त्रिलोक
सिंह ठकुरेला
1
धीरे-धीरे
समय ही,
भर देता है घाव।
मंजिल
पर जा पहुँचती, डगमग होती नाव।।
डगमग
होती नाव,
अन्ततः मिले किनारा।
मन
की मिटती पीर, टूटती तम की कारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के बजें मंजीरे।
धीरज
रखिये मीत, मिले सब धीरे धीरे।।
2
तिनका-तिनका
जोड़कर,
बन जाता है नीड़।
अगर
मिले नेतृत्व तो, ताकत बनती भीड़।।
ताकत
बनती भीड़,
नये इतिहास रचाती।
जग
को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका।
रचते
श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका।।
3
आजादी
का अर्थ है, सब ही रहें स्वतंत्र।
किन्तु
बंधे हों सूत्र में, जपें प्रेम का
मंत्र।।
जपें
प्रेम का मंत्र, और का दुख पहचानें।
दें
औरों को मान, न केवल अपनी तानें।
‘ठकुरेला’ कविराय, बात है सीधी सादी।
दे
सबको सुख-चैन, वही सच्ची आजादी।।
4
बीते
दिन का क्रय करे, इतना कौन अमीर।
कभी
न वापस हो सके, धनु से निकले तीर।।
धनु
से निकले तीर, न खुद तरकश में आते।
मुँह
से निकले शब्द, नया इतिहास रचाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, भले कोई जग जीते।
थाम
सका है कौन, समय जो पल पल बीते।।
5
यह
जीवन है बाँसुरी, खाली खाली मीत।
श्रम
से इसे संवारिये, बजे मधुर संगीत।।
बजे
मधुर संगीत, खुशी से सबको भर दे।
थिरकें
सबके पाँव, हृदय को झंकृत कर दे।
‘ठकुरेला’ कविराय, महकने लगता तन मन।
श्रम
के खिलें प्रसून, मुस्कुराता यह जीवन।।
त्रिलोक
सिंह ठकुरेला
आबू
रोड ( राजस्थान)
सभी कुंडलियाँ सुंदर और प्रभावी।बधाई ठकुरेला जी।
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुंदर! बधाई आदरणीय।
जवाब देंहटाएंसुंदर छंद
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