स्वतंत्रता
के मायने
डॉ.
मदनमोहन शर्मा
भारतीय
आज़ादी को लेकर फिराक गोरखपुरी की पंक्तियाँ – ‘लहू
वतन के शहीदों का रंग लाया है ; उछल रहा है जमाने में नाम-ए-आज़ादी’
तथा
स्वतंत्रता को एक जिम्मेदारी मानने वाले ज्यॉर्ज बर्नाड शॉ और अब्राहम लिंकन
द्वारा आज़ादी का समर्थन करने का पुरजोश ख़्याल निश्चित रूप से आज़ादी के मायने समझने
और तदनुरूप कर्मशील होने का गहन सन्देश देते हैं। इसी के समानान्तर स्वातंत्र्योत्तर
भारतीय परिप्रेक्ष्य में सोचने-विचारने पर भी मजबूर करते हैं कि क्या हमने सही मायनों
में आज़ादी को समझ लिया है? भारतीय
स्वाधीनता-संग्राम में हर सच्चे भारतीय हितचिंतक ने सब कुछ भुलाकर केवल और केवल
स्वतंत्रता हासिल करने के उदात्त ध्येय को ध्यान में रखा। बावजूद इसके कि पराधीन
भारत अनेक प्रकार की विषमताओं और विद्रूपताओं का सामना कर रहा था,
जब
स्वाधीनता-प्राप्ति का लक्ष्य सामने आया तो देश में अभूतपूर्व ऐक्य का परिचय देते
हुए अन्ततोगत्वा अखंड भारत का संकल्प सिद्ध कर लिया। हम अपने स्वाधीनता सेनानियों,
शहीदों
के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते। सवाल यह भी है कि स्वाधीनता यदि एक सुखद एहसास है
तो क्या इस एहसास के साथ दायित्व बोध नहीं जुड़ा है?
भारत
ने विगत पचहत्तर वर्षों में अनेक आरोह-अवरोहों और पड़ावों से गुजरते हुए बहुत कुछ पा
लिया है। वैज्ञानिक प्रगति, औद्योगीकरण
के समानान्तर हम सूचना, संचार,
तकनीक
के मायने में दुनिया के साथ कदमताल कर रहे हैं। दूसरी तरफ,
सामाजिक-राजनैतिक
अवमूल्यन में हमें फिर एक बार सोचने-विचारने के लिए बाध्य किया है कि क्या हम सही
मायनों में आज़ादी के मायने समझ पाए हैं? या
फिर किसी अंतराल से भी रूबरू हो रहे हैं। स्वाधीनता-गौरव को जब तक हम अपने
दायित्वों से नहीं जोड़ते, लगता
है कोई कमी हमेशा खटकती रहेगी। विश्व स्तरीय विकास-यात्रा में आज भारत को किसी भी
नजरिए से कम करके नहीं आँका जा सकता परन्तु अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जिससे निजात
पाए बिना हम सतत स्वाधीनता के सही मायने तलाशते रहेंगे। यह हमारा आन्तरिक
सामाजिक-राजनैतिक अन्तराल है जो कई तरह की विसंगतियों के रूप में हमारे सामने खड़ा
है। लगता है, स्वाधीन
भारत में सामाजिक-सांप्रदायिक एकता-अखंडता की बुनियाद ही सही अर्थों में अखंड भारत
के सपने को शत-प्रतिशत साकार करने की दिशा में आधारभूत बुनियाद साबित होगी। ऐसे
में, बाहरी हुकूमत से
आज़ादी मिलने के साथ-साथ देश को आन्तरिक स्तर पर उक्त विषमताओं से मुठभेड़ करने की
आवश्यकता आज भी बनी हुई है। इस लिहाज से देखा जाय तो स्वाधीनता दिवस अपने-आप में
गौरव-दिवस होने के साथ-साथ संकल्प-दिवस भी समझा जाना चाहिए। सांप्रत चुनौतियों से
जूझकर राष्ट्रहितकारी उदात्त लक्ष्यों को हासिल करना कोई दूर की कौड़ी नहीं है,
बस
संवैधानिक-लोकतांत्रिक मूल्यों के जतन से भी काफ़ी हद तक अन्तरालो-विषमताओं से निजात
पाई जा सकती है, ऐसा
लगता है। हमारे तिरंगे झंडे के तीनों रंग भी तो खुशहाली-समृद्धि,
शांति-चैन,
उदय-उत्थान
का ही बोध प्रकारान्तर से कराते हैं। हमारे यहाँ की प्राकृतिक-नैसर्गिक संपदा ही इतनी
विपुल है कि संसाधनों की कमी नहीं हो सकती। भौतिक संपदा के समानान्तर मानवीय
मूल्यों के रक्षण की खातिर वैचारिक संपदा को भी सतत उदात्त बनाए रखने की आवश्यकता
से इनकार नहीं किया जा सकता। इस क्रम में, फिर एक बार समरसता की दिशा में संकल्पशील-प्रत्यनशील
होने की जरूरत महसूस होती है।
स्वाधीनता-प्राप्ति-दिवस
हर भारतीय के लिए भारत के वीर सपूतों को याद करते हुए उन्हें शत-शत नमन करने का
दिवस है। इस अवसर पर शहीदों की आकांक्षाओं पर भी खरा उतरने की जिम्मेदारी का निर्वहण
करने के संकल्प को बलवत्तर होते रहना इस लिहाज़ से काफी महत्वपूर्ण हो जाता है।
शहीदों के प्रति सार्थक श्रद्धांजलि उनके सपनों के भारत,
आजाद
भारत को साकार करता है। यह कार्य केवल
ऐतिहासिक पटल पर देश को स्वाधीन देशों की सूची में शामिल होने भर तक सीमित रखकर
नहीं हो सकता, बल्कि
राष्ट्रीय अस्मिता के गौरव को सदा-सर्वदा के लिए अक्षुण्ण रखने के दायित्व बोध से
भी जुड़ता है। तभी हम सम्यक रूप से स्वाधीनता के मायनों से रूबरू हो सकेंगे,
ऐसा
प्रतीत होता है।
स्वाधीनता-दिवस
की असीम शुभकामनाएँ -
डॉ.
मदनमोहन शर्मा
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ
विद्यानगर (जि. आणंद)
गुजरात
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