‘तीस हजारी दावत’: व्यापक जीवनानुभवों को व्यक्त करती लघुकथाएँ
डॉ. धर्मेंद्र कुमार एच. राठवा
लघुकथा हिंदी साहित्य की एक
महत्वपूर्ण विधा है। इस विधा ने अपने आरंभ काल से अब तक बहुत
सारे उतार-चढ़ाव देखे हैं। आजादी के बाद लघुकथा कथ्य और शिल्प की दृष्टि से वैविध्यशाली
बनी है। आज की लघुकथा नये शिल्प विधान के साथ समकालीन तथ्यों व सत्यों को यथार्थ की
जमीन पर उजागर कर रही है।
लघुकथाएँ तो आदिकाल से ही अपने समय को प्रस्तुत करते हुए
लिखी जाती रही हैं। किंतु इसका नामकरण बाद में तय हुआ और अपने नाम की सार्थकता सिद्ध
करते हुए बढ़ते समय के साथ-साथ इसका रूप-स्वरूप भी बदलता रहा
और आज की लघुकथा समय पर हुए अपने परिष्करण के साथ अन्य विधाओं की रचनाओं के साथ
पूरी सम्मान एवं गरिमा के साथ खड़ी अपनी प्रासंगिकता सिद्ध कर रही है। सतीशराज
पुष्करणा का कथन है_ “समाज में व्याप्त विसंगतियों में
से किसी विसंगति को लेकर सांकेतिक शैली में चलने वाला सारगर्भित, प्रभावशाली
एवं सशक्त कथ्य जब किसी झकझोर, छटपटा देने वाली लघुआकारीय गद्य
रचना का आकार धारण कर लेता है तो लघुकथा कहलाता है।”1 (लघुकथा: बहस के चौराहे पर, सं. सतीशराज पुष्करणा पृष्ठ,06)
जब हम हिंदी लघुकथा पर विचार करते
हैं तो आधुनिक लघुकथा के बीज हम भारतेंदु हरिश्चंद्र की लघुकथाओं में पाते हैं।
1874 ई. का वह समय जब हमारा देश परतंत्रता का संकट झेल रहा था, उस समय की स्थिति एवं परिस्थितियों को केंद्र बनाकर
लघुआकार कथात्मक रचनाएँ लिखी गईं जिनमें व्यंग्य का उपयोग बहुत ही
सटीक ढंग से किया गया था। इसके पश्चात
खलील जिब्रान से प्रभावित दार्शनिक लघुकथाओं का सृजन किया जयशंकर ‘प्रसाद’ ने।
इसके बाद तो फिर तत्कालीन अनेक कथाकारों ने अपनी अभिव्यक्ति का केंद्र लघुकथा को
बनाया जिनमें प्रेमचंद, कन्हैयालाल मिश्र, विष्णु प्रभाकर, आचार्य जगदीशचंद्र मिश्र, उपेंद्रनाथ ‘अश्क’, रामेश्वर तिवारी, भवभूती मिश्र, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, कामता प्रसाद सिंह ‘काम’, श्यामानंदन शास्त्री, भृंगु तुपकरी, रावी, रामवृक्ष बेनीपुरी, चंद्रमोहन प्रधान इत्यादि उल्लेखनीय हैं। इनके बाद छठे-सातवें
दशक में आधुनिक लघुकथा देश की राजनीतिक परिस्थितियों को केंद्र में रखकर उपस्थित
हुई, इसमें आपातकाल से पूर्व की स्थितियों और फिर आपातकाल एवं जे.पी आंदोलन से उपजी स्थितियों को लेकर लघुकथा
विषयवस्तु एवं शिल्प दोनों स्तरों पर नए रंग-ढंग से सामने आई जिसने पाठकों का
ध्यान गंभीरता से आकर्षित किया। हिन्दी लघुकथा के विकासक्रम में डॉ. शंकर पुणतांबेकर, कमल गुप्त, सतीश दुबे, बलराम अग्रवाल, मघुदीप, मधुकांत, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, डॉक्टर जसबीर चावला, राजेंद्र मोहन त्रिवेदी, ‘बन्धु’ श्याम सुंदर अग्रवाल, सतीश राठी, कमल चोपड़ा, डॉ. सतीशराज पुष्करणा इत्यादि नाम विशेष रूप से
उल्लेखनीय हैं।
डॉक्टर गोपाल बाबू हिंदी साहित्य का
परिचित और चर्चित नाम है। उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं में उल्लेखनीय सृजन
किया है। कविता, लघुकथा,
व्यंग्य, निबंध आदि विधाओं से संबंधी सृजन के साथ-साथ शोध-समीक्षा के क्षेत्र में
भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा ने लघुकथा की विकास यात्रा में दो लघुकथा संग्रह लिखे हैं_ ‘काँच
के कमरे’ और ‘तीस हजारी दावत’। इनमें से दूसरा लघुकथा संग्रह ‘तीस
हजारी दावत’
इनकी पड़ताल करते हुए मोटे तौर पर इसको मैंने कुछ मुख्य विषयों के अंतर्गत रखने की
कोशिश की है, जैसे मानवता; पारिवारिक संबंध- माता- पिता- संतान, पति- पत्नी/ स्त्री- पुरुष; सामाजिक सरोकार जिसमें समाज से
संबंधित अच्छाइयाँ- बुराइयाँ
एवं आम इंसान की विवशता और उदासीनता, मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ, कुछ लघुकथाएँ ऐसी भी है जो हमारे जीवन के एक से अधिक पहलुओं
को एक साथ छूती हैं।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की लघुकथाओं में निम्न-मध्यम वर्ग के जीवन का प्रतिबिंब है। और उस यथार्थ से टकराने का माद्दा
भी। उनमें किसी पंथ की वैचारिक प्रतिछाया को ग्रहण किए बगैर सामाजिक प्रतिपक्ष को
विरोधियों के कौशल को गढ़ने की सकारात्मक दृष्टि है। सांप्रदायिकता के बदरंगों को
वाम मार्गी आस्थाओं के फार्मूलावादी संस्कार से हटकर सहकार सहिष्णुता और मानवीय
संवेदना से ऐसे सकारात्मक पक्ष को लेते हैं, जो मार्मिकता और आंतरिक बदलाव के स्तर पर प्रभावी होता है। ये लघुकथाएँ जातिवाद के संकुंचित यथार्थ के विरुद्ध ऐसी
संस्कारी संवेदना का कौशल रचती है जिनमें संघर्ष के साथ विवेक अपने प्रभाव में
सहकारी होता है। वे इन लघुकथाओं में अभाव और पसीने के सौंदर्यशास्त्र को रखते हैं।
जिनमें करुणा, व्यवस्था के साथ सामाजिक-आर्थिक बदलाव की आकांक्षा पुरजोर
है। डॉ.
गोपाल बाबू शर्मा ने अपनी अनेक लघुकथाओं में समाज के ताने-बाने, उसकी सोच-
दृष्टि को निरूपित किया है। छुआछूत, धार्मिक पाखंड, दहेज की दुषणता, वेश्यावृत्ति, अंधविश्वास, जातिवाद आदि समाज के ऐसे विषय हैं, जिसने समाज के सौमनस्य को, मनुष्यता को, मनुष्य की संवेदनशीलता को तार-तार
कर रखा है।
सर्वप्रथम ‘निकम्मा’ शीर्षक
लघुकथा को देखते हैं तो वह सांप्रदायिक दंगों को लेकर लिखी गई एक मामूली लघुकथा
प्रतीत होती है। इसमें लघुकथा के तत्व तो है पर प्रभावी कथा नहीं दिखती। दंगे के दौरान जो लोग मरे उन्हें सरकार की ओर
से साढे सात-सात लाख मुआवजे के रूप में
मिले। इसमें मरने वालों में राजू नाम का युवक भी था जिसे घर के लोग आवारा और
निकम्मा कह कर अक्सर ताना मारा करते थे पर अब वह उनके लिए निकम्मा न था क्योंकि
मरने वालों को सरकार रुपये मुआवजे के रूप में दे रहे थे।
धर्म तो इंसानियत का दूसरा नाम है
पर हमारी घोर मूर्खता है कि हम धर्म-
मजहब की परिभाषा नहीं जानते यही लेखक का कहना है।
एक और जाल व्यंग्यात्मक लघुकथा है। शिक्षण
संस्थान में उच्च शिक्षा के उस काले पृष्ठ को उजागर करती है जिस पृष्ठ पर कामयाबी
का सुनहरा अक्सर लिखना होगा कि उच्च शिक्षा जगत में कार्यरत प्रोफ़ेसर के हाथों का
तिलिस्म है। आज किस प्रकार शोध संस्थानों में शिक्षा का मजाक बना दिया गया है उसे
यह लघुकथा उजागर करती है। लघुकथा से एक उदाहरण देखिए_(रीडर महोदय और साथी अध्यापक
का संवाद)
“यूजीसी के अनुसार ‘नेट’ अब कंपलसरी नहीं रहा।”
“अब लोग पी-एच.डी की तरफ ज्यादा भागेंगे”
“ हाँ इसमें क्या शक है।”
“तो तुम्हारे लिए मार्केटिंग शुरू कर दूँ?
“तो
क्या पॉसिबिलिटी है?
“कम से कम साठ-सतर हजार तीस सिनॉप्सिस
मंजूर होने पर बाकी थीसिस लिख जाने के बाद।”
“अभी इंतजार करो रेट और उचें जाएंगे।“2
(
तीस हजारी लघुकथा संग्रह, डॉ. गोपाल शर्मा बाबू ,पृष्ठ, 05)
अतः शोध छात्रों के लिए एक और जाल बुना जा रहा था। लघुकथा में निर्देशक
प्रोफ़ेसर की स्वार्थ पूरित सोच उजागर होती है, अतः लघुकथा उच्च शिक्षा में व्याप्त
इसी पृष्ठ को अनावृत करती है।
हमदर्दी लघुकथा में समाज के लोगों की संवेदनहीनता को दिखाया
गया है। वर्मा जी अपनी पत्नी के साथ मोटर-साइकिल पर जा रहे थे। कॉलोनी में जाते वक्त कुत्ता आ जाता है दोनों सड़क पर
गिर पड़े। कुत्ता मोटर-साइकिल से टकरा जाने से चिल्लाने
लगा। आसपास के घरों से लोग निकल आए पर किसी ने वर्मा जी और पत्नी को उठाया नहीं।
दूसरी और साथी कुत्ते, कुत्ते की हमदर्दी में भौंके जा
रहे थे। लघुकथा में लेखक यह कहना चाहता है कि आज लोगों में मानवता मर चुकी है, मनुष्य से ज्यादा प्राणी से हमदर्दी दिखाते हैं।
श्रद्धांजलि लघुकथा में लेखक पुलिसिया भ्रष्टाचार पर व्यंग्य को अधिक
तेज धार देने में सफल है। स्थानीय पुलिस विभाग में शोक की लहर दौड़ गई क्योंकि छत
से गिरकर घायल हुए एक पुलिसकर्मी की मृत्यु हो जाती है। पुलिसकर्मियों तथा पुलिस
अधिकारियों ने उसे श्रद्धांजलि अर्पित की। उसकी कर्मठता की प्रशंसा करते हुए उससे
विभाग के प्रति अत्यंत वफादार बताया गया। सच तो यह था कि दिवंगत पुलिसकर्मी जेबकट से
नोट हडपे थे उसी खुशी में शराब पीकर छत से गिर कर मर जाता है।
चुना लघुकथा आज के लोकतंत्र में पनपे
भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करती है। ‘बिन पैसे कोई काम नहीं होता’ इस बात को सार्थक
करती हुई यह रचना नीचे से ऊपर तक फैले भ्रष्टाचार की पोल खोलती है। चाहे किसी
दफ्तर में जाओ, चाहे थाने में जाओ, कहीं भी जाओ मोटी की आवश्यकता होती है। “यार, यह मास्टर तो बड़ा खुर्राट निकला तुम्हें अपने जीवित होने का प्रमाण- पत्र भी जमा करा गया और तुम्हारी बख्शीश भी तुम्हें
नहीं दी, ऊपर से यह फटकार और पिला दी कि गुरु जी कहते हैं और रुपए
पचास भी माँगते हो।”3 (वही, पृष्ठ,08) तब क्लर्क कहता है_ “किसने किसको चुना लगाया यह तो
पता तो तब चलेगा जब अगले महीने बैंक में पेंशन नहीं पहुँचेगी।”4(वही, पृष्ठ, 08) अतः व्यंग्य प्रधान इस लघुकथा नीचे
से ऊपर तक फैले भ्रष्टाचार की पोल खोलती है।
साहब का कुत्ता लघुकथा में अधिकार का उपयोग अधिकारी
किस हद तक करते हैं, इसका नमूना इस कथा में है। पुलिस
कंट्रोल रूम से सूचना दी गई कि एक उच्च अधिकारी के बंगले पर उनका कुत्ता कुएं में
गिर गया, उसे निकालने की सूचना मिली और फायर ब्रिगेड को दी
तुरंत ही दमकल की गाड़ी फौरन साहब के बंगले की ओर दौड़ पड़ी। बाद में पता चला कि
कुत्ता आवारा था, भगाने पर दुम दबाकर चुपचाप बाहर
भाग गया होगा। जवानों को पता ही नहीं चला पर कंट्रोल रूम से उसे साहब का कुत्ता
बना दिया।
करिश्मा लघुकथा शासन- प्रशासन की मिलीभगत और स्वार्थ को बताती है। टैंकर में कई हजार लीटर दूध
खाद्य विभाग और पुलिस ने मिलकर उसे पकड़ा था।दूध में सोडा, मिल्क पाउडर का मिश्रण पाया गया था। दूध को नष्ट करने की बात चल रही थी इतने
में कुछ प्रभावशाली लोगों के फोन आए और दूध को नष्ट करने का विचार बदल गया। कुछ
घंटों के भीतर ही सिंथेटिक दूध एकदम शुद्ध हो गया क्योंकि टैंकर पर ‘विधायक’ लिखा
हुआ था यानी टैंकर विधायक महोदय का था।
लघुकथा का तात्पर्य यह है कि रक्षक ही भक्षक बन जाएंगे फिर समाज का क्या
होगा? जब रखवाले ही अपराधी बन जाएंगे तो फिर जनता की सुरक्षा कैसे होगी?
नजर लघुकथा समाज में फैले अंधविश्वास पर व्यंग्य करती है
कि अनपढ़ ही नहीं पढ़े लिखे यहाँ तक कि डॉक्टर और इंजीनियर भी उसके प्रवाह में बहे
जा रहे हैं। इस
रचना में डॉक्टर के द्वारा ही अंधविश्वास किया जा रहा है। परिवार में भाभी वर्मा जी के
लड़के की शादी की दावत में गई थी। अंजना बताती है कि_ “परसों हमारी भाभी को नजर लग गई।
नजर बड़े ही जोर की, वहाँ दावत खाते-खाते किसी की नजर
लगी कि घर आते ही उनकी तबीयत खराब हो गई। पेट में जोर का दर्द शुरू हो गया।”5
(वही, पृष्ठ, 11) मम्मी ने तेल की बत्ती जला कर नजर
उतारी फिर अंजना कहती है मैंने भी भाभी की नजर उतारी। इसके बाद पड़ोस की ताई जी
कहती है_ “क्यों
अपने पापा से दवा नहीं दिलवाई पापा तुम्हारे डॉक्टर है। तो अंजना कहती है_ “यह
सब पापा के कहने पर ही तो हुआ”।6 (वही, पृष्ठ, 11)
नौकरी लघुकथा समाज में दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई बेरोजगारी पर
टिप्पणी करती है। बेरोजगारी के कारण आज का युवा वर्ग काम की तलाश में भटकता है। रोज़गार
मिलने पर युवा गैरकानूनी कार्य करने पर भी मजबूर हो जाते हैं। लघुकथा में खुद बेटे
ने अपने पिता की तमंचे से गोली मारकर हत्या कर दी। पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया।
पुलिस द्वारा पीटने पर उसने रोते हुए बताया_ “मैं काफी समय से बेरोजगार था। परेशान
था। सोचा था कि पिता के न रहने पर उनकी जगह आश्रित के रूप में नौकरी मुझे मिल
जाएगी।”7 (वही,पृष्ठ, 12)
वर्तमान समय में
मूल्य योग्यता से नहीं पैसे से आँका जाता है, योग्य व्यक्ति पैसे के अभाव में पद के लिए अयोग्य सिद्ध हो जाता है। फलस्वरूप
अनुशासनहीनता, अराजकता बढ़ती जा रही है। युवा वर्ग कुंठित होते जा रहा
है। बेरोजगारी अत्याचारों को बढ़ावा देती है।
धरना लघुकथा आंदोलन और धरना के माध्यम
से सत्ताधारियों के अन्याय और जनता की विवशता को व्यक्त करती है। शहर में होकर
गुजरती रेलवे लाइन के दोनों और फाटक। लेकिन फाटक के बंद होने पर भी लोग ट्रेन के
गुजर जाने का इंतजार किए बिना रेलवे लाइन पार करते थे और दुर्घटना भी हो जाती है
इसलिए छात्र- नेता परिषद द्वारा धरना शुरू किया। क्रमिक अनशन किया
छात्र नेताओं के सामने पेट्रोल डिपो सिनेमा मालिकों की ओर से प्रस्ताव रखा गया_ “बीस
हजार लो और धरना खत्म करो।”8(वही, पृष्ठ, 13) लेकिन छात्र-नेता पचास हजार चाहते थे। छात्र-नेता नहीं माने तो अगले दिन पुलिस ने शांति भंग और
आत्महत्या का प्रयास करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। लघुकथा का तात्पर्य है कि
आज सत्ताधारियों द्वारा धरना और आंदोलन करने वालों को किसी भी तरह से समझाने का
प्रयास करते हैं। नहीं माने तो कानून लगाकर गिरफ्तार कर लेते हैं।
संकीर्णता और घृणा का कोई तार्किक आधार
नहीं होता इसे ‘सजा’ लघुकथा बखूबी उभारती है। युवक पर आरोप था कि उसने
मोहल्ले की लड़की को छेड़ा है। उस लड़की को भी बुलवा लिया। लड़की ने भी युवक की
चप्पलों से धुलाई की। लघुकथा के अंतिम कथन देखिए_ “यह लड़की वह थी, जो युवक के साथ कुछ महीने पहले भाग गई थी और कल ही
लौटी थी।”9(वही, पृष्ठ, 16)
गिरगिटी रंग लघुकथा में नेता अपने बयान किस तरह बदल देते हैं, इस पर टिप्पणी की है। नेता आम लोगों को किस तरह अपने
बयान से भड़काते हैं इसका उदाहरण देखिए_ “भाइयों खून- खराबा हो ना हो, तो हो। हम ईंट से ईंट बजा देंगे
सर कटा देंगे। पर पाँव पीछे नहीं हटाएँगे।”10 (वही, पृष्ठ, 17) इसे सुनकर लोगों में सांप्रदायिक
विद्वेष की भावना भड़क उठी। तोड़फोड़,
लूटपाट और आगजनी के साथ-साथ जनसंहार का तांडव शुरू हो गया। तीन दिन के बाद उन्हीं
नेताजी का अखबारों में बयान था_ “जो हुआ,
ठीक नहीं हुआ। यह स्थिति शहर के लिए ही नहीं, देश के लिए भी अत्यंत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। इसकी निंदा की जानी चाहिए।
शांति और सौहार्द बनाए रखना हम सबका जरूरी फर्ज है।”11 (वही, पृष्ठ, 17) लघुकथा का तात्पर्य है जिस प्रकार
गिरगिट रंग बदलता है, उसी प्रकार आज के नेता- गण अपना बयान बदल देते हैं।
सस्तापन लघुकथा पारिवारिक संदर्भों की मर्मस्पर्शी लघुकथा है।
पिता- पुत्र की सकारात्मक पारिवारिक मूल्य की श्रेष्ठ
लघुकथा। पिताजी मिठाई की जगह फल लेकर घर आते हैं। मनीषा ने पति को उलाहना दिया कि
देखो_ “तुम्हारे पिताजी दो साल बाद आए और मिठाई की जगह फल लेकर आए।”12
(वही, पृष्ठ, 18) तब पति कहता है_ “तो क्या हुआ?
पिताजी स्वास्थ्य के लिए मिठाई से अधिक फलों को फायदेमंद मानते हैं। और यह सही भी
है। कीमत में सस्ती होने से चीज का महत्व कम नहीं हो जाता। सस्तापन वस्तु की
अपेक्षा हमारी सोच में होता है।”13 (वही, पृष्ठ, 18) अतः लघुकथा में पत्नी अपने पति को पिताजी के विरुद्ध
भड़काना चाहती है परंतु पति अपने पिता का पक्ष लेता है।
टी.वी के कार्यक्रम से किस प्रकार बच्चों पर दुष्प्रभाव- हिंसा और अश्लीलता का प्रभाव पड़ता है, यह ‘असर’ लघुकथा में देखा जा
सकता है। सोनू टीवी देख कर माँ के पास आया और उनसे लिपटने लगा माँ ने कहा_ “रुक जा
बेटा मुझे नाश्ता बनाना है तेरे पापा नहा कर आ रहे होंगे। तब सोनू कहता है_ “तो
क्या आप पापा से डरती है, अरे प्यार किया तो डरना क्या। और उसने तपाक से आगे बढ़कर
मम्मी का चुंबन ले लिया।”14 (वही, पृष्ठ, 20)
निरुत्तर नामक छोटी- सी
लघुकथा में टी.वी के कार्यक्रम बच्चों के मन पर किस
प्रकार असर करता है यह दिखाया है। बंटी पर यह स्पष्ट लक्षित
हो रहा हैं। बंटी अपनी दादी से बहुत मिला हुआ है। दादी के पास से खाना-पीना माँगता
रहता है। बंटी हमेशा टी.वी देखता रहता है। आजकल विज्ञापनों
की भरमार है। ऐसे भी कुछ विज्ञापन हैं जिसका अर्थ बच्चों को पता नहीं होता है। एक
दिन दादी किसी कारणवश बहुत उदास थी तभी बंटी दादी के पास आया और बोला_ “दादी अम्मा
आप जीवन में खुशियाँ लाने के लिए ‘निरोध’ का इस्तेमाल क्यों नहीं करती।”15
(वही, पृष्ठ, 22) दादी अवाक् थीं। उत्तर देती भी तो
क्या? अतः यह था टी.वी के विज्ञापनों का कमाल जिसे
देखकर बंटी ने दादी से पूछा सवाल।
कृपा लघुकथा में स्वामी जी बीमारी, गृह क्लेश,
गरीबी और मुसीबत से छुटकारा दिलाने की बात करता है। महिलाएँ स्वामी जी के पास पहुँचती
है। दूसरे दिन एकांत में मिलने के लिए बुलाया। चार महीने के बाद पता चला कि
पारिवारिक क्लेश न दूर हुआ, न गरीबी दूर हुई है। स्वामी जी की
कृपा के फलस्वरूप उन दोनों में से एक गर्भवती बन गई।
व्यंग्यात्मक शैली में लिखी स्त्री-देह शोषण
की यह एक बेहतरीन लघुकथा है।
स्वागत की आदत लघुकथा बताती है कि नेता के पद से हटने के बाद भी
पुरानी आदत छूटती नहीं है। राजनीतिक क्षेत्र की कड़वी सच्चाई को उजागर करती
यह बेहतरीन लघुकथा है। पहले की तरह नेताजी को मन में यह था कि उनके स्वागत में
भारी भीड़ खड़ी मिलेगी लेकिन बस पाँच-छ लोग
ही उपस्थित थे। नेताजी ने अपने को बहुत समझाया कि राजनीति में उतार-चढ़ाव आते ही
रहते हैं, पर उनके मन को चैन नहीं आ रहा था क्योंकि उन्हें
अपने भारी-भरकम स्वागत की आदत जो पड़ गई थी।
भेंट लघुकथा राजनेता और आम आदमी (किसान-नेता)
पर केंद्रित है। आम आदमी राजनेता की झूठी
देश प्रेम की बातों में आकर अपनी जान तक दे देता है, वह खुद अभाव में जीता है। लघुकथा में
बताया गया है कि राजनेता की मृत्यु हो जाती है अंतिम संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी, हवन सामग्री
के लिए घी आदि का प्रबंध किया गया। तब अंतिम संस्कार में एक किसान नेता अपने साथ दो
बड़े-बड़े घी भरे हुए पीपे लेकर वहाँ पहुँचा और देशी घी चिता में स्वाहा कर दिया
गया। लघुकथा का तात्पर्य यह है कि किसान नेता को यह ध्यान में न आया कि देश में
कितने ही ऐसे अभागे लोग हैं जिन्हें अपनी जिंदगी में देशी घी के दर्शन भी नहीं
होते।
लव स्टोरी लघुकथा आज के समय में प्रेम के बदल गये प्रतिमान की ओर संकेत करती है। लघुकथा में मोहित और पूजा के
बीच अकथ्य प्यार पनप चुका था। घर वालों से
विद्रोह करके मोहित ने पूजा से कोर्ट मैरिज कर ली। बाद में मजबूर होकर मोहित के घर
वालों ने शादी कर दी। शादी के तीन महीने के बाद पूजा के घर वाले आए और पूजा की माँ
की तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर पूजा को ले गए। मोहित जब ससुराल पहुँचा तो वहाँ का माहौल कुछ और
था। ससुराल वालों ने मारपीट करके थाने में लड़की भगा ले जाने का मुकदमा दर्ज करा के
उसे गिरफ्तार करवा दिया। मोहित की जैसे-तैसे
जमानत होने के बाद वह छूट गया तब पूजा भी उसके विरुद्ध हो गई और पाँच लाख रुपयों
की माँग करने लगी। लघुकथा समाज के ऐसे लोगों की मानसिकता पर चोट करती है जो प्यार
का नाटक करके फसा देते हैं।
आधुनिक युग में शिक्षा का व्यापार हो रहा है।
परीक्षक बिक गए हैं। इन सारी बुराइयों पर प्रहार करने हेतु लंबे हाथ लघुकथा लिखी
है। लघुकथा में साधना बी.ए में प्रथम श्रेणी में पास हो
जाती है। साधना को जो छात्र-छात्राएँ जानते थे वह आश्चर्यचकित
थे क्योंकि साधना ने परीक्षा में एक या दो ही सवाल हल किए थे। विरोधियों विरोध
करने लगे लेकिन साधना के पिताजी सत्ताधारी पार्टी के प्रदेश- अध्यक्ष थे और उनके हाथ काफी लंबे थे।
भूल लघुकथा ऐसे माता-पिता की ओर संकेत करती है जो अपना
कार्य करने के लिए बच्चों के हाथ में मोबाइल दे देते है या टी.वी के सामने बिठा देते हैं। बाद में अपनी भूल का
एहसास होता है, तब देर हो चुकी होती है। लघुकथा का कथ्य देखिए –
रोहित कई दिन से अपने सिर में भारीपन और आँखों में दर्द बता रहा था। मम्मी-पापा
ने डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि उसकी नजर कमजोर हो गई है। उसे चश्मा पहनना होगा।
पापा यह सोचकर बड़े दुखी थे कि चार वर्ष की उम्र में ही बेटे की आंखों पर चश्मा चड
गया। मम्मी ने रोहित को समझाया ‘बेटे टी.वी मत देखा करो टी.वी देखना ठीक नहीं है। तब रोहित कहता है_ “मम्मी आज आप कह रही हैं कि टी.वी मत देखा करो लेकिन जब आप कुछ पढ़ने बैठती थीं या
पापा से बात करती थीं तब आप ही तो मुझे टी.वी के पास ले जाकर बैठा देती थी और कहती थी_ ‘चलो तुम टी.वी देखो।”16 (वही, पृष्ठ,32)
दुनिया दुरंगी लघुकथा पतनोन्मुख पारिवारिक मूल्यों को बताने वाली
रचना है। गोविंद जी का पूरा-भरा परिवार है। परिवार में पाँच दिन
बाद बड़े बेटे की शादी थी। निमंत्रण-पत्र बाँट कर पिताजी घर लौटते है। तो अचानक दिल का
दौरा पड़ा और थोड़ी ही देर में प्राण निकल गए। लोगों के लिए वह बड़ा दुख का विषय
था। जो भी सुनता वही कहता खुशी के मौके पर यह कैसा वज्रपात हो गया। तो दूसरी ओर विवाहोत्सुक
बेटे का कहना था कि_ “यह दुनिया है कहीं खैर-खूबी होती है, तो कहीं हाय, हाय यहाँ सब चलता है। मरने वाले के साथ मरा तो नहीं जाता।”17
(वही, पृष्ठ, 34) शादी निर्धारित तिथि पर हुई शादी
के तुरंत बाद सुपुत्र जी हनीमून मनाने के लिए नैनीताल चले गए और कह गए कि तेरहवीं
के दिन लौट आएंगे। एक तरफ पिता की मृत्यु हो जाती है तो दूसरी तरफ बेटे को पिता की
मृत्यु पर कोई दुख नहीं होता है अतः पारिवारिक पतनोन्मुख मूल्यों की यह हतप्रभ कर देने वाली रचना है।
चाय-नाश्ता
आधुनिक युग में परीक्षार्थी अपने अंक गुरु से कैसे बढ़ाता है इस पर लघुकथा
का निर्माण किया है। बोर्ड की परीक्षा के बाद एक मूल्यांकन केंद्र पर कापियाँ जाँचे
जाने का काम चल रहा था। परीक्षार्थी ने अपने अंक बढ़ाने के लिए उत्तर पुस्तिका में
सौ पचास के नोट रख दिए। परीक्षार्थी ने नोट रखने के साथ-साथ यह भी लिखा था_ “मेरे
पिताजी नहीं रहे उनकी जगह मुझे नौकरी मिल जाएगी इसलिए मुझे पास करने की कृपा करें।”18
(वही, पृष्ठ, 38) नोट देखकर परीक्षक खुश थे की चलो
चाय- नाश्ता का अच्छा जुगाड़ हो गया।
दहेज लघुकथा में डॉ. गोपाल बाबू शर्मा ने ‘दहेज’ का राक्षस समाज के किस स्तर तक पहुँचा
है इस पर टिप्पणी करने हेतु इस लघुकथा का सृजन किया है। कई बार दहेज इसलिए भी लिया
जाता है कि पड़ोसियों को दिखाएँ, उनकी बराबरी करें। इस प्रकार दहेज
में खूब नाटक चलता है। कुछ लड़के वाले नाक को घुमाकर पकड़ते हैं_ “देखिए हमको
कुछ नहीं चाहिए आप जो भी देना चाहे शौक से लड़के लड़की को दें।”19 (वही, पृष्ठ, 39) जब दहेज मनमाफिक नहीं मिलता है और
किसी चीज की कमी रह जाती है तो ताने उलाहने शुरू हो जाते हैं। कभी-कभी भीषण दुष्परिणाम
भी सामने आते हैं। समाज में एक और बढ़ती हुई दहेज की आकांक्षा है
जो दूसरी ओर ऐसी मनोवृति वाले लोगों की कमी नहीं है, जो एक रूपया लेकर
विवाह करना चाहते हैं। पर समाज में दहेज की बुराई इतनी कॉमन हो गई है। कि अच्छाई
पर भी सहसा यकीन ही नहीं होता। विडंबना यह है कि इनकी बात को भी नाटक समझा जाता है।
लघुकथा में रामदयाल जी लड़की वालों से दहेज नहीं लेना चाहते। उनका मानना था कि
लड़की को अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रखना चाहिए उसने जिन सुख सुविधाओं की जरूरत हो
उन्हें वह अपनी कमाई के पैसों से जुटाई इसके लिए लड़की वाले के आगे हाथ क्यों
पसारे जाए? रामदयाल बिना दहेज शादी करना चाहता है लेकिन समाज के लोग की सोच देखिए- “रामदयाल बिना दहेज के लिए क्यों शादी करना चाहते हैं?
दाल में जरूर कुछ काला है। या तो लड़के में कोई खोट है या कोई और बात है।”20
(वही,पृष्ठ, 40) दहेज न लेने के कारण एक साल गुजर
गया तब भी रामदयाल जी के घर शादी नहीं हुई। रामदयाल जी की पत्नी के सब्र का बांध
टूट गया। स्त्री- स्वभाव जो ठहरा। सोचने लगी- ऐसे तो घर में बहू आने की इच्छा अधूरी ही रह जाएगी। पति से बोली_ “आप अपनी
बात छोड़िए। आपको मालूम नहीं। आप ससुराल में विदा के रूपए नहीं लेते थे, तो आपके साढू भाई आपको बेवकूफ बताते थे। ढोंगी कह कर
आपकी हँसी उड़ाते थे। ‘आप भले तो जग भला’ वाली बात अब नहीं रही। आइन्दा लड़की
वालों से मैं बात करूँगी।”21 (वही,पृष्ठ, 40) पत्नी के मोर्चा संभालने के बाद बेटे की शादी हो गई।
सुंदर और पढ़ी लिखी बहू के साथ-साथ दहेज
भी खूब मिला।
निष्कर्षतः इन लघुकथाओं में कथ्य की दृष्टि से कहीं भी दोहराव नहीं है। हर
लघुकथा में एक अलग असंगति- विसंगति, शोषण अथवा अत्याचार को उकेरा गया है, जो लेखक की अपने परिवेश के प्रति जागरूकता को दर्शाता है। इन लघुकथाओं में
वंचितों-शोषितों की पीड़ा को स्वर मिले हैं, तो अन्याय और अत्याचार के प्रति विरोध एवं विद्रोह
की अभिव्यक्ति भी हुई है। इनमें नेताओं और राजनीतिक व्यवस्था की दुष्प्रवृत्तियों
को उभारा गया है। बाल मनोविज्ञान की लघुकथाओं में टी.वी जैसे माध्यम से बच्चों के मन पर कैसा प्रभाव पड़ता है उसे उभारा गया है, तो व्यवस्था में हर स्तर पर घर कर गई बुराइयों का
भंडाफोड़ करने का प्रयत्न भी किया गया है । वस्तुतः इन लघुकथाओं में समकालीन समाज
का सर्वांगीण चित्रण हुआ है। लेखक ने समाज के हर श्याम-सफेद बिंदु को देखा है, समाज की हर नकारात्मक अथवा सकारात्मक संवेदना को महसूसा
है और अपनी लेखनी से सफलतापूर्वक उकेरा है। चाहे पारिवारिक और दांपत्य जीवन के
खट्टे-मीठे अनुभव हो अथवा दलित- शोषित से जुड़े बिंदु हो, लघुकथाकार के संवेदनशील हृदय को लघुकथा
के रूप में अभिव्यक्ति मिली है।
इन लघुकथाओं के शिल्प एवं शैली पर विचार
किया जाए तो संवादों की तरह ही डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की भाषा भी
लघुकथा की माँग के अनुरूप सरल, सहज एवं स्वाभाविक है। उसमें चुटीलापन, प्रवाह एवं जीवन्तता भी है। भाषा में
विविध प्रकार के शब्दों का प्रयोग भी किया है। उनकी भाषा आकर्षक सौष्ठवयुकत तथा प्रभावशाली
बन पड़ी है।
लघुकथाओं में व्यंग्य शिल्प भी उल्लेखनीय
है। वस्तुतः व्यंजना शब्द शक्ति को व्यंग्य का जनक माना जाता है। यह एक ऐसा उपकरण
है जिसके माध्यम से वक्ता अपना आक्रोश व्यक्त कर सकता है। डॉ. गोपाल बाबू शर्मा ने अपनी अधिकांश लघुकथाओं में इस
उपकरण का सहारा लिया है। विशेष रूप से राजनीतिक विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए
उन्होंने इसका सटीक प्रयोग किया है।
लघुकथाओं के शीर्षक कथ्य के सर्वथा अनुरूप
एवं आकर्षक तथा अंत प्रभावशाली है। उनकी अधिकतर लघुकथाएँ वर्णनात्मक एवं विवरणात्मक शैली में लिखी गई हैं
जिनमें आवश्यकतानुसार व्यंग्य एवं संवादों का पुट दिया गया है। इस तरह डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की लघुकथाएँ कथा की
दृष्टि से तो समृद्ध है ही बल्कि शिल्प दृष्टि
से भी सुदृढ है।
डॉ. धर्मेंद्र कुमार एच. राठवा
वल्लभ विद्यानगर
(गुजरात)
आदाब। पहली बार आपका आलेख पढ़ा वाट्सएप स्टेटस से लिंक हासिल कर। एक अच्छे लघुकथा संग्रह की रचनाओं की बेहतरीन सारगर्भित समीक्षा/विवेचना सरल और सहज शब्दों व शैली में आवश्यक संदर्भों सहित। हार्दिक बधाई जनाब डॉ. धर्मेंद्र कुमार एच. राठवा जी और लेखक महोदय।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा
जवाब देंहटाएंश्री गोपाल बाबू शर्मा की कृति 'तीस हजारी दावत' में संकलित लघुकथाओं की सारगर्भित समीक्षा हेतु डॉ. धर्मेंद्र कुमार जी को हार्दिक बधाई।
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