चुरा ली
काँटों ने माली से मिलकर फूलों की कुर्की करवा ली
खुशियों की हड़ताल हुई है, सुख की तालाबंदी हुई
आने को आई आजादी, मगर उजाला बंदी है...
आज श्यामलाल
गुप्त पार्षद का यह गीत, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा, भले हम गुनगुना रहे हों और इकबाल की यह नज्म भी
कि, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा... लेकिन देश की मौजूदा परिस्थिति इससे
भिन्न है। आज के समय में भी वैसी ही धारदार रचनाओं की जरूरत है, जो जन-जन को
आंदोलित कर सके, उनमें जागृति ला सके। भ्रष्टाचार व अराजकता को दूर कर हर हृदय में
भारतीय-गौरव-बोध एवं मानवीय-मूल्यों का संचार कर सके।
स्वतंत्रता
आंदोलन भारतीय इतिहास का वह युग है जो पीड़ा, कड़वाहट, दंभ, आत्मसम्मान, गर्व,
गौरव तथा सबसे अधिक शहीदों के लहू को समेटे है। स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में समाज
के प्रत्येक वर्ग ने अपने-अपने तरीके से बलिदान दिए। इस स्वतंत्रता के युग में
साहित्यकार और लेखकों ने भी अपना भरपूर योगदान दिया। अंग्रेजों को भगाने में
कलमकारों ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई। क्रांतिकारियों से लेकर देश के आम लोगों तक
के अंदर लेखकों ने अपने शब्दों से जोश भरा। प्रेमचंद की ‘रंगभूमि, कर्मभूमि’
उपन्यास हो या भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का ‘भारत -दर्शन’ नाटक या जयशंकर प्रसाद का
‘चन्द्रगुप्त’ सभी देशप्रेम की भावना से भरी पड़ी है। इसके अलावा वीर सावरकर की
‘1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ हो या पंडित नेहरू की ‘भारत एक खोज’ या फिर
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की ‘गीता रहस्य’ या शरद बाबू का उपन्यास ‘पथ के दावेदार’
यह सभी किताबें ऐसी है जो लोगों में राष्ट्रप्रेम की भावना जगाने में कारगर साबित
हुई।
भारत के
स्वतंत्रता के आन्दोलन में हिदी कवियों के ओजस्वी उद्गारों तथा उनसे मिली प्रेरणा
ने अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसे कतई विस्मृत नहीं किया जा सकता। आधुनिक
खड़ी बोली हिदी कविता के प्रवर्तक बाबू हरिश्चंद्र ने भारत दुर्दशा का बड़ा ही
मार्मिक चित्रण किया है ----अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी। पै धन विदेश चलि जात
इहै अति ख्वारी।।सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखी ना जाई।।राष्ट्रकवि
मैथिलीशरण गुप्त अपनी राष्ट्रीय रचनाओं के कारण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय
अत्यंत लोकप्रिय रहे। उनकी ‘भारत-भारती’ सम्पूर्ण भारतवर्ष में गूँज उठी थी। उससे
अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने विशेष प्रेरणा प्राप्त की। गुप्तजी को अपनी
ओजस्वी कृतियों के लिए जेल-यात्रा भी करनी पड़ी थी। उन्होंने जहाँ स्वतंत्रता
आन्दोलन में व्यक्तिगत रूप से भाग लिया वहीँ प्रेरक कविताओं से अनेक भारतीयों को
बलि-पथ पर अग्रसर किया। पं. माखन लाल चतुर्वेदी की कविताओं ने भी स्वतंत्रता
सेनानियों के ह्रदय में राष्ट्र प्रेम की भावना जाग्रत की। 'एक फूल की चाह; शीर्षक
कविता की कुछ पंक्तियाँ---चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ / चाह
नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ / चाह नहीं सम्राटों के सर पर हे हरि
! डाला जाऊँ / चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूँ, भाग्य पर इठलाऊँ / मुझे तोड़ लेना
बनमाली उस पथ पर देना तुम फ़ेंक / मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जावें वीर अनेक।
पं. रामनरेश त्रिपाठी ने भी अनेक स्वाधीनतापरक कविओताओं का प्रणयन किया। उन्हें
पढ़कर पाठकों के ह्रदय में स्वतंत्रता के प्रति सहज अनुराग हुआ है। 'पथिक' खंड
काव्य में परवशता और स्वतंत्रता का प्रतिपादन इस प्रकार किया गया है --- एक घड़ी की
भी परवशता, कोटि नरक के सम है / पल भर की भी स्वतंत्रता, सौ स्वर्गों से उत्तम है।
महाकवि जयशंकर प्रसाद द्वारा प्रस्तुत प्रयाण गीत ने स्वतंत्रता के लिए आगे बढ़ने
की प्रेरणा आजादी के दीवानों को दी थी --हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध
भारती / स्वयंप्रभा समुंज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती /अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ
प्रतिज्ञा सोच लो/ प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढे चलो बढे चलो / अराति सैन्य सिन्धु
में , सुबाडवाग्नी से जलो / प्रवीर हो जाई बनो, बढे चलो, बढे चलो।श्री जगदम्बा
प्रसाद मिश्र "हितैषी" की ये पंक्तियाँ आज भी बड़े गर्व से गायी जाती है
-- शहीदों के मजारों पे लगेंगे हर वर्ष मेले / वतन पे मरने वालों का यही बाकी
निशाँ होगा। कविवर श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' का झंडा गीत स्वतंत्रता सेनानियों के
लिए शास्त्र ही बन गया था -- विजयी विश्व तिरंगा प्यारा / झंडा ऊँचा रहे हमारा पं. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने स्वयं सक्रिय रूप से
भाग लिया। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में
महती भूमिका निभाई। राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी प्रमुख गाँधीवादी माने जाते
हैं। उनकी अनेक रचनाओं का उपयोग स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रभात फेरियों में किया
जाता था। श्रीमति सुभद्रा कुमारी चौहान की झाँसी की रानी, रचना का भी स्वाधीनता
आन्दोलन में विशिष्ट योगदान रहा है। इनके कवियों के अतिरिक्त अनेक कवियों ने भी अपनी
कविता के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका का निर्वाह किया है।
इसमें बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' प्रताप नारायण मिश्र आदि अनेक नाम हैं जिन
लोगों ने अपनी कविताओं के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम की अलख जागाने में अपना
योगदान देते रहे।
उपन्यास और
कहानी के अलावा कवियों ने अपनी कविता से लोगों में देशप्रेम की ऐसी अलख जगाई कि
लोग घरों से बाहर निकल आए और क्रांतिकारी स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया है।
भारत में स्वाधीनता संग्राम का इतिहास उतना ही पुराना है जितना हमारी परतंत्रता का
इतिहास। यह देश 1000 वर्ष से भी अधिक समय तक गुलाम रहा, परंतु इसका सांस्कृतिक स्वरूप अक्षुण्ण बना
रहा। भारत की राष्ट्रीयता का आधार राजनीतिक एकता न होकर सांस्कृतिक एकता रही है।
मोहम्मद इकबाल
के शब्दों में :- “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन,
दौर-ए-जहाँ हमारा”
भारतेंदु
हरिश्चंद्र ने जिस आधुनिक युग का प्रारंभ किया उसकी जड़े स्वाधीनता आंदोलन में ही
थी। भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों ने युग चेतना को पद्य और गद्य
दोनों में अभिव्यक्ति दी। इसके साथ इन साहित्यकारों ने स्वाधीनता संग्राम और सेनानियों
की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए भारत के स्वर्णिम अतीत में लोगों की आस्था जगाने का
प्रयास किया। वहीं दूसरी ओर उन्होंने अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों का खुलकर
विरोध किया।
द्विवेदी युग के
साहित्यकारों ने भी स्वाधीनता संग्राम में अपनी लेखनी द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई। महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, श्रीधर पाठक, माखनलाल चतुर्वेदी
आदि ने भारतीय स्वाधीनता हेतु अपनी तलवार रूपी कलम को पैना किया। इन कवियों ने आम
जनता में राष्ट्रप्रेम की भावना जगाने तथा उन्हें स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा बनने
हेतु प्रेरित किया। ‘भारत-भारती’ के रचयिता मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रकवि कहलाए, तो
वहीं माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ लिखकर जनमानस में सेनानियों के
प्रति सम्मान के भाव जागृत किए। सुभद्रा कुमारी चौहान ने ‘झाँसी की रानी’’ आदि
कविताओं के माध्यम से स्वाधीनता आंदोलन को तेज करने में अद्वितीय भूमिका अदा की।
मैथिलीशरण गुप्त ने भारत वासियों को स्वर्णिम अतीत की याद दिलाते हुए वर्तमान और
भविष्य को सुधारने की बात की:-
“हम क्या थे,
क्या है, और क्या होंगे अभी आओ विचारे मिलकर ये समस्याएँ सभी।”
राष्ट्रकवि
मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ में उन्होंने लिखा:- ‘जिसको न निज गौरव तथा निज
देश का अभिमान है। वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।।’
सुभद्रा कुमारी
चौहान की ‘झाँसी की रानी’ कविता ने अंग्रेजों को ललकारने का काम किया:- बुन्देले
हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी की रानी थी।’
पं. श्याम
नारायण पाण्डेय ने महाराणा प्रताप के घोड़े ‘चेतक’ के लिए ‘हल्दी घाटी’ में लिखा:-
रणबीच चौकड़ी
भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था, राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला
था।
गिरता न कभी
चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था, वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर, या आसमान पर
घोड़ा था।।
जयशंकर प्रसाद
ने ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ सुमित्रानंदन पंत ने ‘ज्योति भूमि, जय भारत देश।‘
इकबाल ने ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’ तो बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने
‘विप्लव गान’ लिखा। इन सबके अलावा बंकिम चन्द्र चटर्जी का देश प्रेम से ओत-प्रोत
गीत ‘वन्दे मातरम’ ने लोगों के रगों में उबाल ला दिया। अब किसी कीमत पर देश के
लोगों को पराधीनता स्वीकार नहीं था।
“वन्दे मातरम्! सुजलां सुफलां मलयज शीतलां, शस्यश्यामलां
मातरम्! वन्दे मातरम्!”
सुभद्रा कुमारी
चौहान की “झाँसी की रानी” कविता को कौन भूल सकता है, जिसने अंग्रेज़ों की जड़ें
हिला कर रख दी। वीर सैनिकों में देश प्रेम का अगाध संचार कर जोश भरने वाली अनूठी
कृति आज भी प्रासंगिक है:-
“सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की, कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी की रानी थी।”
देशप्रेम की
भावना जगाने के लिए जयशंकर प्रसार ने “अरुण यह मधुमय देश हमारा” सुमित्रानंदन पंत
ने “ज्योति भूमि, जय भारत देश।” निराला ने “भारती! जय विजय करे। स्वर्ग सस्य कमल
धरे।।” कामता प्रसाद गुप्त ने “प्राण क्या हैं देश के लिए के लिए। देश खोकर जो जिए
तो क्या जिए।।” इकबाल ने “सारे जहाँ से अच्छा हिस्तोस्ताँ हमारा” तो बालकृष्ण
शर्मा ‘नवीन’ ने ‘विप्लव गान’ में लिखा:-
‘‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए
एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर को जाये
नाश ! नाश! हाँ महानाश! ! ! की
प्रलयंकारी आँख खुल जाये।”
कहकर रणबांकुरों
में नई चेतना का संचार किया। इसी श्रृंखला में शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, रामनरेश
त्रिपाठी, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ राधाचरण
गोस्वामी, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, राधाकृष्ण दास, श्रीधर पाठक, माधव प्रसाद
शुक्ल, नाथूराम शर्मा शंकर, गया प्रसाद शुक्ल स्नेही (त्रिशूल), माखनलाल चतुर्वेदी,
सियाराम शरण गुप्त, अज्ञेय जैसे अगणित कवियों के साथ ही बंकिम चन्द्र चटर्जी का
देश प्रेम से ओत-प्रोत “वन्दे मातरम्” गीत:-
“वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयज शीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्! वन्दे मातरम्!
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-द्रुमदल शोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरत्। वन्दे मातरम्!”
प्रेमचंद द्वारा
रचित 'कर्मभूमि' नामक उपन्यास सन् 1932 में प्रकाशित हुआ था। यह राजनीतिक कथानक पर
आधारित उपन्यास है।
प्रेमचन्द का यह
उपन्यास पाँच भागों में विभाजित है। इस उपन्यास में लाला समरकांत, उनके पुत्र
अमरकांत, पुत्रवधू सुखदा, रेणुकांत (सुखदा का पुत्र), पुत्री नैना सकीना, हाफिज़
हलीम और उनके पुत्र सलीम, धनीराम और उनके पुत्र मनीराम, डॉ. शांतिकुमार और स्वामी
आत्मानन्द, गूदड़, प्रयाग, काशी, सलोनी और मुन्नी आदि की कहानी है। कर्मभूमि में
परिवारों की कथा है। इसमें प्रेमचन्द देशानुराग, समाज- सुधार, अछूतोद्धार, शिक्षा,
ग़रीबों के लिए मकानों की समस्या, देश के प्रति कर्तव्य, जन- जागृति आदि की ओर
संकेत करते हैं। कृषकों की समस्या उपन्यास में है तो, किंतु वह प्रमुख नहीं हो
पायी। सम्पूर्ण कथा का कार्य- क्षेत्र प्रधानत: काशी और हरिद्वार के पास का देहाती
इलाक़ा है।
स्वतंत्रता दिवस के सुअवसर पर बाबू गुलाबराय का कथन समीचीन है - "15
अगस्त का शुभ दिन भारत के राजनीतिक इतिहास में सबसे अधिक महत्व है। आज ही हमारी
सघन कलुष-कालिमामयी दासता की लौह श्रृंखला टूटी थी। आज ही स्वतंत्रता के नवोज्ज्वल
प्रभात के दर्शन हुए थे। आज ही दिल्ली के लाल किले पर पहली बार यूनियन जैक के
स्थान पर सत्य और अहिंसा का प्रतीक तिरंगा झंडा स्वतंत्रता की हवा के झोंकों से
लहराया था। आज ही हमारे नेताओं के चिरसंचित स्वप्न चरितार्थ हुए थे। आज ही युगों
के पश्चात् शंख-ध्वनि के साथ जयघोष और पूर्ण स्ततंत्रता का उद्घोष हुआ था।"
आज के हमारे
कवियों का और साहित्यकारों का यह महती दायित्व बनता है कि वह इस देश के बारे में
सोचें और उसी परंपरा को जीवित रखें जो मैथिलीशरण गुप्त की परंपरा है, प्रेमचंद की
परंपरा है, नीरज की परंपरा है, और यह स्मरण रखें कि यहाँ पर राम का चरित्र लिखने
के लिए वाल्मीकि तब मिलता है जब राम इस योग्य होता है कि कोई उसकी बारे में लेखनी
चला सके। कहने का अभिप्राय है कि यहाँ पर चाटुकारिता को अपना उद्देश्य नहीं माना
जाता और दरबारी कवि होना यहाँ पर अभिशाप है। यहाँ दरबार कवि ढूँढता है, कवि
दरबारों को नहीं ढूंढते। यहाँ पर कवि किसी मोह के वशीभूत होकर नहीं लिखते। यहाँ तो
राष्ट्र जागरण के लिए लिखा जाता है, राष्ट्रोत्थान के लिए लिखा जाता है,
राष्ट्र-उद्धार के लिए लिखा जाता है। क्योंकि सब कवि अपना यह दायित्व समझते हैं कि
राष्ट्र जागरण, राष्ट्रोद्धार और राष्ट्रोत्थान ही उनकी लेखनी का एकमात्र व्रत है,
एकमात्र विकल्प है।
संदर्भ ग्रंथ
सूची :-
1.
कबीर वाणी,आर.एस.रमन, निधि बुक सेंटर,
दिल्ली, 2008।
2.
कर्मभूमि, प्रेमचंद,
वाणी प्रकाशन, दिल्ली,1932।
3.
भारत-भारती, मैथलीशरण गुप्त
, लोकभारती प्रकाशन दिल्ली, 1969।
4.
अंधेर नगरी, भारतेन्दु
हरिशचंद्र, ,लोकभारती प्रकाशन, नई
दिल्ली, 2019।
5.
कामायनी, जयशंकर
प्रसाद, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, 1936।
डॉ.जयंतिलाल.बी.बारीस
असिस्टेंट प्रोफेसर
आर.के.देसाई कॉलेज ऑफ एज्युकेशन
वापी (गुजरात)
बहुत महत्वपूर्ण जानकारी। सुंदर विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंदेशप्रेम के रंग में सराबोर हिन्दी कविता और कवियों पर सशक्त आलेख , बधाई ।
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