डॉ. गोपाल
बाबू शर्मा के व्यंग्य-संग्रह ‘क़िस्सा
नंगा-झोरी का’ से
गुजरते हुए
डॉ.
सैयद सब्बीरहुसेन कायमअली
व्यंग्य अर्थात् टेढ़ा-मेढ़ा
कथन। जिसे हिन्दी में ताना, गुजराती
में कटाक्ष, मराठी
में उपरोध,
उर्दू में तंज या हजो,
बंगला में प्रहसन और अंग्रेजी में सटायर भी कहा जाता है। सामान्य बात-चीत में जहाँ
हम सीधी बात करते हैं तो उसमें आनंद की गुंजाइश कम रहती है मगर वही बात जब व्यंग्य
के माध्यम से कही जाए तो उसमें आनंद भी आता है और बात का प्रभाव भी पड़ता है। सभी
भाषा के साहित्यकारों ने व्यंग्य को परिभाषित करने की कोशिश की है। आचार्य हजारीप्रसाद
द्विवेदी के अनुसार “व्यंग्य वह है,
जहाँ कहने वाला अधरोष्ठ में हँस रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठा हो और फिर भी
कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहास्यास्पद बना लेना होता है।”१
सीधी भाषा में बात करें तो जहाँ ‘शब्द’
और ‘अर्थ’
अपने मूल अस्तित्व को गौण बनाकर किसी विशिष्ट अर्थ को प्रकट करते हैं उसे व्यंग्य
कहा जाता है। व्यंग्य में साहित्य की व्यंजना शब्दशक्ति ही काम करती है।
व्यंग्य के इतिहास को देखें तो ऋग्वेद,
महाभारत और रामायण में भी इसके प्रमाण मिलते हैं,
मगर वहाँ व्यंग्य स्पष्ट उभरकर सामने नहीं आया। आदिकाल में व्यंग्य वीररस के
कोलाहल में दब गया,
भक्तिकाल में कबीर के हाथों में पड़कर व्यंग्य पारसमणि बन गया जिसने समाज को सुधार की
ओर निर्बाध गति से अग्रसर किया,
रीतिकाल में बिहारी ने व्यंग्य को अपना हथियार बनाया।
सत-सैया
के दोहे,
ज्यों नावक के तीर
देखन
में छोटे लगे, पर
घाव करें गंभीर।
मगर राज्याश्रय के चलते राजाओं की
निरर्थक प्रशंशा के कारण हास्य और कामवासना की आड़ में व्यंग्य को छिपना पड़ा। समय
के बहते प्रवाह के साथ-साथ जनता और साहित्य में परिवर्तन आया। अब जनता भी शासक के
सामने आवाज उठाने लगी और आधुनिक काल में आकर व्यंग्य ने एक ही झटके में सभी विधाओं
से अपना दामन छुड़ा कर अपने आप को एक विधा के रूप में स्थापित किया। जो व्यंग्य अब तक
हासिये पर था अब वह मुख्यधारा में आ चुका था। आधुनिककालीन समाज में क्रांति लाने
के लिए व्यंग्य ने ब्रह्मास्त्र का काम किया है। इस कठिन चुनौती को अंजाम देने में
भारतेन्दु हरिश्चंद्र,
पं. बालकृष्ण भट्ट,
पं. प्रतापनारायण मिश्र,
पं. बालमुकुंद गुप्त,
पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी,
पं. चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’,
बाबू गुलबराय,
आ.रामचन्द्र शुक्ल,
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’,
नागार्जुन, हरिशंकर
परसाई,
रवीन्द्रनाथ त्यागी, शरद
जोशी,
लतीफ घोंघी, डॉ.शंकर
पुंणतांबेकर जैसे कई साहित्यकारों ने योगदान दिया है।
व्यंग्य की धारा को प्रवाहित करनेवालों में
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है। डॉ.गोपाल बाबू शर्मा
जो एक कवि,
लघु कथाकार, निबंधकार,
शोधकर्ता और समीक्षक के अलावा व्यंग्यकार भी हैं। उन्होंने १६ से अधिक व्यंग्य
संग्रह,
१८ से अधिक कविता संग्रह और दो लघुकथा संग्रह हिन्दी साहित्य को दिए है।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा के व्यंग्य संग्रह ‘किस्सा
नंगा-झोरी का’
में सामाजिक,
धार्मिक,
आर्थिक, राजनैतिक,
शैक्षिक, प्रशासनिक
जैसी कई समस्याओं पर व्यंग्य का घातक प्रहार देखने को मिलता है। उन्होंने इस व्यंग्य
संग्रह में एक तरफ नेताओं की पोल खोली हैं तो दूसरी तरफ समाज के चेहरे से मुखौटा
भी हटाया है। धर्म की आड़ में प्रपंच करनेवालों को समाज के सामने नंगा किया हैं तो उसी
धर्म को माननेवाले व्यक्ति के भीतर पनपनेवाली कुमति को भी दिखाया है। डॉ.गोपाल
बाबू शर्मा ने ‘किस्सा
नंगा-झोरी का’
व्यंग्य संग्रह के माध्यम से समाज में फैले हर दूषण और समस्या को उजागर करते हुए
उन पर तमाचा मारा है।
हमारा देश आज हर तरह की समस्या से जूझ रहा
है। देश की तरक्की करने के बजाय नेता अपनी ही तरक्की करते है। धार्मिक स्थल पाखंड
का अड्डा बन गए है। समाज की मानसिकता दिन-ब-दिन भ्रष्ट होती जा रही है। ऐसे में एक
व्यंग्यकार कैसे खामोश रह सकता है? इसीलिए
उन्होंने व्यंग्य का हथियार उठाया। क्योंकि व्यंग्य ही वह हथियार हैं जिसमें समाज
को बदलने और सुधार की ओर अग्रसर करने की क्षमता विद्यमान है।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा ने अपने व्यंग्य
संग्रह में नेताओं के अलग-अलग चरित्र को दिखाया है। जिसमें ‘गिरना
निगाहों से’
रचना में नेता जनता की नजर से गिर जाता हैं फिर भी उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता। उनकी
कथनी और करनी में किस प्रकार का अंतर होता है,
कभी वे बोलते कुछ और हैं और मतलब कुछ और निकलता है फिर भी वे खुद को गलत साबित
नहीं होने देते। ‘किस्सा
नंगा-झोरी का’
रचना में मंत्री की कथनी और करनी में अंतर वाली बात सामने आती है। अमेरिका में जब
एक मंत्री जी की तलासी किसी महिला अफ़सर ने करवाई तो वे भड़क जाते हैं,
डॉ.
गोपाल बाबू शर्मा नेता जी की इस सोच पर भी तमाचा लगाते हैं कि “लगता
है कि उस महिला अधिकारी ने मंत्री जी कि तलासी खुद अपने सुंदर-कोमल हाथों से नहीं
ली, वर्ना हो सकता है कि
ऐसी हालत में मंत्री जी को यह शिकायत होती ही नहीं,
बल्कि तब तो उन्हें अपना नंगा-झोरी देना बहुत अच्छा लगता। वे निहाल हो उठते।”२
‘परिवार
जिंदाबाद!’
रचना राजनीति में परिवारवाद की नीति को उजागर करती है। राजनीति में परिवारवाद का
दौर लंबे समय तक रहा और आज भी चल रहा है। एक पक्ष वो हैं जिसके परिवार वाले एक ही
पक्ष में लंबे समय से डेरा डाले हुए हैं और दूसरा पक्ष वो हैं जिसके परिवार वाले
हर पार्टी में घूसे हुए हैं बात तो परिवारवाद की ही है। आज नेताओं के द्वारा इतने
फालतू खर्च किए जाते हैं कि जिसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। जहाँ
५ करोड़ में कम हो सकता हैं वहां ५० करोड़ चिपका देते हैं ‘नौ
की लकड़ी,
नब्बे का खर्चा’ रचना
इसी बात पर व्यंग्य करती हैं जिसमें बेरोजगारी भत्ते के साढ़े आठ करोड़ रुपये बाँटने
का खर्च साढ़े बारह करोड़ आता है।
नेताओं के ऐसे ही काले कारनामों की वजह से
उनकी सुरक्षा के पीछे भी करोड़ों रुपयों का खर्चा आता हैं और प्रशासन भी बड़े लोगों
की सुरक्षा के पीछे पहले लगता है। हमारे देश में निम्नवर्ग और मध्यमवर्ग की
सुरक्षा का खयाल नहीं रखा जाता मगर नेता,
वी.आई.पी,
खिलाड़ी,
अभिनेता,
गुंडे और आतंकवादी की सुरक्षा का पूरा ख़याल रखा जाता है। उनके लिए सुरक्षा एक
सामाजिक दर्जा दिखने के बराबर है। ‘सुरक्षा
चाहिए’
रचना में शर्मा जी लिखते हैं कि “जहाँ
तक सुरक्षा की बात है,
नेता-अभिनेता और उद्योगपति तक अपने को असुरक्षित पाते हैं। जो जितना बड़ा,
वह उतना ही असुरक्षित, क्योंकि बड़े लोगों के कारनामे भी बड़े। अत: उन बेचारों का
डरना स्वाभाविक है।”३
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा के व्यंग्यों में एक
खास बात यह देखी जाती है कि वे किसी व्यक्ति विशेष पर सीधा प्रहार करते हैं,
मगर शब्दों की सावधानी की वजह से वे मानहानि के दावे से बच जाते हैं। ‘नींद
तो नींद है,
आ गई होगी’ रचना
युवानेता जो सदन में सोते हुए पकड़े गए थे और वर्तमान सरकार को यह कहने का मौका मिल
गया था कि इन्होंने अपने शासन में भी सोने का ही काम किया है। बात भी सही है जिसको
सदन की अहमियत पता हो वो कभी नहीं सोयेगा मगर जिसने सदन को अपने बाप की जागीर समझा
हो वो तो सो सकता है। ‘क्रेज़
लाल बत्ती का’ रचना
भी एक महिला सांसद और अभिनेत्री के व्यक्तिगत चरित्र को उजागर करती है। अपने फर्ज़
पर ईमानदारी से काम करनेवाले यातायात अधिकारि ने महिला सांसद की गाड़ी पर लगी लाल बत्ती
को देखकर चालान काट दिया तो महिला सांसद ने अपनी नापाक ताक़त के सहारे उलटा यातायात
अधिकारी पर ही अभद्रता के व्यवहार का केस कर दिया। इस प्रकार के व्यक्तिगत व्यंग्य
शर्मा जी की कलम के सहारे लोगों को समाज और देश के सामने बेनकाब करते है।
‘हम
क्यों दे हिसाब?’
व्यंग्य रचना में हम देखते हैं की पार्टी के लोग किस प्रकार अपनी मनमानी करते हैं और
जनता का पैसा होने के बाद भी जनता तक हिसाब नहीं पहुँचाया जाता और इन्कम-टैक्स भी
नहीं देते, यहाँ
तक कि सूचना आयोग के फैसले को भी ठुकरा दिया जाता है। हाँ, क्यों न ठुकराए सब
चोर-चोर मौसेरे भाई जो ठहरे। चुनाव के वक्त ये सभी पार्टियाँ अलग-अलग होकर जनता को
हिन्दू-मुसलमान के नाम पर दंगे करवाती हैं मगर जब उन पर कोई आँच आती है तो वे सब
एक हो जाते हैं और वे हरामखोरी करने में कामयाब हो जाते हैं। जैसे- “करोड़ों-अरबों
की मालिक बनी पार्टियाँ भी आयकर के दायरे में क्यों आएँ?
ठीक ही तो है आय-कर देने के लिए देश में और बहुत-से ईमानदार लोग मौजूद है। सरकार
का काम आराम से चलता है। पार्टियों द्वारा इन्कम-टैक्स न देने से क्या फर्क पड़ता है?”४
हमारे देश में आम जनता बिलकुल सुरक्षित नहीं।
उसमें भी महिलाएँ। आए दिन कही न कही बलात्कार की घटनाएँ सामने आती है,
कुछ समय के हल्लाबोल होता है,
रैलियाँ निकलती हैं और कानून की कमजोरी के कारण बलात्कारी छूट जाते हैं। ‘बात
रेप की’ रचना
के द्वारा हमें पता चलता है कि बलात्कारियों को बड़े नेता और शासक ही बचाते हैं। जैसे-
“हमारे यहाँ ऐसे भी माननीय नेता लोग हैं,
जो यह फर्माते हैं कि अरे लड़के हैं। लड़कों से गलतियाँ होती ही हैं। वे गलती कर
बैठे,
तो क्या उन्हें फाँसी पर लटका दिया जाए?
अगर ऐसा कानून होगा भी,
तो हम सत्ता में आने पर उसे बदल डालेंगे।”५ ‘कमाल
की प्रगतिशीलता’
में शर्मा जी ने बलात्कारियों की मनमानी और न्यायव्यवस्था तथा प्रशासन की कमजोरी
पर कालिख पोत दी है। “ऐसा होना कोई खास बात नहीं। यहाँ नर्स अरुणा शानबाग के गले
में कुत्ते की जंजीर डालकर उसके साथ क्रूरतापूर्वक दुष्कर्म की कोशिश की जाती है।
पीड़िता बयालीस साल तक कॉमा में रहकर तिल-तिल कर मरती रहती है,
लेकिन आरोपी सिर्फ सात साल की सजा काट कर छूट जाता है।”६
‘तब
की तब देखी जाएगी’
व्यंग्य रचना भी कन्या भ्रूण-हत्या जैसी सामाजिक समस्या को उजागर करती है। देश में
ऐसे कई अस्पताल हैं जहाँ पर अवैध तरीके-से इस व्यवसाय को चलाया जाता हैं और पकड़े
जाने पर औपचारिकता निभाने के लिए नोटिस दी जाती हैं फिर कुछ ही दिनों में दोबारा
अनुमति मिल जाती है। ‘छेड़छाड़
की चिंता कोई क्यों करे?’ बड़े
नेता,
अफ़सर,
डॉक्टर,
प्रोफेसर,
वकील और प्रशासन के आला अफ़सर भी इस बात की चिंता नहीं करते कि किसी स्त्री को
छेड़ने पर उनकी कितनी बेइज्जती होती है?
इसी कारण आज बड़े लोग और उनकी नाजायज औलाद भी इस प्रकार के घिनौने काम करती है। ऐसे
लोगो पर शर्मा जी व्यंग्य करते हैं कि- “कुछ नेता तो ऐसे भी होते हैं,
जो अपहरण और बलात्कार जैसे काम से अपना नाम रोशन करते हैं। पकड़े जाने पर उनकी
पार्टी उन्हें बचाने का पूरा प्रयास करती है। ऐसे महानुभाव भला क्यों करेंगे
छेड़छाड़ की चिन्ता।”७
‘आतंकवादी:
ठाठ ही ठाठ’
व्यंग्य सरकार, प्रशासन
और न्यायव्यवस्था पर अपना हथौड़ा चलता है। आतंकवादियों को हमारे देश में फर्जी
कागजात से लेकर रहने तक के लिए मकान मिल जाता है। जब वे कोई हादसा करके पकड़ा जाता है
तब पुलिस उससे जानकारी लेने के बहाने उसे विशिष्ट सुरक्षा,
भोजन और जेल में भी सभी सुविधाएँ देती है। करोड़ों रुपया उन पर खर्च किया जाता है।
सरकार उनको अपने दामाद की तरह पालती है। कसाब,
टुंडा, अफ़जल
गुरु, भटकल
या हड्डी ऐसे तो कई आतंकवादी हैं जिनको भारतीय सरकारी वी.आई.पी सुविधा का सुख
भोगने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। जब वे अपनी मौत मर जाते हैं तो वह फाइल बंद करदी
जाती है और कुछ हाथ नहीं लगता। दूसरी तरफ लेखक ने ‘जलनेवाले
जला करें’
रचना में सरकारी अफसर और नेताओं को मिलनेवाली वी.आई.पी सुविधा और करोड़ों के फालतू
खर्च पर भी व्यंग्य का बाण चलाया है। यानी आतंकवादी और नेता दोनों के पीछे फिज़ूल
खर्च किया जाता है।
इनके अलावा डॉ.गोपाल बाबू शर्मा ने ‘गिरना
निगाहों से’
रचना में दोगले नेताओं पर व्यंग्य किया है तो ‘दरबारी
संस्कृति’
में लोगों की चापलूसी वाली वृत्ति को उजागर किया है। शर्मा जी ने व्यक्ति के साथ
प्रकृति को लेकर भी व्यंग्य किया है। जिसमें गंगा तो मैली हो ही गयी हैं मगर अब
यमुना भी मैली हो गयी है। ‘बेचारी
यमुना भी मैली’ व्यंग्य
के माध्यम से गोपाल बाबू नदियों के प्रदूषित होने पर सरकार,
अफसर,
साधू-संत और धार्मिक वृत्ति वाले लोंगों पर व्यंग्य करते है। हक़ीक़त में ये लोग
धर्म को धंधा बना लेते हैं,
सारा खेल पैसे का होता है बस जनता को धर्म की लालच दिखाई जाती है। एक गंगा तो
पवित्र हुई नहीं मगर गंगा को पवित्र करने के बहाने देश में कई नेता और अफसरों के
घर लक्ष्मी से पवित्र जरूर हो गए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि डॉ. गोपाल बाबू
शर्मा जी ने ‘किस्सा
नंगा-झोरी का’
व्यंग्य संग्रह में हमारे देश के भ्रष्ट नेता,
घूसखोर
अफसर,
भ्रष्टाचारी प्रशासन, अंधी
और बहरी न्यायव्यवस्था,
खोखली समाजव्यवस्था और दोहरे व्यक्तित्व वाले लोगों पर व्यंग्य का प्रहार किया है।
जिस देश में नारी को सम्मान मिलना चाहिए उसे अपमानित किया जाता है,
जिस अतिथि का स्वागत होना चाहिए उसे लूटा जाता है,
जिस देश में प्रकृति का संरक्षण होना चाहिए उसे ही दूषित किया जाता है,
जहाँ
आचरण शुद्ध होना चाहिए वहीं पर पापाचार का नंगा खेल खेला जाता है। शर्मा जी ने
व्यंग्य की कलम से इन सभी बुराइयों का पर्दा फाश किया है जिससे देश और समाज को
स्वच्छ बनाया जा सके।
शर्मा जी की व्यंग्य रचनाओं की भाषा सरल और
आम बोलचाल की भाषा है। कहावतों और मुहावरों का उचित स्थान पर प्रयोग भी हुआ है जैसे-
‘जिसने ओढ़ी बेशर्मी
की लोई,
उसका क्या करेगा कोई’, ‘लेने
के देने पड़ना’, ‘नौ
की लकड़ी,
नब्बे का खर्च’, ‘मन-मन
भावै,
मूड हिलावै’।
इससे इनके व्यंग्यों में और भी असर पैदा होता है। एक व्यंग्यकार की कलम में हमेशा नश्तर
का नुकीलापन होता हैं यह बात डॉ.गोपाल बाबू शर्मा के व्यंग्यों में मिलती है।
संदर्भ-सूची
-
१.
स्वातंत्र्योत्तर
हिन्दी गद्य में व्यंग्य,
डॉ.हरीशंकर दुबे पृ. ३२
२.
किस्सा नंगा-झोरी का,
डॉ.गोपाल बाबू शर्मा पृ.८
३.
वही: सुरक्षा चाहिए
पृ.२५
४.
वही: हम क्यों दे
हिसाब?
पृ.५४
५.
वही: बात रेप की
पृ.१४
६.
वही: कमाल की
प्रगतिशीलता पृ.३३
७.
वही: छेड़छाड़ की
चिंता कोई क्यों करे? पृ.५०
डॉ.
सैयद सब्बीरहुसेन कायमअली
दागजीपुरा
उमरेठ (जि.
आणंद)
गुजरात
हिंदी साहित्य में व्यंग्य की परंपरा से गुजरते हुए गोपालबाबू शर्मा के व्यंग्य तक की यात्रा और उनके एक संग्रह की समीक्षा प्रभावित करती है।गोपालबाबू शर्मा की व्यंग्य दृष्टि को सहज ढंग से उद्घाटित किया गया है।
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