बुधवार, 4 मई 2022

विमर्श



डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

भाषा और मनुष्य :

भाषा, मनुष्य को, कुदरत की तरफ से मिला हुआ एक अनुपम उपहार है। इस धरती पर असंख्य प्राणी रहते हैं। परंतु भाषा सिर्फ मनुष्य के पास है। हम यह भी कह सकते हैं कि इस धरती पर मनुष्य अगर श्रेष्ठ प्राणी है, तो वह भाषा के ही कारण। भाषा मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। भाषा की वजह से ही मानव समाज है; साहित्य, कला, संस्कृति, धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान आदि सबके मूल में भाषा की ही शक्ति काम करती है। भाषा रोते हुए को हँसाती है; और हँसते हुए को पल भर में रुला देती है। आप उस स्थिति की जरा कल्पना कीजिए कि मनुष्य के पास भाषा नहीं होती, तो उसका क्या हाल होता? क्या यह सच नहीं है कि भाषा के बिना मनुष्य भी उन हजारों-लाखों प्राणियों की तरह ही अशक्त एवं नगण्य प्राणी होता। कहने का आशय यह है कि भाषा के महत्त्व एवं उसकी उपयोगिता के बारे में जितना कहा जाए, वह कम ही होगा।

भाषा और व्याकरण :

सामान्यतः लोग यह समझते हैं कि व्याकरण भाषा से अलग कोई वस्तु है। व्याकरण बेवजह भाषा पर बोझ बना रहता है। लोग यह भी कहते सुने जाते हैं कि मैं तो व्याकरण को नहीं मानता; मैं तो व्याकरण पर ध्यान नहीं देता; मैं तो व्याकरण की परवाह नहीं करता आदि-आदि।

परंतु भाषा और व्याकरण के बारे में ऐसी धारणाएँ ठीक नहीं हैं। वास्तव में व्याकरण भाषा से अलग कोई वस्तु नहीं है। व्याकरण भाषा के शरीर में बहता रक्त है। यह बात हम इस रूप में भी समझ सकते हैं कि जैसे दूध में घी व्याप्त रहता है, वैसे ही भाषा में व्याकरण व्याप्त रहता है। जैसे दूध का सत्त्व घी है, वैसे ही भाषा का सत्त्व व्याकरण है। व्याकरण का मतलब है, उन नियमों का वर्णन-विश्लेषण, जिनके द्वारा भाषा काम करती है।

यहाँ समझने की बात यह है कि भाषा शब्दों का भंडार नहीं है। हम जब बोलते या लिखते हैं, तब सिर्फ शब्द नहीं बोलते-लिखते। हम वाक्य बोलते या लिखते हैं, जिसका कोई निश्चित अर्थ होता है और वाक्य में प्रयुक्त शब्द कुछ निश्चित नियमों से एक-दूसरे से संबद्ध होते हैं। उन नियमों को हर भाषाभाषी जानता-समझता है। हर भाषा नियमों के अधीन काम करती है और वे नियम हमारे मस्तिष्क में अप्रकट रूप में मौजूद होते हैं। यही कारण है कि एक व्यक्ति किसी भाषा में बोलता है, तो उस भाषा को जानने वाला दूसरा उसे सरलता से समझ लेता है।

किसी भाषा को जानने का मतलब है, उस भाषा के नियमों को जानना। जिस भाषा के नियमों को हम नहीं जानते, उसको सुनकर या पढ़कर भी हम कुछ नहीं समझ सकते। कोई वैयाकरण (व्याकरण लिखने वाला) भाषा में मौजूद नियमों को भाषा से अलग करके व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध रूप में हमारे सामने रखता है। वह अपनी तरफ से कुछ नहीं करता। वह मनमाने ढंग से कोई नियम नहीं बनाता या नहीं बना सकता। अगर व्याकरण लिखने में उससे कहीं कोई गलती होती है, तो इसका मतलब यह हुआ कि उस बात को वह ठीक से समझ नहीं पाया है। समय के अनुसार भाषा के प्रयोग बदलते रहते हैं; और उसी के साथ व्याकरण के नियमों में भी परिवर्तन आता रहता है।

अब प्रश्न यह है कि व्याकरण जानने या पढ़ने-समझने की क्या आवश्यकता है? हम क्यों व्याकरण पढ़ें? इस विषय पर जरा दूसरे ढंग से सोचते हैं। कोई आदमी बहुत कुशलता से कोई गाड़ी चलाता है या गाड़ी चलाना जानता है। परंतु गाड़ी कैसे चलती है या गाड़ी के कल-पुर्जे कैसे काम करते हैं? यह वह बिल्कुल नहीं जानता। परंतु एक दूसरा ऐसा आदमी है, जो कुशलतापूर्वक गाड़ी चलाना तो जानता ही है, गाड़ी के कल-पुर्जों की भी उसे अच्छी जानकारी है। इस नाते वह अधिक सुरक्षित ढंग से गाड़ी चलाएगा। इसी तरह से जिसे अपने शरीर के अंगों के बारे में तथा उनके कार्य के बारे में अच्छी जानकारी रहेगी, वह ठीक ढंग से स्वास्थ्य के नियमों का पालन कर सकेगा।

व्याकरण जानने वाला सही, सार्थक तथा अधिक प्रभावशाली ढंग से भाषा का प्रयोग कर सकेगा। वह दूसरों द्वारा कही-लिखी बात को अधिक स्पष्टता और गहराई से समझ सकेगा। जो व्याकरण जानता है, उसका भाषा-कौशल, उस व्यक्ति से ज्यादा होगा, जो व्याकरण नहीं जानता।

भाषा और लिपि :

भाषा दो प्रकार की होती है; या यों कहें कि भाषा के दो रूप होते हैं : मौखिक भाषा तथा लिखित भाषा। जब हम मुख से बोलकर अपने भावों-विचारों को व्यक्त करते हैं, तब भाषा के मौखिक रूप का उपयोग करते हैं और जब लिखकर अपने भावों-विचारों को व्यक्त करते हैं, तब उसके लिखित रूप का उपयोग करते हैं। यह कम लोगों को मालूम होगा कि किसी भाषा और उसकी लिपि के बीच कोई सहज यानी कुदरती तथा अनिवार्य संबंध नहीं होता। वैसे यह भी एक सचाई है कि भाषा अपनी प्रकृति के अनुरूप ही अपनी लिपि विकसित करती है। फिर भी यह सच है कि भाषा और लिपि का संबंध कुदरती नहीं होता। यही कारण है कि एक लिपि में कई भाषाएँ लिखी जा सकती हैं या लिखी जाती हैं; तथा एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है। देवनागरी लिपि में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, मराठी, नेपाली आदि भाषाएँ लिखी जाती हैं; तथा दुनिया में कई ऐसी भी भाषाएँ हैं, जो एक से अधिक लिपियों में लिखी जाती हैं।

यहाँ एक सवाल हो सकता है कि भाषा का मौखिक रूप पहले है या उसका लिखित रूप? आज से सौ साल पहले तक दुनिया भर के लोग यही मानते थे कि ‘भाषा का लिखित रूप ही उसका मूल रूप है। हम लिखित रूप के अनुरूप ही बोलते हैं; या यों कह सकते हैं कि हमें लिखे हुए के अनुसार ही बोलना चाहिए।’ परंतु बाद के भाषा-चिंतकों ने यह सिद्ध कर दिया कि भाषा का मौखिक रूप ही उसका मूल रूप है। अर्थात् भाषा वही है, जो हम बोलते हैं। इसके लिए दो ही प्रमाण पर्याप्त होंगे। प्रथम यह कि मनुष्य ने कुछ हजार वर्ष पूर्व ही लिखना-पढ़ना सीखा है। परंतु बोलना तो वह तब से जानता है, जब से मनुष्य जाति अस्तित्व में आई; भले ही आरंभ में उसकी भाषा अविकसित थी और बाद में धीरे-धीरे विकसित हुई। दूसरे यह कि जो लिखना-पढ़ना नहीं जानता, वह भी बोलना जानता है। इन दो तर्कों या प्रमाणों से यह सहज ही आप समझ गए होंगे कि भाषा का मौखिक रूप ही उसका मूल रूप है।

 

 


डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईं पार्क सोसाइटी

बाकरोल – 388315

जिला आणंद (गुजरात)


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